रैदास से गांधी तक का लोकतन्त्र

रैदास से गांधी तक का लोकतन्त्र
Published on

लोकतन्त्र का मूल आजादी होती है। यह आजादी उन लोकतान्त्रिक अधिकारों की होती है जो संविधान में साधारण नागरिकों को मिले होते हैं। यह बेवजह नहीं था कि 1975 तक दिल्ली और लखनऊ से निकलने वाले अखबार 'नेशनल हेराल्ड' का आमुख उवाच होता था कि आजादी खतरे में है, पूरी ताकत से इसकी रक्षा करो (फ्रीडम इज इन पेरिल डिफेंड इट विद आल योर माइट) यह अखबार कांग्रेस पार्टी का माना जाता था जिसकी स्थापना स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान हुई थी। उस समय तक कमोबेश पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का ही राज था। इसके बावजूद इसके समाचार पत्र का यह आख्यान पूरे देश में पढ़ा जाता था। इसकी वजह यही थी कि लोकतन्त्र में मतदाता या नागरिक को सर्वदा सजग और सुविज्ञ रहना चाहिए जिससे वह अपने द्वारा चुनी हुई सरकार को हमेशा अपने प्रति जवाबदेह बनाये रख सके। मगर जब जून 1975 में इमरजेंसी लगाई गई तो अखबार का यह आख्यान हटा दिया गया। इमरजेंसी में सबसे महत्वपूर्ण यह हुआ था कि नागरिकों के मूल अधिकार निरस्त कर दिये गये थे और न्यायपालिका को मूक दर्शक बना दिया गया था। इस दृष्टान्त को याद दिलाने का मेरा आशय इतना सा है कि लोकतन्त्र में मतदाता या नागरिक ही हमेशा देश की स्वतन्त्रता की रक्षा करते हैं। उनकी मजबूती से ही देश मजबूत बनता है।
नागरिकों का सबसे बड़ा संवैधानिक अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार होता है। भारत में यह अधिकार आजादी के बाद से ही बहुत पवित्र अधिकार रहा है। इस अधिकार के चलते ही मीडिया स्वतन्त्र व निरपेक्ष रहते हुए राजनैतिक गतिविधियों की बेबाक मीमांसा करता है। यही वजह थी कि समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने मीडिया को लोकतन्त्र का चौथा खम्भा बताया जबकि वास्तव में बाबा साहेब अम्बेडकर जो चौखम्भा राज भारत को देकर 1956 में अलविदा कह गये थे उनमें न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका व चुनाव आयोग थे। डा. लोहिया की इस नई क्रमिका को समाज में इसीलिए स्वीकृति मिल गई क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मूल अधिकार था। इसी अधिकार से मीडिया का जन्म होता है औऱ वह जनता की आवाज बन सकता है। इसीलिए पत्रकार की जिम्मेदारी या जवाबदेही नेता से बढ़ कर जनता के प्रति या जनहित में बताई जाती है मगर बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में पत्रकार की जिम्मेदारी या जवाबदेही अब मालिकों के प्रति होती जा रही है जिससे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ भी बदलता जा रहा है। मगर जो नहीं बदला है वह इस देश के साधारण नागरिक का मिजाज नहीं बदला है। लोकतन्त्र उसे घुट्टी में पिला कर इस देश के साधू-संन्यासी गये हैं। इस देश में रैदास भी हुए और तुलसीदास भी हुए और बाद में महात्मा गाधी भी हुए।
भारत में सुल्तानी व मुगल शासन काल के दौरान भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता इस देश के लोगों का प्रमुख औजार बना हुआ था। भक्तिकाल के जिन कवियों का जिक्र है उनमें सन्त रैदास का नाम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उसके बाद कबीरदास आते हैं और तुलसीदास आते हैं। सन्त रैदास भक्तिकाल के सच्चे समाजवादी चिन्तक हुए जिन्होंने सामाजिक न्याय की पहली अलख जगाई अाैर 'बे-गमपुरा' जैसी सामाजिक व्यवस्था की परिकल्पना की जिसमें राजा से लेकर रंक तक को भारत देश में बराबर का भागीदार बताया। उनकी समाजवादी सोच को बाद में कुछ चमत्कारिक घटनाओं से ढकने की कोशिश की गई मगर मूल रूप से उस समय उनका बे-गमपुरा दर्शन एक क्रान्तिकारी दर्शन था। बाद में कबीर ने भी यही राह पकड़ी और उनके बाद पंजाब में गुरु नानक देव जी महाराज भी इसी धारा के समाज सुधारक व पाखंड निवारक महामानव हुए। सबसे बाद में महात्मा गांधी हुए जिन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को अस्त्र बना कर ब्रिटिश साम्राज्यावाद को भारत से उखाड़ फेंका।
