जी- 20 सम्मेलन में कूटनीति

विश्व के आर्थिक क्रम में विकासशील देशों की बढ़ती भूमिका को देखते हुए जब 1999 में दुनिया के 20 औद्योगीकृत देशों को एक समूह में आने की जरूरत पड़ी तो जी-20 संगठन का गठन हुआ
जी- 20 सम्मेलन में कूटनीति
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विश्व के आर्थिक क्रम में विकासशील देशों की बढ़ती भूमिका को देखते हुए जब 1999 में दुनिया के 20 औद्योगीकृत देशों को एक समूह में आने की जरूरत पड़ी तो जी-20 संगठन का गठन हुआ जिसकी अगुवाई अमेरिका ने ही की परन्तु इसमें  भारत समेत तीसरी दुनिया के कहे जाने वाले कुछ अन्य देशों को भी प्रमुखता मिली जिनमें दक्षिण अफ्रीका व ब्राजील भी महत्वपूर्ण थे। शुरू में इन देशों के वित्तमन्त्रियों के सम्मेलन की ही परंपरा प्रारम्भ हुई। वित्तमन्त्रियों के इस दूसरे सम्मेलन की अध्यक्षता भारत को मिली और तत्कालीन वाजपेयी सरकार के वित्तमन्त्री श्री यशवन्त सिन्हा इसके अध्यक्ष बने। इसके बाद 2008 में इन देशों ने महसूस किया कि जी-20 का स्तर बढ़ाया जाना चाहिए और तब से इन देशों के सत्ता प्रमुखों का शिखर सम्मेलन होना शुरू हुआ। चूंकि इस संगठन में कुल बीस देश हैं अतः प्रत्येक सदस्य देश को बारी-बारी से इसकी अध्यक्षता मिलने का अवसर मिला। भारत का नम्बर अब चालू वर्ष 23 में आया है अतः अब 20 वर्ष बाद 2043 में ही इसे पुनः अध्यक्षता मिलेगी। निश्चित रूप से इस संगठन का सदस्य होना भारत के लिए गौरव की बात थी क्योंकि जब 1947 में यह देश अंग्रेजों की दासता से मुक्त हुआ था तो इसमें 'सुई' तक का उत्पादन नहीं होता था मगर केवल 52 वर्षों के भीतर ही यह देश हमारे दूरदृष्टा व वैज्ञानिक सोच रखने वाले रहनुमाओं की वजह से औद्योगीकृत देश बन गया और अमेरिका जैसे दुनिया की पहले नम्बर वाले देश की बराबरी में खड़ा होने लायक बन गया। अतः सबसे पहले हमें अपनी पुरानी पीढि़यों के उन नेताओं के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए जो 'हमे अंधेरे से प्रकाश की ओर लेकर गये' और उन्होंने हमारी नई पीढि़यों को विज्ञान की मार्फत गरीबी दूर करने के काम में लगाया। 
भारत आज गौरवान्वित है कि वह जी-20 की मेजबानी कर रहा है। दुनिया के 20 अग्रणी देश इसकी अध्यक्षता में सकल विश्व के विकास के बारे में विचार-विमर्श करेंगे। इसमें भाग लेने के लिए आज (शुक्रवार) को अमेरिका के राष्ट्रपति श्री जो बाइडेन भी आ रहे हैं। वह 9 व 10 सितम्बर को हो रहे शिखर सम्मेलन से पूर्व प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी से बातचीत करेंगे। जाहिर है कि यह बातचीत दोनों देशों के आपसी रिश्तों व इस क्षेत्र की  उन समस्याओं के बारे में होगी जिनका वास्ता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अमेरिका से भी है। इनमें हिन्द-प्रशान्त महासागर क्षेत्र की शान्ति व सुरक्षा अहम मसला माना जाता है। परन्तु सदस्य होने के बावजूद सम्मेलन में रूसी राष्ट्रपति श्री पुतिन व चीन के प्रमुख श्री शी-जिन-पिंग नहीं आ रहे हैं। इससे कुछ पेंच जरूर पड़ता दिखाई दे रहा है मगर इतना भी उलझा हुआ नहीं है कि भारत इसका तोड़ ही न ढूंढ सके। 
