दिल्ली का राजनैतिक खेला

दिल्ली का राजनैतिक खेला
Published on

देश की राजधानी दिल्ली में जो भी राजनैतिक घटनाक्रम घट रहा है उसकी गूंज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रही है। पहले जर्मनी और अब अमेरिका ने दिल्ली के मुख्यमन्त्री श्री अरविन्द केजरीवाल की प्रवर्तन निदेशालय द्वारा की गई गिरफ्तारी पर चिन्ता जताई है और उनके साथ पूरा न्याय किये जाने की अपेक्षा की है। इसे भारत की सरकार ने अपने आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप माना है और दोनों देशों के बयानों पर कड़ी आपत्ति प्रकट की है। मूल प्रश्न यह है कि भारत संविधान से चलने वाला देश है जिसमें कानून का शासन होता है। यदि इस अवधारणा में लेशमात्र भी शक पैदा होता है तो यह भारत के लोकतन्त्र की प्रतिष्ठा पर आघात करता है। सबसे दीगर हकीकत यह है कि भारत का चुनाव आयोग दुनिया के किसी भी देश के चुनाव आयोग के मुकाबले सबसे शक्तिशाली चुनाव आयोग है। विश्व के सभी लोकतान्त्रिक देशों में केवल भारत का चुनाव आयोग ही ऐसा चुनाव आयोग है जिसके पास केन्द्र में चुनावों की घोषणा होने के साथ ही समूची प्रशासन प्रणाली आ जाती है, बेशक केन्द्र में राजनैतिक दल की सरकार होती है मगर चुनाव आयोग पूरी शासन प्रणाली का संरक्षक हो जाता है।
स्वतन्त्र न्यायपालिका भी चुनाव घोषित हो जाने पर चुनावी मसलों से अपना हाथ खींच लेती है। इसकी वजह यही है कि हमारे पुरखे जिस चुनाव आयोग की संरचना को हमें सौंप कर गये हैं उसे संविधान से शक्ति लेकर ही अपना काम करने की व्यवस्था करके गये हैं। अतः जाहिर है कि आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद देश में जो भी प्रशासनिक स्तर पर कार्रवाई होती है उसकी जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर ही आती है। अतः श्री केजरीवाल की गिरफ्तारी प्रवर्तन निदेशालय द्वारा किये जाने के बाद जिस संवैधानिक संकट के खड़े हो जाने की आशंका व्यक्त की जा रही है उसका संज्ञान चुनाव आयोग को लेना चाहिए। स्वतन्त्र भारत में ऐसा पहला अवसर है जब किसी चुने हुए मुख्यमन्त्री को किसी जांच एजेंसी ने अपनी हिरासत में ले रखा है और उसने अपने पद से स्तीफा देना उचित नहीं समझा है। इसकी वजह यह बताई जा रही है कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि कोई चुना हुआ मुख्यमन्त्री हिरासत में रहते हुए अपना संवैधानिक दायित्व नहीं निभा सकता। यदि हम इस स्थिति का वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो श्री केजरीवाल की पहली जिम्मेदारी दिल्ली के लोगों के प्रति है क्योंकि वह उनके द्वारा ही चुने गये हैं।
दूसरी तरफ जांच एजेंसी ने उन्हें कथित अवैधानिक कार्य किये जाने के आरोप में गिरफ्तार किया है। असल दुविधा का मुद्दा यही है। मगर इस मुद्दे पर जमकर राजनीति हो रही है जबकि यह मुद्दा राजनैतिक न होकर कानूनी है। कानूनी पेंच यह है कि दिल्ली में जिस कथित शराब घोटाले को लेकर श्री केजरीवाल को गिरफ्तार किया गया है उसका सम्बन्ध उनकी सरकार द्वारा लागू की गई शराब नीति से है। इस शराब नीति के तहत दिल्ली में मदिरा पीने और खरीदने और बेचने के नियमों में परिवर्तन किया गया। मगर यह भी सत्य है कि किसी भी बारे में नीति बनाने का अधिकार राज्य या केन्द्र सरकार को होता है। आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद जो भी आर्थिक नीतियां बनी उन सभी में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ाया गया और इस हद तक बढ़ाया गया कि सरकार केवल पर्यवेक्षक की भूमिका में आ जाये। क्योंकि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का यह मूल सिद्धान्त होता है कि सरकारों का काम कारोबार करना नहीं होता। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय पहले ही यह फैसला दे चुका है कि सरकार द्वारा बनाई गई नीति को चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि यह उसका अधिकार होता है। मगर असली सवाल इसके क्रियान्वयन में हुए भ्रष्टाचार का होता है। केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का केजरीवाल सरकार पर यही आरोप है कि शराब नीति के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार हुआ।
प्रवर्तन निदेशालय इसी के तारों को ढूंढ रहा है और धन शोधन कानून (पीएमएलए) के तहत कार्रवाई कर रहा है। इस कानून में उसके पास असीमित अधिकार है क्योंकि यह कानून मुख्य रूप से आतंकवादी गतिविधियों के वित्तीय पोषण को रोकने के लिए संसद द्वारा बनाया गया था। इस कानून की सम्पूर्ण वैधता का मामला भी सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। मगर आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू हो जाने के बाद सभी राजनैतिक दलों को एक समान परिस्थितियां सुलभ कराने की जिम्मेदारी से चुनाव आयोग बंधा हुआ होता है परन्तु जब जांच एजेंसी किसी मामले को लेकर न्यायपालिका में जाती है तो यह मामला न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में चला जाता है जिसमें मुकदमे के विभिन्न कानूनी पहलुओं को देखकर ही कोई फैसला किया जाता है। अतः हिरासत में रह कर सरकार चलाना पूरी तरह राजनैतिक नैतिकता का मामला है क्योंकि केजरीवाल पर केवल आरोप लगे हैं न कि वह कानून की नजर में अपराधी घोषित कर दिये गये हैं।
स्वतन्त्र भारत में ऐसे भी उदाहरण हैं जब किसी मुख्यमन्त्री के खिलाफ आरोप पत्र (चार्जशीट) दायर होने पर उसने पद से इस्तीफा दिया और ऐसे भी उदाहरण हैं जब किसी मन्त्री ने आरोप पत्र दाखिल होने के बावजूद अपना पद नहीं छोड़ा। हाल ही में झारखंड के मुख्यन्त्री श्री हेमन्त सोरेन ने हिरासत में जाने से पहले इस्तीफा दिया और उनसे पहले बिहार के मुख्यमन्त्री पद पर रहते हुए श्री लालू प्रसाद यादव ने भी ऐसा किया था और तमिलनाडु की मुख्यमन्त्री सुश्री जयललिता ने भी इस्तीफा दिया था परन्तु स्व. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में शामिल तीन मन्त्रियों सर्वश्री लालकृष्ण अडवानी, मुरली मनोहर जोशी व सुश्री उमा भारती ने बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में अदालत में चार्जशीट दायर होने के बावजूद अपना पद नहीं छोड़ा था।

Related Stories

No stories found.
logo
Punjab Kesari
www.punjabkesari.com