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लोकतंत्र की ‘लोकजांच एजेंसी’

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लोकतन्त्र जब संविधान का शासन लागू करने के क्रम में अपने पराये का भेद करने लगता है तो वह राजनैतिक दल मूलक प्रशासनिक प्रणाली इकतरफा व्यवहार करने लगती है जिसका नियन्त्रण सरकार के हाथ में होता है। हमने जिस संसदीय प्रणाली के माध्यम से आजाद भारत की सत्ता का संचालन करने की विधी विकसित की उसके तहत कार्यपालिका को भी केवल संविधान के अनुसार काम करने की छूट इस प्रकार दी कि वह किसी भी राजनैतिक दल की हुकूमत के आदेशों का पालन करने के साथ ही संविधान के प्रति मूल रूप से जवाबदेह रहे।

इतना ही नहीं इससे भी ऊपर हमने स्वतन्त्र न्यायपालिका को उन अधिकारों से लैस किया कि वह संसद द्वारा पारित किसी भी कानून को संविधान की कसौटी पर कस कर उसकी वैधानिकता तय कर सके। इस लाजवाब इन्तजाम को हमने तीन मजबूत खम्भों पर खड़े ‘जनता के राज’ का नाम दिया और इसकी भी निगरानी और चौकसी करने का हक स्वतन्त्र प्रेस( मीडिया) को देकर इसे चौखम्भा राज बताया परन्तु पिछले बीस सालों से इस प्रणाली में जिस प्रकार के विकार घुस गये हैं उनसे इसी चौखम्भा राज का कोई भी खम्भा अछूता नहीं रहा है। इस हकीकत को सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य भी हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने किया और पिछली मनमोहन सरकार के कार्यकाल के खत्म होने से पहले अपने एक फैसले में इसने देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी ‘सीबीआई’ को पिंजरे में बन्द तोते की संज्ञा देकर कहा कि यह हुकमरानों के हुक्म का आंख बन्द करके पालन करती रही। बेशक 2- जी स्पैक्ट्रम आवंटन के कथित घोटाले में सीबीआई की विशेष अदालत ने ही किसी को भी दोषी नहीं माना और एेलान किया कि पूरा मामला आपराधिक षड्यन्त्र का नहीं बनता है।

इससे यही साबित हुआ कि सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में जो आरोप लगाये थे वे पुख्ता सबूतों से दूर थे और किसी ‘जासूसी उपन्यास’ की तर्ज पर लिखे गये थे। इस फैसले ने अगर सबसे बड़ा नुकसान किसी का किया है तो वह हमारी संसद की उस विश्वसनीयता का किया है जिसने इस मामले को लेकर भ्रष्टाचार का एेसा नया मन्त्र गढ़ दिया था जिसने सम्पूर्ण राष्ट्रीय राजनीति को बेइमानी का पर्याय बना डाला परन्तु इसके विपरीत जब 2004 में केन्द्र में भाजपा नीत अटल बिहारी वाजपेयी का शासन खत्म हुआ था और उनके शासन में रक्षा सौदों को लेकर तहलका कांड ने पूरे भारत की सड़कों से लेकर संसद तक में कोहराम मचा दिया था और 2004 के लोकसभा चुनावों के दौरान भी यह प्रमुख मुद्दा बना था तो नई सरकार के रक्षामन्त्री बने श्री प्रणव मुखर्जी ने पूरे तहलका कांड को ख्याली पुलिन्दा बताते हुए घोषणा की थी कि हकीकत में सबूतों के दायरे में एेसा कुछ भी नहीं है कि इस मामले की जांच करायी जाये और अटल सरकार के रक्षामन्त्री श्री जार्ज फर्नांडीज को इसके घेरे में लाया जाये। भारत के लोकतन्त्र की प्रशासनिक प्रणाली को राजनैतिक पूर्वाग्रहों से परे रखते हुए केवल संविधान के अनुसार अपने दायित्व को निभाने का यह अनूठा उदाहरण था, इसके बावजूद 2009 में पुनः मनमोहन सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद संसद के भीतर ही तब विपक्ष के नेता की हैसियत से बैठे भाजपा नेता श्री लाल कृष्ण अडवानी ने कहा था कि मनमोहन सिंह की सरकार का अगर सबसे बड़ा कोई सहयोगी दल है तो वह सीबीआई है क्योंकि यह सरकार सीबीआई के मनमाफिक उपयोग के आधार पर राजनैतिक गठबन्धन करके चल रही है।

