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अदालतों में खिंचता लोकतंत्र

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आगामी लोकसभा चुनावों से पहले सियासत में जिस अफरा-तफरी का माहौल बन रहा है उसे देख कर यही कहा जा सकता है कि इस देश के लोगों के कन्धों पर ऐसी जिम्मेदारी आने वाली है जिससे सियासत को ही सही रास्ता दिखाई देने लगे और हकीकत भी यही है कि इस देश के मतदाता ने हर संजीदा मौके पर उस बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है कि राजनीति के बड़े-बड़े सूरमा दांतों तले अंगुली दबा कर नजारा देखते रह गए हैं लेकिन सबसे बड़ी खूबी इस मुल्क के अनपढ़ और मुफलिस समझे जाने वाले मतदाताओं की यह रही है कि वे किसी भी राजनीतिक दल के सपने को अपने चश्मे से देख कर ही फैसला लेते हैं।

यह चश्मा निश्चित रूप से उन्हें बड़ी आसानी से स्याह और सफेद में फर्क दिखा देता है। समाप्त हुए संसद के सत्र में जिस तरह आर्थिक आधार पर आरक्षण का संविधान संशोधन विधेयक पारित हुआ उसका नतीजा निकालने में भी लोगों ने देर नहीं की और हर चौराहे से यह आवाज आई कि अगर आठ लाख रुपए की सालाना आमदनी को आर्थिक कमजोरी की सीमा रेखा मान लिया गया तो सवर्णों की 90 प्रतिशत आबादी के साथ ही मुस्लिम, ईसाई, सिख व अन्य सम्प्रदायों के इस आय वर्ग के लोग इसके दायरे में आ जाएंगे। इस विधेयक को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी गई है।

जाहिर है कि इस दस प्रतिशत का फायदा सबसे ज्यादा उसे ही पहुंचेगा जो आठ लाख की सीमा के आसपास तक हैं क्योंकि यह वर्ग बहुत खींचतान करके अपने बच्चों को स्तरीय शिक्षा दिलाने में समर्थ हो पाता है। मगर इससे भी ऊपर सबसे बड़ा सवाल आजकल लोकतन्त्र में उठ रहा है? क्या संसद में पारित विधेयकों की तसदीक सर्वोच्च न्यायालय में इस हद तक होगी। हर कानून को संविधान की कसौटी पर तोला जाए? तीन तलाक अध्यादेश से लेकर नागरिकता संशोधन विधेयक और आर्थिक आधार पर संविधान संशोधन विधेयकों को लगातार सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती मिल जाने पर अवैध हो जाने की आवाज संसद के ही दोनों सदनों में सदस्य उठा रहे हैं। यह इसी तथ्य का प्रमाण कहा जाएगा कि संसद में बैठे सदस्य अपने कर्त्तव्य का निर्वाह इस प्रकार नहीं कर रहे हैं कि उनके काम को सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुरूप माने।

यह वास्तव में गंभीर स्थिति है, क्योंकि एक तरफ सर्वोच्च न्यायालय पर लगातार यह दबाव बनाया जा रहा है कि राम मन्दिर विवाद से संबं​धित अयोध्या के जमीनी मसले को जल्दी से जल्दी सुलझाए और दूसरी तरफ उसके सामने रोज ऐसे नए मसले लाए जा रहे हैं जिनका सीधा सम्बन्ध संसद की सूक्ष्म वि​धिपरक समझ से होता है। दुनिया के सभी लोकतन्त्रों में भारत संभवतः अकेला ऐसा देश होगा जहां कि सबसे बड़ी अदालत को कुछ लोग धमकियां तक देकर निर्देश दे रहे हैं कि अमुक मुकद्दमे का फैसला जल्दी करो। न्याय को कथित जनसमर्थन का डर दिखा कर हांकने की हिमाकत की जा रही है और उस पर तुर्रा यह मारा जा रहा है कि कुछ वकील मुकद्दमे को लम्बा खिंचवाने की कोशिश कर रहे हैं। यह सर्वोच्च न्यायालय की सीधी अवमानना है और इसमें बैठे न्यायमूर्तियों का अपमान है क्योंकि उन्हें लोगों की बातों से नहीं अपने सामने रखे गए सबूती दस्तावेजों से मतलब होता है।

बात यहीं तक हो तो गनीमत है मगर यहां तो सीबीआई के झगड़े से लेकर विधानसभा में सरकार बनाने के दावे पर राज्यपाल के रुख (जैसा कि कर्नाटक में हुआ था) तक पर सर्वोच्च न्यायालय को आगे आना पड़ रहा है। इसकी वजह केवल एक ही हो सकती है कि विधायिका स्वयं ही लोकतन्त्र की सुनिश्चित मर्यादाओं को तोड़ना चाहती है। मगर लोकतन्त्र मर्यादा और लोक-लज्जा से चलता है और इसका पैमाना हैरतंगेज तरीके से इसे चलाने वाले लोग तय करते हैं। जिस ब्रिटेन से हमने द्विसदनीय संसदीय प्रणाली ली है उसी में 2011 तक सर्वोच्च न्यायालय नहीं था और इसकी संसद का उच्च सदन ‘हाऊस आफ लार्ड्स’ ही पूर्ण न्याय देने की जिम्मेदारी उठाता था लेकिन हमारे पुरखों ने भी जो व्यवस्था हमें सौंपी थी उसमें राज्यसभा की भूमिका कमोबेश यही सोच कर तय की गई थी और इसमें हर क्षेत्र के मूर्धन्य व ज्ञानवान लोगों को लाने की छूट सभी राज्यों के लोकप्रिय राजनीतिक दलों को दी थी।

इसका कारण यही था कि हर पांच साल बाद चुनावी तरानों के जोश से गठित होने वाली लोकसभा में कोई भी राजनीतिक दल अपने बहुमत की अकड़ पर बेपरवाह अंदाज में ऐसे कानून न बना सके जो संविधान की तराजू पर खरे ही साबित न हो सकें परन्तु संसद के दोनों सदनों की बनावट कालान्तर में इस प्रकार बदलती गई कि लोकसभा जहां भजन मंडली में परिवर्तित होती गई वहीं राज्यसभा राजनीतिक प्रसाद मंडली में बदलती गई लेकिन इसके बावजूद इस उच्च सदन में आज भी ऐसे लोग मौजूद हैं जिनके लिए मुल्क की बेहतरी से बढ़ कर कोई अन्य प्रसाद नहीं हो सकता।

तस्वीर का यह पहलू इतना खूबसूरत है कि जब राज्यसभा में कपिल सिब्बल और अरुण जेतली भिड़ते हैं तो दिमाग के दरवाजे पर दरवाजे खुलते चले जाते हैं। लोकतन्त्र जब दिमाग से चलता है तो दिलों की आवाज उसमें खुद-ब-खुद सिमट जाती है क्योंकि यह राजनीतिज्ञों को वह ताकत देता है जिसके पीछे जनता की ताकत चलने लगती है मगर इसे संसद ही चलाती है न्यायालय नहीं। इसका उदाहरण हमने तब देखा था जब 1969-70 में स्व. इंदिरा गांधी द्वारा किए गए बैंकों के राष्ट्रीयकरण को सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था और इसी मुद्दे पर इन्दिरा जी ने लोकसभा को समय से पहले ही भंग करके जनता की अदालत का दरवाजा खटखटाया था और उन्हें प्रचंड बहुमत मिला था और उन्होंने बाद में संविधान संशोधन करके इसे लागू किया था।

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