जनसंख्या में वृद्धि करने की अपील करके आंध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री चन्द्रबाबू नायडू ने देश में एक नई बहस छेड़ दी है। श्री नायडू ने पिछले दिनों फैसला किया था कि उनके राज्य में जिस व्यक्ति के दो या इससे कम बच्चे होंगे उन्हें स्थानीय निकाय के चुनावों में खड़े होने की अनुमति नहीं होगी। महानगर निगम व नगरपालिका से लेकर पंचायत तक के चुनावों में वे ही भाग ले सकेंगे जिनके दो से अधिक बच्चे होंगे। जबकि तीस वर्ष पहले संयुक्त आंध्र प्रदेश सरकार के मुखिया रहते हुए इन्हीं नायडू साहब ने फैसला किया था कि जन व्यक्तियों के दो से अधिक बच्चे होंगे वे ही स्थानीय निकाय के चुनावों में भाग ले सकेंगे।
सवाल पैदा हो रहा है कि श्री नायडू ने ऐसा फैसला क्यों किया? इसके दो पक्ष माने जा रहे हैं। एक तो सामाजिक-आर्थिक औऱ दूसरा राजनैतिक। भारत में जनसंख्या विस्फोट का विमर्श कई दशकों से चल रहा है जिसके चलते केन्द्र सरकार आबादी नियन्त्रण अभियान भी परिवार नियोजन के जरिये चला रही है। इस अभियान के तहत भारत के दक्षिण राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल व तमिलनाडु ने अपनी आबादी घटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इन राज्यों में प्रजनन दर घट कर दो से भी कम 1.8 के लगभग हो गई जबकि उत्तर भारत के राज्यों जैसे बिहार व उत्तर प्रदेश में यह क्रमशः 3 व 2.4 रही।
इसका मतलब यह हुआ कि बिहार राज्य में एक दम्पति के औसतन तीन बच्चे होते हैं और उत्तर प्रदेश में दो या तीन होते हैं। जबकि दक्षिण के राज्यों में किसी-किसी के दो या प्रायः एक सन्तान ही होती है। दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्तर पर भारत के लोगों की प्रजनन क्षमता 2.1 है। यदि इसी रफ्तार से आबादी में कमी होती रही तो 2050 तक भारत में बूढे़ या रिटायर व्यक्तियों की संख्या ज्यादा हो जायेगी। जिसकी वजह से आर्थिक प्रगति थम जायेगी और सरकार पर बूढे़ व्यक्तियों की आर्थिक मदद करने का अधिभार बढ़ता जायेगा। मगर आन्ध्र प्रदेश व दक्षिण के दूसरे राज्यों में स्थिति और भी ज्यादा खराब होगी। इन राज्यों में बूढे़ व्यक्ति राष्ट्रीय औसत के मुकाबले बहुत ज्यादा हो जायेंगे। इन राज्यों को अपनी आबादी कम करने का ‘फल’ भोगना पड़ेगा। चन्द्रबाबू नायडू की चिन्ता यही लगती है। उनका समर्थन तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री एम.के. स्टालिन ने भी किया है औऱ अपने राज्य के लोगों से अधिक बच्चे पैदा करने की अपील की है।
यह अपील भयावह भविष्य को देखते हुए की गई लगती है। दक्षिण के राज्यों को फौरी तौर पर भी आबादी कम रखने की सजा मिल सकती है क्योंकि वर्ष 2026 में लोकसभा चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन या पुनर्निर्धारण होना है। इसमें प्रत्येक राज्य की आबादी के अनुपात में लोकसभा सीटों की संख्या निर्धारित की जायेगी। इस फार्मूले के अनुसार उत्तर प्रदेश की बढ़ती आबादी को देखें तो 2026 में इस राज्य की 80 लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ कर 120 हो जायेगी जबकि आंध्र प्रदेश व तेलंगाना को मिला लें तो इनकी वर्तमान में कुल सीटें 42 हैं जिनमें 2026 में केवल चार सीटों की ही बढ़ोतरी होगी। अर्थात आबादी कम रखने का इन्हें नुकसान उठाना पड़ेगा। इसी प्रकार आर्थिक मोर्चे पर भी इन्हें आबादी कम रखने का नतीजा भुगतना पड़ रहा है। केन्द्र सरकार किसी भी राज्य को राजस्व आवंटन उसकी आबादी के अनुपात में करती है। फिलहाल उत्तर प्रदेश को 18 प्रतिशत के लगभग का राजस्व आवंटन होता है और बिहार को लगभग 10 प्रतिशत जबकि दक्षिण भारत के राज्यों को यह आवंटन केवल 4 प्रतिशत ही होता है।
