किसी भी देश में लोकतंत्र की असली पहचान यह होती है कि उसमें प्रेस (मीडिया) की स्थिति क्या है और वहां के राजनीतिक समाज में उसका कितना सम्मान है? जिस देश में मीडिया सरकार की आलोचना करने या सरकार की नीतियों की परख करने से डरने लगता है या उसे सत्ता का भय सताने लगता है तो उस देश में लोकतंत्र सुरक्षित नहीं रह सकता। स्वस्थ लोकतंत्र स्वतन्त्र प्रेस के बेलाग और बेलौस व निरपेक्ष आलोचना के साये में ही पनपता है और सत्ता को लोकोन्मुखी बनाये रखता है। प्रेस को लोकतंत्र में केवल वही सत्ता डराकर रखना चाहती है जिसे अपने कार्यों की पवित्रता और सत्यता पर भरोसा न हो। ये विचार कांग्रेस पार्टी के यशस्वी अध्यक्ष रहे स्व. कामराज नाडार ने तब व्यक्त किए थे जब वह तमिलनाडु राज्य के मुख्यमन्त्री थे।
अपने राज्य में उनका असली मुकाबला स्वतंत्र पार्टी के संस्थापक स्व. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से था और चक्रवर्ती अपने समय के माने हुए शिक्षाविद् से लेकर प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल रह चुके थे और सुयोग्य प्रशासक थे जबकि कामराज छठा दर्जा पास भी नहीं थे और अत्यन्त गरीबी के माहौल में बचपन में एक कपड़े की दुकान में नौकरी करते हुए युवा हुए थे और युवा होने पर वह आजादी की लड़ाई में शामिल होकर कांग्रेस के नेता बने थे। उन्होंने 1952 से 1956 तक तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे राजगोपालाचारी की शिक्षा नीति को जड़ से बदल डाला था और हाई स्कूल तक की शिक्षा पूरे राज्य में सभी बालकों के लिए एक समान व एक स्तर की प्रदान करने की प्रणाली लागू की थी। इसके साथ ही मिड-डे-मील की प्रथा भी उन्होंने ही प्रारम्भ की थी। उनकी इस नीति की चौतरफा बुरी तरह आलोचना हुई थी और राजाजी द्वारा स्थापित अंग्रेजी अखबार च्दि हिन्दूज् ने ही जबर्दस्त आक्रामक रवैया अपनाया था।
स्व. कामराज ने तब इसी संदर्भ में पूछे गए एक सवाल का जवाब वह दिया था जिसे मैंने शुरूआत में ही लिखा है। आशय सिर्फ इतना है कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें जमाने के लिए इस देश के नेताओं ने कदम-कदम पर अग्निपरीक्षा का सामना किया है मगर कभी भी प्रेस को धमकाने या डराने की जुर्रत नहीं की है मगर आजकल कुछ अपने विचारों को ही अंतिम सत्य मानने वाले सिरफिरे लोगों ने निर्भीक पत्रकारों की हत्या करने और धमकाने की जो मुहिम चलाई हुई है उसमें भारत के लोकतंत्र को एकपक्षीय बनाने का सपना पल रहा है मगर यह शेख चिल्ली का ख्वाब ही साबित होगा क्योंकि भारत की जनता की रगों में और इसकी महान संस्कृति में बहुविचारवाद की घुट्टी मिली हुई है जिसे हमारे ऋषि-मुनियों ने ही तैयार किया था। इसी घुट्टी को पी-पी कर भारत की नई सन्ततियों ने एक सदी से दूसरी सदी में प्रवेश किया है मगर इलैक्ट्रोनिक मीडिया क्रान्ति के बाद देश में प्रेस या मीडिया की स्थिति में अन्तर आया है और यह समझा जाने लगा है कि टीवी चैनलों पर रात-दिन एक पक्ष का गुणगान करने से आम जनता की मानसिक स्थिति को बदला जा सकता है और उसे प्रभावित किया जा सकता है।
