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दिल्ली शिक्षा बोर्ड : आओ कुछ तूफानी करते हैं

आधुनिक समाज में चाहे कोई भी क्षेत्र हो गुणवत्ता की मांग हर जगह होती है। शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता की आवश्यकता महसूस की जा रही है।

आधुनिक समाज में चाहे कोई भी क्षेत्र हो गुणवत्ता की मांग  हर जगह होती है। शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता की आवश्यकता महसूस की जा रही है। गुणवत्ता शिक्षा से आशय शिक्षा में गुणों का विकास करना या गुणों का समावेश करना है जिससे छात्रों एवं शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति भलीभांति हो सके। यदि नदी के पानी का प्रवाह रुक जाए तो वह नदी कीचड़ में बदल जाती है, गतिरोध पैदा हो जाता है, इसलिए नदियों के जल का प्रवाह अबाध बना रहे इसके लिए गाद निकालने से लेकर अनेक तरह के उपाय किए जाते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें बच्चों को पढ़ाने के ​लिए पुराने तौर-तरीकों से निकल कर आगे बढ़ना होगा। हमें किताबी पढ़ाई से आगे बढ़कर ऐसे कदम उठाने होंगे ताकि भावी पीढ़ी न केवल सभ्य नागरिक बनें बल्कि वे देशभक्त हो, जो आने वाले समय में हर क्षेत्र में देश की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाने के लिए तैयार हो। बच्चे अच्छे इंसान बनें और बच्चे अपने पांव पर खड़े हो सकें।
दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में बड़े बदलाव लाने के उद्देश्य से दिल्ली बोर्ड ऑफ एजुकेशन के गठन को मंजूरी दे दी है। अब अन्य राज्य की तरह दिल्ली का अपना शिक्षा बोर्ड होगा। आलोचक कह सकते हैं कि जब दिल्ली में सीबीएसई और आईसीएसई पहले से ही है तो फिर दिल्ली में अलग बोर्ड की क्या जरूरत है। दिल्ली में आप सरकार के दौरान शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बदलाव आया है। नीति आयोग ने भी दिल्ली के सरकारी स्कूलों की तारीफ की है। सरकारी शिक्षण संस्थानों में आए बदलाव के चलते यहां के स्कूलों को नेशनल अचीवमैंट सर्वे में सबसे ज्यादा अंक दिए हैं। नीति आयोग द्वारा तैयार इंडिया इनोवेशन इंडेक्स 2020 के अनुसार अन्य राज्यों का औसत एनएस स्कोर 35.66 आया है जबकि उत्तर प्रदेश को केन्द्र सरकार के नीति आयोग ने जीरो नम्बर दिए हैं। आप सरकार ने सरकारी स्कूलों की प्रणाली में बड़े स्तर पर बुनियादी बदलाव किये हैं, जिसका डंका देश में नहीं विदेशो में भी बजा है। देश के कई राज्य दिल्ली का मॉडल अपनाने लगे हैं। कोरोना काल में दिल्ली सरकार ने सरकारी स्कूलों के छात्रों के लिए आनलाइन कक्षाएं शुरू की थीं। 20 देशों की ई-लर्निंग का इस्तेमाल बच्चों को शिक्षित करने के ​लिए किया गया। लॉकडाउन के दौरान सरकारी स्कूलों के केजी से लेकर 12वीं तक के करीब 9 लाख छात्र-छात्राओं ने आनलाइन, एसएमएस और आईबीआर लर्निंग सिस्टम का लाभ उठाया।
बहुत लम्बे समय तक दो प्रकार के शिक्षा माडल रहे हैं। एक धनी वर्ग के लिए, दूसरा आम जनता के लिए। आप सरकार ने इस अंतर को खत्म करने की कोशिश की है। इसका दृष्टिकोण इस विश्वास से उपजा है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एक आवश्यकता है ना कि सुख-सुविधा का कोई साधन। दिल्ली सरकार ने उच्च सुविधाओं से लैस नए सौंदर्यशास्त्रीय रूप में स्कूल के ढांचे को ​​डिजाइन किया और कक्षाओं को नया रूप दिया। दिल्ली सरकार अपने बजट का 25 फीसदी शिक्षा पर खर्च करती है। शिक्षकों को उनके पेशेवर विकास के लिए अवसर दिए गए। उन्हें देश-विदेश में जाकर शिक्षा के मॉडल को देखा और साथ ही उन्हें नेतृत्व प्रशिक्षण भी दिया गया।
पैकेट टीचर्स मीटिंग के जरिये शिक्षकों और अभिभावकों के बीच नियमित वार्तालाप शुरू की गई। 8वीं कक्षा तक के बच्चों के लिए भावनात्मक विकास के लिए खुशी पाठ्यक्रम और 12वीं कक्षा तक के बच्चों की समस्या का समाधान और महत्वपूर्ण सोच क्षमताओं को विकसित करने के लिए उद्यमशीलता, मानसिकता पाठ्यक्रम शुरू किया गया। सरकारी स्कूलों के परिणाम भी काफी बेहतर हुए हैं। अब सवाल यह है कि दिल्ली को अपना नया बोर्ड बनाने की जरूरत क्यों पड़ी। अगर हमें चार कदम आगे बढ़ना है तो हमें कुछ न कुछ तूफानी करना पड़ेगा।
आज अभिभावक चाहते हैं कि बच्चों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का बोर्ड मिले। उपमुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने बाेर्ड की पूरी रूपरेखा पेश कर दी है। जो विषय एनसीईआरटी  में पढ़ाए जाएंगे उसमें बदलाव नहीं होगा। बच्चों को किताबें रटने देने की बजाय उनका समुचित आकलन किया जाएगा। चीजों को रटाने की बजाय चीजों को समझने पर जोर दिया जाएगा। पूरी पढ़ाई में सुधार किये जाएंगे। बच्चों में देशभक्ति की भावना जगाने के लिए भी इसे पाठ्यक्रम में जोड़ा जाएगा। शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाया जाएगा। जब भी कुछ नया किया जाता है तो उस पर बहस छिड़ जाती है। तर्क-वितर्क शुुरू हो जाते हैं। कुछ शिक्षाविद् सवाल उठा रहे हैं कि कोई अभिभावक सीबीएसई से हटाकर अपने बच्चों को दिल्ली बोर्ड से क्यों जोड़ना चाहेगा। दूसरा पहलू यह है कि देशभर में सभी राज्यों के ही बोर्ड में 95 फीसदी बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं, जबकि सीबीएसई बोर्ड में पढ़ने वाले बच्चों का प्रतिशत महज 5 फीसदी है। यह भी समझना होगा कि नगालैंड, मेघालय, मिजोरम जैसे राज्यों के स्कूलों और वहां की जनजातियों के लिए जितनी जमीनी सांस्कृतिक रूप से पुष्ट और बेहतर शैक्षिक व्यवस्था वहां के राज्य का बोर्ड करता है, उतना बेहतर सीबीएसई बोर्ड नहीं कर सकता। दिल्ली के चुनावों में शिक्षा और स्वास्थ्य कभी मुद्दा नहीं बनता था, लेकिन केजरीवाल सरकार के शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति विजन के बाद अब चुनावों में शिक्षा और स्वास्थ्य महत्वपूर्ण मुद्दा बनते हैं।  दिल्ली सरकार की अपना शिक्षा बोर्ड गठित करने की पहल अच्छी है और शिक्षा में सुधारों के ​िलए जरूरी भी है।

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