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लोकतंत्र की निर्णय-कला

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स्वतन्त्र भारत का लोकतन्त्र बहुत गतिमान , ऊर्जावान व जिन्दा दिल रहा है। ऐसे अवसर कई बार आए जब सरकार चलाने वाली पार्टी के संगठन के नेतृत्व और सरकार के नेतृत्व में ठन गई मगर इसके पीछे व्यक्तिगत द्वेषभाव न होकर नीतिगत मतभेद थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारत में खेती करने का तरीका और मालिकाना स्वरूप बदलना था। प्रधानमन्त्री के रूप में पं. जवाहर लाल नेहरू का प्रस्ताव था कि कृषि क्षेत्र में तरक्की के लिए तथा उपज बढ़ाने के लिए सहकारिता खेती की प्रथा शुरू की जाए जिससे बड़ी–बड़ी जोतों में आधुनिक और वैज्ञानिक तरीके से खेती करके उपज बढ़ाने के साथ ही किसानों की माली हालत में सुधार हो सके। संभवतः 1956 के कांग्रेस अधिवेशन में यह प्रस्ताव रखा गया। पं. नेहरू के प्रस्ताव का विरोध करने की हिम्मत मंच पर बैठे हुए उस समय के बड़े नेताओं में आ पाती इससे पहले ही अधिवेशन के पंडाल में बैठे स्व. चौधरी चरण सिंह उठकर खड़े हुए और उन्हाेंने इस प्रस्ताव का पुरजोर विरोध करना शुरू कर दिया और तर्क रका कि पं. नेहरू सोवियत संघ के विकास ढांचे से बहुत प्रभावित हैं इसलिए सहकारिता खेती की बात कर रहे हैं मगर यह भारत है और भारत में किसान जमीन को अपनी मां मानता है।

वह किसी कीमत पर अपनी जमीन का मालिकाना हक नहीं छोड़ सकता। जमीन ही किसान का सब कुछ होती है अतः भारत में सहकारिता खेती की बात सोचना भी सपने की दुनिया में रहना है। स्व. चरण सिंह को अपने तर्क रखने का पूरा अवसर कांग्रेस अधिवेशन में दिया गया और उन्होंने सिद्ध कर दिया कि उत्तर से लेकर दक्षिण तक भारत में यह किसी भी तौर पर संभव नहीं है। सहकारिता खेती का कदम पूरे ग्रामीण भारत की सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था को तहस–नहस कर डालेगा और किसान को अपनी ही जमीन पर मजदूरी करने वाला चाकर बना देगा। श्री चरण सिंह के तर्कों के पक्ष में कांग्रेस अधिवेशन में सहमति सी बनी और पं. नेहरू ने अपने प्रस्ताव पर जोर देना उचित नहीं समझा किन्तु फिर भी उन्होंने चौधरी साहब को अपनी पार्टी के दूसरे बड़े नेताओं के माध्यम से अपनी बात समझाने की जरूर कोशिश की थी मगर उनके न मानने पर पं. नेहरू ने सहकारिता खेती के विचार को त्याग दिया। हमारा लोकतन्त्र जिद्द पर अड़ने की वकालत कभी नहीं करता है क्योंकि व्यापक विचार विनिमय की प्रक्रिया अन्ततः जिस निष्कर्ष पर पहुंचती है उसका परिणाम बहुजन सुखाय के रूप में ही प्रतिफलित होता है। एेसा ही इससे पूर्व हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर भी हुआ था। इसे स्वतन्त्र भारत के प्रथम कानून मन्त्री डा. भीमराव अम्बेडकर ने स्वयं लिखा था मगर तब इसका विरोध पं. नेहरू की सरकार में शामिल विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों ने किया था। उस समय तक उनकी सरकार राष्ट्रीय सरकार थी और भारत में लोकसभा का गठन भी नहीं हुआ था।

15 अगस्त 1947 को बनी सरकार में सभी प्रमुख तबकों को प्रतिनिधित्व दिया गया था जिसमें जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी हिन्दू महासभा के प्रतिनि​िध के तौर पर शामिल थे। दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व स्व. बाबू जगजीवन राम कर रहे थे और सिखों के प्रतिनिधि सरदार बलदेव सिंह थे जबकि कांग्रेस पार्टी आम हिन्दू–मुसलमानों का हिन्दोस्तानियों के रूप में व्यापक प्रतिनिधित्व कर रही थी। तब तक प्रथम लोकसभा के चुनाव भी नहीं हुए थे मगर डा. अम्बेडकर का ‘हिन्दू कोड’ बिल स्वीकार नहीं हो सका था। तब पं. नेहरू ने इसी बिल या विधेयक को 1952 के प्रथम लोकसभा चुनावों में प्रचार का एक प्रमुख मुद्दा बनाया और आम जनता को इसके प्रति जागरूक किया। ये चुनाव पूरे छह महीने अक्तूबर 1951 से लेकर मार्च 1952 तक हुए और पं. नेहरू ने इस दौरान पूरे देश में घूम कर अपनी चुनाव सभाओं के जरिये हिन्दू कोड बिल के नफे–नुकसान के बारे में लोगों को बताया। बाद में लोकसभा चुनाव होने पर वह इसी विधेयक को कई भागों में लेकर संसद में आए और इसे पारित कराया। भारत के बंटवारे के बाद यह कोई छोटा–मोटा काम नहीं था जिसे पं. नेहरू जैसी शख्सियत ने करने में इतना समय लगाया परन्तु उन्होंने लोगों के बीच जाकर उनकी सहमति से यह कार्य किया।

यह बदलाव लाने का पं. नेहरू का लोकतांत्रिक तरीका था जबकि उनकी पुत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इसी प्रक्रिया को उलटा करके तब पूरा किया जब उन्होंने 1969 में अपनी पार्टी के संगठन नेतृत्व से मतभेद होते हुए रातोंरात 14 निजी बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और अपनी सरकार को खतरे में डाल दिया मगर इस पर जनादेश उन्होंने लोकसभा भंग करके नये चुनाव कराकर लिया और लोगों ने उन्हें भारी बहुमत देकर अपनी सहमति तब प्रदान की जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने बैंक राष्ट्रीयकरण को अवैध घोषित कर दिया था। यदि हम आधुनिक इतिहास की इन प्रमुख घटनाओं की वर्तमान राजनीतिक वातावरण से तुलना करें तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि हम नैतिक स्तर पर खोखले हो रहे हैं क्योंकि हम में विपरीत विचारों को समझने का जज्बा लगातार कम होता जा रहा है परन्तु सबसे आश्चर्यजनक यह है कि जब अर्थव्यवस्था के मूल स्वरूप अर्थात बाजार मूलक अर्थतन्त्र के मुद्दे पर कांग्रेस व भाजपा में कोई सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है तो उसके विभिन्न अवयवों की उपयोगिता पर क्यों हो ? जाहिर है कि यह व्यावहारिक ज्ञान का नजरिया है जो उलझाव पैदा कर रहा है और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लिए गए फैसलों की कैफियत मांग रहा है।

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