एेसे लोग भी अपने बनाये हुए संसार में रहते हैं। वे सोचते हैं कि प्रचार च्वचारज् की जननी है। यदि ऐसा होता तो २००४ में वाजपेयी सरकार की करारी पराजय न होती क्योंकि तब तो भाजपा और उसके सहयोगी दल च्फील गुड और इंडिया शाइनिंगज् की रोशनी से टीवी चैनलों के माध्यम से ही आम जनता को भरमा रहे थे मगर तब भी जमीनी राजनीति से जुड़े श्री वाजपेयी ने एक टीवी चैनल पर ही स्वीकार किया था कि च्तस्वीर वैसी नहीं लगती जैसी दिखाई या बताई जा रही हैज् परन्तु मुझे हिन्दी टीवी चैनलों को देखकर आश्चर्य हो रहा है कि इन्होंने भारत की स्वतन्त्र प्रेस को अपने एकपक्षीय विचारों से थुपे रखने की नीति का अनुसरण करना क्यों शुरू कर दिया है? किसका भय सता रहा है। यह लोकतन्त्र का पहला सिद्धान्त है कि जो राजनीतिज्ञ प्रेस को अपने से दूर रखना चाहता है उसे अन्नतः जनता ही अपने से दूर कर देती है।
इसका प्रत्यक्ष उदाहरण बहुजन समाज पार्टी की नेता सुश्री मायावती हैं जिन्होंने प्रेस कांफ्रैंस का अर्थ इकतरफा संवाद समझ लिया था क्योंकि उनका वोट बैंक पक्का था? इतना ही नहीं इमरजैंसी लगाकर इंदिरा जी ने पूरी प्रेस को अपने कब्जे में लेकर पूरे देश में अपनी नीतियों की वाहवाही का माहौल इस कदर बना दिया था कि हर हफ्ते उनके बीस सूत्री कार्यक्रम के किसी न किसी सूत्र पर सम्पादकीय लिखे जाने लगे थे मगर प्रेस के इस इकतरफा रवैये को देश की जनता ने समझने में गलती नहीं की थी। हमारे यशस्वी पुरखों ने जिस लोकतन्त्र की नींव इस देश में डाली है उसमें प्रधानमन्त्री से लेकर किसी भी राज्य के मन्त्री तक के कारनामों को सीधे जनता की निगाह में लाने की व्यवस्था प्रेस के माध्यम से की गई है क्योंकि जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि के सत्ताधीश बनने पर उसकी निजता तक सार्वजनिक सर्वेक्षण के दायरे में आ जाती है।
यही वजह थी कि लोकतन्त्र में स्वतन्त्र प्रेस को अहम हिस्सेदार मानते हुए हमारे पुरखों ने किसी मन्त्री से लेकर प्रधानमन्त्री तक की विदेश यात्रा तक में प्रेस की साझेदारी सुनिश्चित की। राष्ट्रहित का कोई भी कार्य गोपनीयता में किस प्रकार किया जा सकता है? राष्ट्रहित व राष्ट्रीय सुरक्षा दो अलग विषय हैं। इन्हें मिलाया नहीं जा सकता। प्रैस का कर्तव्य बनता है कि वह दोनों मुद्दों को अलग-अलग रखकर समालोचना करे और सरकार को खुद समझने का माहौल पैदा करे कि उससे गलती कहां और किस स्तर पर हो रही है मगर इसके लिए बहुत जरूरी शर्त यह भी है कि मीडिया की विश्वसनीयता सन्देह से परे हो क्योंकि केवल विश्वसनीयता ही मीडिया की च्मुद्राज् होती है। बेशक आज का संकट खुद मीडिया का अपना बनाया हुआ है क्योंकि उसने अपनी स्थिति निर्भीक समीक्षक के स्थान पर च्चीयर लीडरज् की बना ली है। यही वजह है कि कुछ सिरफिरे लोग मीडिया को च्कीर्तनी जत्थाज् समझने की गफलत में पड़ गए हैं।