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लोकतंत्र, लोकलज्जा और गोरखपुर

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पिछले सत्तर वर्षों में हमने जितना भौतिक विकास किया है वह हमारी उस व्यवस्था की देन है जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं। किसी भी देश में लोकतंत्र के भीतर तभी विकास होता है जब वहां के आम लोग सजग होकर सत्ता की पहरेदारी करते हैं। बेशक यह कार्य राजनीतिक दलों की चौकसी के तहत किया जाता है। संसदीय प्रणाली में यह कार्य विपक्षी दल करते हैं और सरकार के हर काम पर पैनी निगाह रखते हुए उसे भटकने से रोकते हैं। उनका काम केवल विरोध करना नहीं होता बल्कि जनहित के लिए विरोध की आवाज उठाना होता है। इस आवाज को जब अपार जन-समर्थन मिलता है तो वह सत्तारूढ़ दल की सरकार को रास्ता बदलने के लिए मजबूर कर देता है। गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में बच्चों की मृत्यु को लेकर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार जिस तरह से लीपा-पोती कर रही है उससे यही संदेश जा रहा है कि अस्पताल में ऑक्सीजन सप्लाई की कमी को लेकर पूरा प्रशासन तंत्र सोया हुआ था और उसकी वरीयता उन लोगों की सेवा करने की नहीं थी जिन्होंने उसे चुन कर लखनऊ की गद्दी सौंपी है। इसकी असली वजह यह है कि आज की नई राजनीतिक पीढ़ी का संबंध लोकतंत्र के उन मूल मानकों से पूरी तरह कट चुका है जिनके ऊपर पूरी व्यवस्था खड़ी हुई है।

पहली नजर में गोरखपुर कांड की जिम्मेदारी राज्य के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह पर जाती है मगर वह जिद पर अड़े हुए हैं कि ऑक्सीजन सप्लाई में कहीं कोई दिक्कत आई ही नहीं। जब तरल ऑक्सीजन खत्म हो गई तो सिलेंडरों से मरीजों को ऑक्सीजन सप्लाई करने की प्रणाली चालू हो गई। पत्रकारों की नजर धोखा खा रही है कि जो वे ऑक्सीजन सप्लाई का मुद्दा उठा रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि अस्पताल के रिकार्ड ही चीख-चीख कर बता रहे हैं कि विगत 30 जुलाई के बाद से ही ऑक्सीजन की सप्लाई गड़बड़ाने लगी थी। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि खुद श्री सिंह पिछले अगस्त महीनों के आंकड़े देकर लोगों को समझा रहे हैं कि इस दौरान अस्पताल में मौतों का सिलसिला तेजी से जारी रहता है। जापानी बुखार का प्रकोप रहता है। अगर ऐसा था तो फिर तो अस्पताल को अगस्त महीने के पहले से ही पूरे जोर-शोर से तैयारी करनी चाहिए थी लेकिन भारत के गांवों में यह कहावत प्रचलित है कि एक झूठ को छुपाने के लिए सौ झूठ और बोलने पड़ते हैं। उत्तर प्रदेश की सरकार आज ठीक यही काम कर रही है। मगर मुझे आश्चर्य इस बात पर होता है कि सिद्धार्थ नाथ सिंह उन स्व. लाल बहादुर शास्त्री के धेवते हैं जिन्होंने एक रेल दुर्घटना होने पर केन्द्रीय रेल मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।

रेलमंत्री स्वयं रेल नहीं चलाता है बल्कि उसकी निगेहबानी में पूरा रेलवे विभाग कार्य करता है। मगर सिंह कह रहे हैं कि उनकी जिम्मेदारी मैडिकल कालेजों व उच्च चिकित्सा शिक्षण संस्थानों की नहीं है। इसके लिए कोई दूसरा राज्यमंत्री टंडन है। अत: उनकी जिम्मेदारी कहां बनती है? यह बेहयायी का ऐसा नमूना है जिसका नतीजा लोकतंत्र में पूरी सरकार को भुगतना पड़ता है और सत्तारूढ़ दल की विश्वसनीयता से इसका सीधा सम्बंध होता है। इसी वजह से लोकतंत्र की जड़ें जमाने वाले हमारे नेताओं ने कहा कि लोकतंत्र केवल लोकलज्जा से चलता है। इसका समर्थन पूर्व जनसंघ से लेकर कम्युनिस्टों और समाजवादियों तक ने किया और कांग्रेसियों ने सत्ता में रहते हुए इस पर अमल किया। यह बेवजह नहीं था कि 1957 मे पं नेहरू ने अपने दामाद फिरोज गांधी द्वारा उनके वित्त मंत्री टी.टी.के. कृष्णमंचारी की नीयत पर अंगुली उठाये जाने पर उन्हें मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया था और वह भी इस आधार पर कि उनके निजी सचिव ने तब के एक उद्योगपति हरिदास मूंदड़ा को जीवन बीमा निगम से सवा करोड़ रुपए का ऋण दिलाने के लिए उनकी एक कम्पनी के शेयरों को अधिक मूल्य पर रहन रख कर कर्जा दिए जाने की पैरवी की थी।

गोरखपुर अस्पताल के ममले में तो साफ दिखाई पड़ रहा है कि यहां भ्रष्टाचार की बहुत बड़ी थोक दुकान चल रही है। ऑक्सीजन सप्लाई के रूप मे उसकी एक झलक भर उभरी है। क्योंकि मनमोहन सरकार के दौरान 2013-14 में इसे 564 करोड़ रुपए दिए गए और उसके बाद मोदी सरकार ने भी इसे उदारता के साथ मदद दी। यह सारा धन इसीलिए दिया गया जिससे गोरखपुर और आसपास के क्षेत्र में जापानी बुखार (एनसेफलाइटिस) से मुकाबला किया जा सके और गरीबों के बच्चों को मरने से बचाया जा सके। ये सैकड़ों करोड़ रुपए किस खाते में डूब गए कि ऑक्सीजन गैस की अविरल सप्लाई तक के लिए भी अग्रिम तौर पर व्यवस्था नहीं की गई। पूरे प्रकरण से भारी भ्रष्टाचार की बू आ रही है। इसकी दुर्गंध को रोकने के लिए पुख्ता इंतजाम बांधे जाने की जरूरत है। राज्य सरकार का स्वास्थ्य विभाग ही धन की आपूर्ति विभिन्न सरकारी संस्थानों को कराता है। बच्चों की मृत्यु होना इसी भ्रष्टाचार से जुड़ा हुआ है। योगी सरकार का गठन इसीलिए हुआ है कि वह भ्रष्टाचार के तंत्र को उखाड़ कर सदाचार की व्यवस्था बिठाये न कि उसका ही हिस्सा बन कर गाड़ी खिंचती रहे।

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