संशोधित नागरिकता कानून को लेकर राजधानी में जो खूनी तांडव पिछले दिनों हुआ है उसके परिणामों पर अब पूरे देश के नागरिकों को गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए और साथ ही सरकार व विपक्ष को भी विचार विनिमय करके वातावरण को सहज व अनुकूल बनाने की कोशिशें करनी चाहिएं। देश के प्रत्येक राजनैतिक दल के लिए राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होता है और जब इन हितों पर आंच आती है तो राजनीतिक हानि-लाभ के प्रश्न समाप्त हो जाते हैं। पूरा विश्व जब आर्थिक भूमंडलीकरण के दौर में एक-दूसरे पर निर्भरता और परस्पर सहयोग की शर्तों से बंध कर ही क्षेत्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर निजी विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है तो किसी भी देश में होने वाले सामाजिक संघर्ष का असर बहुआयामी हो सकता है।
दिल्ली की हिंसा ने भारत की छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर खास कर दक्षिण एशिया के क्षेत्र में दागदार बनाने का काम किया है। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी रहा कि यह हिंसा उन दो दिनों में सबसे ज्यादा हुई जब अमेिरका के राष्ट्रपति डोेनाल्ड ट्रम्प भारत की राजकीय यात्रा पर थे।इस पर भी जम कर राजनीति हो चुकी है कि क्या खूनी तांडव का समय चुनने के पीछे कोई साजिश थी ? किन्तु अब बात इस हद से बाहर जाती हुई दिखाई पड़ रही है क्योंकि इंडोनेशिया की सरकार ने वहां स्थित भारतीय राजदूत को जकार्ता बुला कर दिल्ली की साम्प्रदायिक हिंसा पर चिन्ता प्रकट की गई।
इंडोनेशिया भारत का मित्र देश है और दोनों देशों के बीच के प्रगाढ़ सम्बन्ध ऐतिहासिक व सांस्कृतिक रूप से बहुत निकट के रहे हैं। मुस्लिम देश होने के बावजूद इंडोनेशिया हिन्दू संस्कृति के प्रतीक चिन्हों को अपने देश की धरोहर समझता है और उनका प्रदर्शन भी खुले दिल से करता है। इस देश में भारी संख्या में हिन्दू, बौद्ध, इसाई आदि भी पूरी स्वतन्त्रता के साथ रहते हैं और बराबर के नागरिक अधिकारों से लैस हैं। इस देश का समाज भी विविधतापूर्ण संस्कृति का हामी है। अतः इंडोनेशिया का भारत की राजधानी में साम्प्रदायिक हिंसा का संज्ञान लेना गंभीर विषय माना जा सकता है। इस देश में भी उदार लोकतन्त्र है, अतः इस देश के विदेश मन्त्रालय का यह कहना कि ‘उसे उम्मीद है कि भारत की सरकार स्थिति को संभालने में पूरी तरह सक्षम होगी और धार्मिक समुदायों के बीच भाईचारा कायम करेगी, दोनों देशों का चारित्रिक स्वरूप भी विविधता से भरा है और दोनों का लोकतन्त्र व सहिष्णुता में विश्वास है।’
बेशक भारत के मुकाबले इंडोनेशिया छोटा देश है परन्तु इसका सांस्कृतिक चरित्र भारत जैसा ही है। अतः वहां के विदेश मन्त्रालय की राय को चेतावनी नहीं कहा जा सकता बल्कि सलाह कहा जा सकता है मगर विगत शुक्रवार को भारतीय राजदूत को बुला कर विदेश मन्त्रालय द्वारा अपना बयान देने से कुछ घंटे पहले ही इंडोनेशिया के धार्मिक मामलों के मन्त्री की तरफ से दिल्ली में हुई साम्प्रदायिक हिंसा को मुसलमानों के विरुद्ध बताते हुए इसकी निन्दा की गई थी। इसका नतीजा तो हमें निकालना होगा और सोचना होगा कि भारत की पहचान पर अंगुली क्यों उठाई जा रही है? अतः पूरे भारत को एक मत से अपनी प्रतिष्ठा को निर्विवाद रूप से ‘सर्वधर्म सम भाव’ रूप में रखने को वरीयता देनी होगी और इसमें राजनैतिक मतभेद आड़े नहीं आते हैं क्योंकि भारत का संविधान यही घोषणा करता है परन्तु दूसरी तरफ राजधानी में ही जिस तरह पुनः ऐसे नारे लगाये गये जिन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय पहले ही जुर्म की हदों में मान चुका है तो प्रशासन को बहरा बन कर नहीं बैठना चाहिए।
जिस तरह कल राजधानी की सड़क पर पुनः ‘देश के गद्दारों को-गोली मारो सालों को’ का नारा लगाया गया उससे यही आभास होता है कि कुछ लोग साम्प्रदायिक उन्माद को हवा देते रहना चाहते हैं। ये लोग भारत के राष्ट्रीय हितों के खिलाफ काम कर रहे हैं। उनकी पार्टी कोई भी हो सकती है मगर वे देश भक्त नहीं हैं। देशभक्ति का पहला पाठ राष्ट्र का स्वाभिमान होता है और यह स्वाभिमान ‘देश चरित्र’ से आता है। भारत का चरित्र मानवीयता के उस सिद्धान्त को मानता है जिसमें कहा जाता है कि ‘प्राणियों मे सद्भावना हो -विश्व का कल्याण हो।’ इससे पहले भी मलेशिया के प्रधानमन्त्री महाथिर मोहम्मद ने नागरिकता कानून को लेकर बहुत तीखी टिप्पणी की थी जिसे लेकर भारत ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी और इसे भारत के अन्दरूनी मामलों में हस्तक्षेप बताया था, परन्तु असली सवाल यह है कि हम दक्षिण एशिया की जनसांख्यिकी (डेमोग्राफी) को नहीं बदल सकते।
मलेशिया भी मुस्लिम देश है और उदार लोकतन्त्र वाला देश है जहां हिन्दू, सिख, तमिल आदि भारी संख्या में रहते हैं। आर्थिक भूमंडलीकरण से बिन्धे हुए देश एक-दूसरे की सामाजिक संरचना का संज्ञान इस प्रकार लेते हैं कि उनके आर्थिक हितों पर विपरीत प्रभाव न पड़े, मलेशिया ऐसा देश है जिसमंे भारतीय चिकित्सकों की प्रतिष्ठा सन्देह से परे मानी जाती है। ये सब हमारे राष्ट्रीय हितों से बन्धे मानक हैं जिनका संज्ञान हमें लेना होगा। जब 1956 के करीब समाजवादी नेता स्व. डा. राम मनोहर लोहिया ने ‘भारत- पाक महासंघ’ बनाने का प्रस्ताव रखा था तो उसका जबर्दस्त समर्थन भारतीय जनसंघ के नेता प. दीनदयाल उपाध्याय ने किया था परन्तु दुर्भाग्य से इसके बाद पाकिस्तान में लोकतन्त्र ही समाप्त हो गया और वहां सैनिक शासन की चौसर बिछ गई लेकिन राष्ट्रीय हितों को देखते हुए ही लोहिया और उपाध्याय एकमत हुए थे, किन्तु दिक्कत यह है कि भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में नागरिकता कानून को लेकर अब भी हिंसा की वारदातें हो रही है। मेघालय में नागरिकों को हिंसा का शिकार बना रहे हैं। इसका मतलब यही निकलता है कि समस्या बहुआयामी है। हमें इसका हल तो ढूंढना ही होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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