दरअसल श्री अडवानी का राजनैतिक मन्तव्य बहुत साफ था कि सरकार अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए जांच एजेंसी के डर का हौवा खड़ा कर रही है। इसका मतलब यह भी निकलता था कि राजनैतिक मोर्चे पर स्वयं को सुरक्षित रखने के उपाय के रूप में सीबीआई एक कारगर अस्त्र की तरह काम कर सकती है लेकिन राजनीतिक धरातल पर कब क्या हो जाये कुछ नहीं कहा जा सकता। आज कांग्रेस विपक्ष में है और वह इसी तरह के आरोप भाजपा पर लगाने से नहीं चूक रही है। दोनों ही मामलों में सीबीआई की भूमिका को एेसी ‘फुटबाल’ की तरह दिखाया गया जो कमजोर टीम के पाले में गोल पर गोल दागती रहे परन्तु सीबीआई किसी भी हालत में फुटबाल नहीं हो सकती बल्कि वह ‘रेफरी’ की भूमिका में होती है। वह कमजोर और शक्तिशाली टीम दोनों पर ही खेल के नियम सख्ती से लागू करने की जिम्मेदारी से बन्धी होती है। राजनैतिक आरोप–प्रत्यारोप उसके लिए सबूत नहीं हो सकते क्योंकि उनको आधार बनाने से न्यायालय में उसे अन्त में शर्मसार ही होना पड़ता है। लोकतन्त्र में व्यक्तिगत लाभ और सार्वजनिक लाभ के बीच की दूरी को सार्वजनिक अवधारणा पैदा करके मिटाया जा सकता है मगर कानून के सामने नहीं। हरियाणा का कथित मानेसर जमीन घोटाला इसका जीता जागता उदाहरण है।

जम्मू-कश्मीर की सरकार के कहने पर अगर हरियाणा की सरकार का मुख्यमन्त्री वहां के सरकारी कर्मचारियों के आवासीय लाभ के लिए जमीन आवंटित करने के लिए अपने अधिकारों का प्रयोग कानून सम्मत तरीके से करता है तो यह निजी लाभ का सौदा किस आधार पर कहा जा सकता है ? इस बात का कोई मतलब नहीं है कि उस समय जम्मू-कश्मीर के मुख्यमन्त्री गुलाम नबी आजाद और हरियाणा के मुख्यमन्त्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा दोनों ही कांग्रेस पार्टी के थे मगर सीबीआई की नजर में मामला बन रहा है, दूसरे राजनैतिक मोर्चे पर भी यदि यह सन्देश जाता है कि कोई भी सरकार बदले की भावना से कानून का इस्तेमाल कर रही है तो उसे उसका भारी मूल्य चुकाना पड़ सकता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण इमरजैंसी के दौरान स्व. इदिरा गांधी की सरकार द्वारा की गई ज्यादतियों की जांच में देखने को मिलता है। उस समय शाह आयोग के गठन के अलावा न जाने कितने मुकदमे देश की विभिन्न अदालतों में कांग्रेसी नेताओं पर दायर किये गये। जिस जनता ने जनता पार्टी की सरकार को भारी उत्साह के साथ गद्दी सौंपी थी उसके बारे में धीरे–धीरे नजरिया बनता गया कि वह राजनैतिक विद्वेश की भावना से भर गई है।

परिणाम यह निकला कि केवल तीन साल बाद पुनः इन्दिरा गांधी को ही लोगों ने भारी बहुमत से गद्दी सौंप दी। लोकतन्त्र की यह भी सबसे बड़ी खूबी होती है कि यह मतदाता को बिना बोले ही ‘राग दीपक’ के वे ‘सुर’ सिखा देता है जिन्हें लय से गाने पर अंधेरे चिरागों में भी ‘रोशनी’ आ जाती है। इसीलिए लोकतान्त्रिक राजनीति में कोई दुश्मन नहीं होता बल्कि केवल प्रतिद्वन्द्वी या विपक्षी होता है और इन दोनों को ही वह संविधान अपने शिकंजे में कसा रहता है जिसकी बदौलत वे सत्तारूढ़ या विपक्षी दल कहलाये जाते हैं। दोनों ही लोकतन्त्र की उस सबसे बड़ी जांच एजेंसी के दायरे आकर फंसते हैं जिसे हम चुनाव या ‘लोकजांच’ कहते हैं।

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