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लोकलज्जा से चलेगा लोकतन्त्र

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लोकसभा के चुनावों की प्रक्रिया शुरू होने में अभी लगभग 58 दिन बचे हैं मगर सियासी सर्कस के करतबों की कलाकारी शुरू हो चुकी है। इन चुनावों से पहले जिस तरह कर्नाटक में सियायत एक बार फिर जिस तरह विधायकों की खरीद-फरोख्त का बाजार गर्म कर रही है उसे देखकर कहा जा सकता है कि आसार अच्छे नहीं हैं। इस राज्य में विपक्ष में बैठे भाजपा नेता बी.एस. येदियुरप्पा की तकलीफों का अंदाजा लगाया जा सकता है क्यों​कि पिछले साल हुए 224 सदस्यों की विधानसभा के चुनावों में उनकी पार्टी 104 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद राज्यपाल की असीम अनुकम्पा से सरकार गठित करने के बावजूद सत्ता पर चन्द दिनों ही काबिज रह सकी और हारकर राज्यपाल को कांग्रेस व जनता दल (सै.) गठबन्धन के नेता एच.डी. कुमारस्वामी को स्थायी सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना पड़ा और तब से यही सरकार चल रही है मगर येदियुरप्पा भारत के लोकतन्त्र के ऐसे तिलिस्माती नेता हैं जिन्होंने 2008 में मुख्यमन्त्री बनने के बाद भ्रष्टाचार के एेसे जादुई कारनामे किए थे कि किसी म्युनिसपलिटी का चेयरमैन भी गश खाकर गिर पड़े। खदान माफिया के लिए हुजूर ने अपनी सरकार तक को दांव पर लगा दिया था।

विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने के लिए वह नजारा पैदा कर दिया था कि तत्कालीन राज्यपाल को दुबारा बहुमत सिद्ध करने के लिए कहना पड़ा था। वही येदियुरप्पा अब सीना ठोक कर कह रहे हैं कि कांग्रेस के दस से ज्यादा विधायक उनकी पार्टी के साथ पाला बदलना चाहते हैं। दरअसल पिछले साल भी दो-तीन दिन के लिए मुख्यमन्त्री बने थे मगर सर्वोच्च न्यायालय के बीच में आ जाने से हुजूर की दाल गलते-गलते रह गई। हमने अरुणाचल प्रदेश में भी देखा है कि किस प्रकार लोकतन्त्र एक पांच सितारा होटल की ‘बार’ में खुलकर नाचा था। उस वक्त भी संविधान के राज्य में संरक्षक कहे जाने वाले राज्यपाल ने विधानसभा अध्यक्ष के अख्तियारों को ही बरतरफ करते हुए उपाध्यक्ष की मार्फत बहुमत के बेइमान फैसले को अपना आशीर्वाद दिया था। सभी मामलों में दलबदल कानून को इस तरह नाकारा बनाया गया जिस तरह कोई बाजीगर अपने थैले में पड़े कबूतर को बिल्ली बना देता है मगर कर्नाटक में इसके साथ दूसरा कमाल भी हो रहा है।

भाजपा खुद भी आरोप लगा रही है कि उसके विधायकों को भी तोड़ने की कोशिशें हो रही हैं लेकिन यह सब क्यों हो रहा है? इसकी वजह सिर्फ यही है कि आज की राजनीति में सिद्धांतों से ऊपर स्वार्थों ने जगह ले ली है जिसके कारण सत्ता और विपक्ष दोनों ही पालों में घबराहट है लेकिन अगर हम राष्ट्रीय धरातल पर देखें तो मोदी सरकार में शामिल माननीय राम विलास पासवान फरमा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में बना सपा-बसपा गठबंधन एनडीए के लिए गंभीर चुनौती है। इसका मतलब क्या निकलता है? दरअसल वह ऐसा कहकर भविष्य में होने वाली सौदेबाजी की राजनीति की ही वकालत कर रहे हैं क्यों​कि गठबन्धन की राजनीति के चतुर खिलाड़ी पासवान जानते हैं कि यदि उत्तर प्रदेश में मुकाबला कहीं भाजपा व कांग्रेस के बीच हो गया तो भाजपा के साथ सत्ता में बने रहने का उनका सपना टूट जाएगा। इसलिए चुनावों के मुकाबले से ही घोषित कर दो कि मुकाबला उन्हीं पार्टियों के साथ हो जिनसे जरूरत पड़ने पर पर्दे के पीछे से सौदेबाजी की जा सके क्यों​िक कांग्रेस तो मरते दम तक भाजपा का विरोध छोड़ेगी नहीं।

