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दिल्ली की आबोहवा और पुराने वाहन

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देश की राजधानी दिल्ली दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषित शहर है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण से लेकर शीर्ष अदालत तक के आदेशों के बावजूद दिल्ली में प्रदूषण कम होने का नाम नहीं ले रहा। राजधानी में 30 प्रतिशत वायु प्रदूषण औद्योगिक इकाइयों के कारण है जबकि 37 प्रतिशत वाहनों के कारण है। खुले स्थान और हरित क्षेत्र की कमी के कारण यहां सांस लेना भी दूभर हो जाता है। समस्या से छुटकारा पाना सरल नहीं है। प्रदूषण को कम करने के लिए सरकार, न्यायालय, स्वायत्त संस्थाएं और पर्यावरण चिन्तक आगे आए हैं लेकिन इसके लिए आम ​जनता के रचनात्मक सहयोग की सबसे अधिक जरूरत है।

भारतीय संविधान में पर्यावरण का स्पष्ट उल्लेख वर्ष 1977 में किया गया था। उसी वर्ष 42वें संविधान संशोधन द्वारा केन्द्र और राज्य सरकारों के लिए पर्यावरण को संरक्षण तथा बढ़ावा देना आवश्यक कर दिया गया। राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में अनुच्छेद 48ए जोड़ा गया। इस अनुच्छेद के अनुसार सरकार पर्यावरण के संरक्षण एवं सुधार और देश में वनों तथा वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए प्रयास करेगी। सुप्रीम कोर्ट ने एम.सी. मेहता बनाम भारत सरकार आैर अन्य के मामले में जुलाई 1996 में औद्योगिक इकाइयों के प्रदूषण सम्बन्धी मामले पर फैसला सुनाया था। इस फैसले में कहा गया था कि प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों को बन्द कर दिया जाए, हानिकारक उद्योगों को दिल्ली में परमिट नहीं दिया जाए और ऐसे उद्योगों को तीन वर्षों के भीतर अन्यत्र स्थापित किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने 1998 में फैसला दिया था कि 15 वर्ष से अधिक पुराने व्यावसायिक वाहनों को ​दिल्ली की सड़कों पर चलने पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। कदम उठाए भी गए लेकिन दिल्ली में निजी वाहन बढ़ते ही गए। यदि अब भी समय रहते कुछ नहीं किया तो भावी पीढ़ी को सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा भी नहीं मिलेगी। यदि पहले कदम उठा लिए जाते तो राजधानी प्रदूषण के खतरनाक पड़ाव तक कभी नहीं पहुंचती। स्टेटस के लिए व्यक्तिगत वाहनों के उपयोग की मानसिकता बढ़ती जा रही है। यदि वाहनों से होने वाले प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए तात्कालिक आैर दीर्घकालीन दोनों ही स्तरों पर इच्छा शक्ति के साथ काम किया जाता तो समस्या काफी हद तक सुलझ जाती।

दिल्ली की सीमाओं पर यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि प्रदूषण फैलाने वाले वाहन राज्य की सीमाओं में प्रवेश न करने पाएं। दिल्ली, एनसीआर की जहरीली होती आबोहवा के बीच दिल्ली में पंजीकृत वाहनों की संख्या पिछले वर्ष तक एक करोड़ 5 लाख से अधिक हो चुकी थी। कारों की संख्या 32 लाख से ऊपर और मोटर साइकिल और स्कूटरों की संख्या लगभग 67 लाख थी। इसके अलावा मालवाहक वाहनों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है। 26 नवम्बर 2014 को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने 15 साल से ज्यादा पुरानी निजी कारों, बाइक, व्यावसायिक वाहनों, बसों और ट्रकों के परिचालन पर पाबंदी लगाई थी। लोग अपने पुराने वाहन छोड़ने को तैयार नहीं। दिल्ली में लाखों वाहन तो अनिवार्य प्रदूषण नियंत्रण के बिना ही चल रहे हैं। जब सख्ती की जाती है तो लोग अपने वाहनों के प्रदूषण की जांच करा लेते हैं। बाद में साल-साल भर कोई जांच नहीं कराते। अब दिल्ली सरकार ने एक मसौदा तैयार किया है जिसके अनुसार राजधानी में 15 साल से ज्यादा पुराने सभी वाहन जब्त कर कबाड़ व्यापारियों के पास भेज दिए जाएंगे, जहां उन्हें तोड़कर नष्ट किया जाएगा। इसका मकसद राजधानी को वाहन जीवन समाप्ति नीति से युक्त पहला भारतीय शहर बनाना है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में 15 वर्षों से ज्यादा पुराने करीब 37 लाख वाहन हैं। पिछले चार वर्षों में यातायात पुलिस और परिवहन विभाग ने एनजीटी के आदेेश के बावजूद पुराने वाहनों को जब्त करने में लाचारी जताई थी।

विदेशों में तो पुराने वाहनों को नष्ट करने के लिए ग्रेवयार्ड बने हुए हैं। लोग अपने पुराने वाहन नष्ट करने के लिए खुद वहां जाते हैं लेकिन भारतीय जुगाड़ लगा-लगाकर वाहन चलाते रहते हैं। न तो दिल्ली में वाहनों की पार्किंग के लिए जगह है और न ही इन्हें नष्ट करने के लिए उचित तंत्र। वर्तमान में ऐसा कोई नियम भी नहीं है जो पुलिस या सरकार को निर्देशित करे कि जब्त किए गए वाहनों का क्या किया जाए। नए मसौदे के मुताबिक नियमों के अनुसार मालिक अपने पुराने वाहन एक निश्चित राशि के बदले कबाड़ व्यापारियों को दे सकते हैं। वाहनों को तोड़े जाने से पर्यावरण पर असर न पड़े, इसका ध्यान रखा जाएगा। इस समय सड़कों पर निजी वाहनों की संख्या घटाने, सड़कों का उचित रखरखाव करने, ट्रैफिक समस्या से मुक्ति पाने और सार्वजनिक सेवाओं को मजबूत बनाने की जरूरत है। यदि दिल्ली सरकार वाहनों के प्रदूषण को कम करने में सफल होती है तो राजधानी की हवा की गुणवत्ता में सुधार हो सकता है। जनता को स्वयं सहयोग देने के लिए आगे आना होगा।

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