बेशक चीन भारत का एेसा निकटतम पड़ोसी है जिसकी सीमाएं छह तरफ से मिलती हैं और रूस भारत का परखा हुआ सच्चा व पक्का मित्र है। बेहतर होता यदि दोनों नेता भी शिखर सम्मेलन में भाग लेते तो विश्व की मौजूदा समस्याओं का हल ढूंढने में मदद मिलती और विभिन्न स्तर पर तनाव दूर भी होता। मगर श्री पुतिन यूक्रेन के साथ युद्ध में उलझे हुए हैं और अमेरिका व पश्चिमी यूरोपीय देश यूक्रेन की सामरिक से लेकर हर तरह से मदद कर रहे हैं और उन्होंने उसे अपने सामरिक संगठन 'नाटो' का सदस्य बनाने का झांसा दे रखा है। अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति में इसे इस प्रकार भी देखा जा रहा है कि अमेरिका व यूरोपीय देश यूक्रेन की मार्फत रूस की शक्ति को सीमित करना चाहते हैं। मगर चीन रूस की सीधी मदद कर रहा है और चीन के साथ अमेरिका के वाणिज्यिक व व्यापारिक मसले जग जाहिर हैं । अतः भारत पर यह जिम्मेदारी आ पड़ी है कि वह जी-20 की नई दिल्ली बैठक को इन देशों के बीच का कूटनीतिक अखाड़ा न बनने दे और अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखते हुए दुनिया को सन्देश दे कि भारत की धरती प्रेम व भाईचारा बढ़ाने वाली धरती मानी जाती है। इस मामले में पूरी दुनिया की नजर 10 सितम्बर को जारी होने वाले जी-20 देशों द्वारा जारी होने वाले संयुक्त वक्तव्य पर निश्चित रूप से रहेगा। 
भारत को बेशक इस बात से ज्यादा मतलब नहीं हो सकता कि अमेरिका चीन के बारे में क्या कहता है बल्कि उसेे इस बात से लेना-देना है कि चीन का रुख भारत को लेकर क्या है क्योंकि हमारे चीन व अमेरिका दोनों के बारे में ही खट्टे-मीठे अनुभव हैं। यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान के खिलाफ भारत के हुए चार युद्धों में अमेरिका का वजन पाकिस्तान की तरफ ही रहा था और चीन तो आज भी भारत की कुछ धरती लद्दाख में हड़पे बैठा है और अरुणाचल प्रदेश को अपना इलाका बता रहा है। अतः प्रधानमन्त्री मोदी यदि यह तुरुप का पत्ता चल देते हैं कि आगामी गणतन्त्र दिवस 26 जनवरी को वह 'क्वाड' देशों के राष्ट्राध्यक्षों को राजकीय मेहमान के रूप में नई दिल्ली में आमन्त्रित करेंगे तो इससे चीन की वे कलाबाजियां और सीनाजोरियां बन्द होंगी जो वह अख्सर करता रहता है। क्वाड में भारत, आस्ट्रेलिया, जापान व अमेरिका शामिल हैं। भारत लगातार यह मांग करता रहा है कि हिन्द महासागर क्षेत्र शान्ति क्षेत्र घोषित होना चाहिए मगर चीन लगातार इसमें अपने जंगी जहाज उतार कर दादागिरी दिखाता रहा है और जवाब में अमेरिका भी अपने बेड़े तैनात करता रहा है जिससे दुनिया के कारोबर का यह प्रमुख जलमार्ग खतरों से भरता जा रहा है। भारत की भूमिका इस सन्दर्भ में बहुत महत्वपूर्ण हो गई है मगर हमें अमेरिका की भी चिकनी-चुपड़ी बातों में नहीं आना है और रूस के साथ अपने रिश्ते निभाने हैं साथ ही चीन का मिजाज ठंडा करना है।

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