दक्षिण के राज्यों ने आबादी कम करने में जो उत्साह दिखाया यह उसी का नतीजा माना जा रहा है। चन्द्रबाबू नायडू 25 साल आगे की सोच रहे हैं और अपने राज्य के लोगों से आबादी बढ़ाने के लिए कह रहे हैं। परन्तु यदि भारत की प्रत्येक राज्य सरकार इसी प्रकार सोचने लगे तो भारत की आबादी कहां तक आगे जायेगी कुछ नहीं कहा जा सकता? फिलहाल यह 140 करोड़ से ऊपर है। मगर भारत के पास इस पूरी आबादी का भरण-पोषण करने की क्षमता है। इसे बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। फिलहाल केन्द्र सरकार 80 करोड़ लोगों को दोनों वक्त का राशन मुफ्त दे रही है। इसकी कल्पना 50 साल पहले नहीं की जा सकती थी। भारत ने वह दिन भी देखा है जब 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री ने लोगों से सप्ताह में एक वक्त का भोजन न करने का आह्वान किया था। उस समय भारत की आबादी 50 करोड़ के लगभग थी। हम इतना अनाज नहीं उगा पाते थे कि 50 करोड़ लोगों को भोजन उपलब्ध करा सकें क्योंकि तब हम अमेरिका से गेहूं आयात करते थे।
मगर पिछले 50 सालों में तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है और कृषि क्षेत्र में हमने क्रान्ति करके न केवल 140 करोड़ लोगों के भोजन का प्रबन्ध किया है बल्कि अनाज निर्यात करने की स्थिति मे पहुंच गये हैं। इसलिए पिछले 50 वर्षों में कृषि के मोर्चे पर भारत ने जबरदस्त तरक्की की है। यह सतत विकास का ही परिणाम कहा जायेगा। यह हमारे पूर्व के राजनीतिज्ञों की दूरदृष्टि ही थी कि हम आज कृषि के मोर्चे पर पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं। मगर इसके समानान्तर आज का भारत युवा भारत कहलाता है। इसकी युवा शक्ति के ज्ञान का लोहा पूरा विश्व भी स्वीकार कर रहा है। हम कम्प्यूटर के साफ्ट वेयर क्षेत्र को लें तो भारतीय युवा पीढ़ी पूरे विश्व पर छायी हुई है। टैक्नोलोजी के इस युग में भारतीय युवा पीढ़ी किसी भी आधुनिक देश से पीछे नहीं है बल्कि विश्व की साफ्टवेयर कम्पनियों को यह संभाल रही है। अतः 25 साल आगे की सोच कर आज ही फैसला करना बुद्धिमत्ता पूर्ण कार्य कहा जायेगा लेकिन इसके साथ हमें यह जरूर सोचना होगा कि बढ़ती आबादी के भरण-पोषण के लिए हमें आज ही कारगर कदम उठाने होंगे।
1950 में भारत की प्रजनन दर यदि छह से ऊपर थी तो आज यह 2.1 है। इसके बावजूद भारत में बेरोजगारी की दर बहुत ऊंची है। रोजगार उपलब्ध कराने में हम असमर्थ हो रहे हैं। इस तथ्य को हम 25 साल बाद के वातावरण की कल्पना करके देखें तो भविष्य में भारत की तस्वीर धुंधली नजर आती है क्योंकि आबादी बढ़ने की दर यदि 2.1 ही रहती है तो 2050 तक भारत में बूढ़े व्यक्तियों की संख्या और युवाओं की संख्या में ज्यादा अन्तर नहीं रहेगा। अतः राष्ट्रीय स्तर पर हमें श्री नायडू के विचार को परख कर ही कोई फैसला लेना होगा। दक्षिण में जिस तरह आबादी घटी है उत्तर के राज्यों की वह स्थिति नहीं है। बल्कि उत्तर भारत के राज्यों में जनसंख्या नियन्त्रण अभियान जारी रखने की जरूरत है। क्योंकि आंध्र प्रदेश की जो समस्या है वह उत्तरी राज्यों के विपरीत है। हम बिहार व उत्तर प्रदेश अथवा मध्य प्रदेश की तुलना तमिलनाडु से कैसे कर सकते हैं क्योंकि यह भी हकीकत है कि बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश और प. बंगाल के लोग रोजी-रोटी की तलाश में दक्षिण तक के राज्यों में जाते हैं। हमें राष्ट्रीय स्तर पर सामंजस्य बनाकर ही आगे बढ़ना पड़ेगा।
सभी जानते हैं कि शिक्षा के मामले में दक्षिणी राज्य उतरी राज्यों से आगे हैं। आबादी नियंत्रण का सीधा सम्बन्ध शिक्षा से ही जाकर जुड़ता है। इसलिए केरल की तुलना बिहार से कैसे की जा सकती है। केरल राज्य में साक्षरता शत-प्रतिशत के आसपास है। हम जरा इस हकीकत पर भी गौर करें कि भारत के मुस्लिम परिवारों में भी अब प्रजनन दर हिन्दू परिवारों की प्रजनन दर के पास पहुंच रही है। यह सब शिक्षा के प्रसार का ही नतीजा है।