इसलिए हमें लोकसभा चुनावों के लिए बिछ रही चौसर की एक-एक गोटी पर पैनी निगाह रखनी होगी क्योंकि सियासत में जरूरी नहीं होता कि राजा को राजा ही पीटे। कामयाब राजनीति वही होती है जिसमें प्यादे से राजा को पिटवा दिया जाता है लेकिन ऐसा सिर्फ माहौल को बदल कर ही किया जा सकता है और कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है वह माहौल को बदलने के लिए ही हो रहा है। इसका प्रमाण हमें भारत के स्वतन्त्र होने के बाद से ही मिलने लगा था। 1952 के पहले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के बाद लोकसभा में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी थी अर्थात कांग्रेस के बाद भारत में उस समय सर्वाधिक पैठ कम्युनिस्ट विचारधारा की ही थी परन्तु कालान्तर में इसका स्थान जनसंघ या भाजपा लेती चली गई। पहली लोकसभा में भारतीय जनसंघ और स्वामी करपात्री जी महाराज की राम राज्य परिषद पार्टी के तीन-तीन सांसद ही चुन कर आए थे। जनसंघ के एक सांसद इस पार्टी के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी खुद थे जिन्होंने अपनी पार्टी का गठन दिसम्बर 1950 में पं. नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री लियाकत अली खां के बीच हुए समझौते के विरोध में नेहरू सरकार में उद्योगमन्त्री पद से इस्तीफा देकर किया था।

मगर उन्हीं डा. मुखर्जी ने अपने जनसंघ के घोषणापत्र में लिखा कि भारत में खेती को उद्योग का दर्जा दे देना चाहिए। तब से लेकर अब तक भाजपा के पास कृषि क्षेत्र के लिए कोई सशक्त वैकल्पिक कारगर नीति नहीं है अतः मौजूदा दौर में जिस तरह खेतों और किसानों की समस्याएं चुनावों के केन्द्र में आ रही हैं उन्हें गूंगा बनाने के लिए ही ऐसी कवायदें हो रही हैं जिससे मतदाता राजनीतिक दलों के आचार-व्यवहार में उलझ कर ही सफर करने लगें और वोट देते समय जमीन से कट कर हवा पर सवार हो जाएं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमें मध्यप्रदेश में देखने को मिल रहा है जहां के जबलपुर जिले के एक सरकारी स्कूल के हैडमास्टर ने मुख्यमन्त्री श्री कमलनाथ को डाकू कह दिया और जिला कलैक्टर ने उसे निलम्बित भी कर दिया मगर कमलनाथ ने समझ लिया कि बहुत चतुराई के साथ उनके विरोधी अपने काले कारनामों पर पर्दा डाले रखने की तरकीब भिड़ा रहे हैं।

कमलनाथ ने हैडमास्टर की बहाली का तुरन्त आदेश देते हुए निर्देश दिया कि मुझे बुरा कहने की सजा हैडमास्टर के पूरे परिवार को नहीं दी जा सकती और इस पद पर पहुंचने के लिए उसकी मेहनत को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता इसलिए उसे बहाल किया जाए और शिक्षा के प्रति समर्पित होने को कहा जाए। जमीनी राजनीति हमें खुद-ब-खुद जनता के दर्द दूर करने के नुस्खे बताती है और इस तरह बताती है कि हम हकीकत से मुकाबला करने को तैयार रहें। लोकतन्त्र को इसी वजह से लोकलज्जा से चलने वाली व्यवस्था कहा गया है।

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