आजकल भारत में लोकसभा के चुनाव हो रहे हैं। चुनावों को हम लोकतन्त्र का महोत्सव कहते हैं। वास्तव में यह उत्सव और कुछ नहीं बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का ही सबसे बड़ा जश्न है। इसमें नागरिकों को जो एक वोट देने का अधिकार मिलता है वह अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का ही सबसे बड़ा औजार है। रैदास, कबीर, और गुरु नानक देव जी महाराज ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का मर्म आध्यात्मिक तरीके से बताया और गांधी ने उसे हकीकत में हथियार बना कर हमारे हाथ में सौंपा। गांधी की परिकल्पना पर ही भारत का पूरा संविधान लिखा गया जिसे उनके ही आग्रह पर समाज के सबसे कमजोर तबके के सबसे ज्यादा पढे़-लिखे और विद्वान व्यक्ति अम्बेडकर से लिखवाया गया। अम्बेडकर संविधान लिख कर इस देश के लोगों को राजनैतिक आजादी देकर चले गये जिसमें मोची का काम करने वाले के एक वोट की कीमत देश के सबसे बड़े उद्योगपति के वोट की कीमत के बराबर हो गई। यह क्रान्ति गांधी ने छह सौ साल बाद की क्योंकि 13वीं सदी में रैदास हुए थे।
अतः गांधी के समय में जो अखबार नेशनल हेराल्ड कांग्रेस ने शुरू किया था उसका आमुख उवाच आजादी की रक्षा करो क्यों था समझा जा सकता है। चुनावों का यह जश्न मतदाताओं का मेला होता है। विविध संस्कृति वाले देश भारत के लोग अपनी-अपनी स्वतन्त्रता के अनुसार एक वोट का इस्तेमाल करते हैं और मनपसन्द प्रत्याशी को वोट डालते हैं। चुनाव में हर पार्टी इस मतदाता को रिझाने का प्रयास करती है मगर वह अपनी मुट्ठी बांध कर मतदान केन्द्र तक जाता है और मुट्ठी बांधे वापस आ जाता है। उसका वोट किसे गया है यह सिर्फ उसे ही पता होता है। वह वोट उसे ही देता है जो उसकी अभिव्यक्ति के करीब होता है।
अतः चुनाव स्वतन्त्रता का भी सबसे बड़ा जश्न होते हैं। यह स्वतन्त्रता व्यक्तिगत होती है जिसकी गारंटी संविधान देता है। इसलिए लोकतन्त्र में मतदाता स्वयं भी बादशाह कहलाता है। यह बादशाहत महात्मा गांधी उसे देकर गये हैं। इसी बादशाहत ने तो 1977 में कांग्रेस का राज पलट दिया था मगर 1980 में फिर वापस ला दिया था। इसीलिए लोकतन्त्र को गतिशील तथा जीवन्त कहा जाता है क्योंकि मतदाता सर्वदा गतिशील रहता है और जीवन्त होता है। मतदाता ही लोकतन्त्र को चलाता है । राजनीतिक दल सिर्प इसके पहिये होते हैं। यही वजह है कि चुनावों में हम मतदाता को शान्त देखते हैं और राजनैतिक दलों को वाचाल पाते हैं। मगर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तो राजनैतिक दलों की भी होती है और वे अपने हिसाब से अपने-अपने घोषणापत्र जारी करते हैं। इनका मूल भी नागरिकों की आजादी ही होता है। आजाद नागरिक ही बड़े से बड़े नेता को चुनाव में हरा सकते हैं और अदना सा दिखने वाले प्रत्याशी को लाखों वोटों से जिता सकते हैं। ऐसा कई बार पिछले चुनावों में हम देख चुके हैं। 13वीं सदी जो रैदास बे-गमपुरा दर्शन में लिख कर गये उसे ही आज के राजनैतिक दल अपने- अपने विचारों में भिगो कर परोसने की कोशिश करते हैं क्योंकि कोई भी राजनैतिक दल नागरिकों को कमतर दिखाने की जुर्रत नहीं कर सकता। यह वह शक्ति है जो भारत के लोकतन्त्र को सर्वदा चलायमान रखती है। गांधी ने इसे पकड़ कर ही भारत के आम आदमी को बादशाहत दी।

Related Stories

No stories found.
logo
Punjab Kesari
www.punjabkesari.com