लोकतन्त्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष गाड़ी के ऐसे दो पहिये होते हैं जिन पर यह व्यवस्था चलती है। अतः स्वस्थ लोकतन्त्र के लिए मजबूत विपक्ष का होना जरूरी माना जाता है। इस प्रणाली में बेशक बहुमत का शासन होता है परन्तु इसके अन्तर्निहित तत्वों में सत्ता में अल्पमत की भागीदारी भी संसदीय प्रणाली के माध्यम से समाहित रहती है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि सत्ता और विपक्ष दोनों का चुनाव देश की जनता ही अपने एक वोट के संवैधानिक अधिकार से करती है और जो पक्ष में अल्पमत में रह जाता है वह भी जनता का ही प्रतिनिधित्व करता है। भारत में विभिन्न प्रत्याशियों के बीच सर्वाधिक वोट पाने वाला प्रत्याशी विजयी घोषित होता है। अतः पराजित हुए प्रत्याशियों को प्राप्त वोटों की संख्या भी सामान्य परिस्थितियों में विजयी प्रत्याशी को मिले वोटों से अधिक रहती है। इसलिए वैयक्तिक आधार पर बहुमत व अल्पमत की गणना सकल मतदाताओं की आवाज की सामूहिक रूप से प्रतिनिधित्व नहीं कर पाती है। इसलिए वैयक्तिक बहुमत प्रणाली के अन्तर्गत सबल या मजबूत विपक्ष की परिकल्पना संसदीय प्रणाली को तेज धारदार बनाती है। इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस नेता राहुल गांधी का यह मत ध्यान देने योग्य है कि विपक्ष को जनता के समक्ष अपना वैकल्पिक सांझा विमर्श प्रस्तुत करके सत्ता पक्ष के समक्ष ठोस चुनौती पेश करनी चाहिए।
भारत की राजनैतिक परिस्थितियों को देखते हुए यह कार्य सरल नहीं है क्योंकि विपक्ष के नाम पर देश में दर्जनभर से अधिक क्षेत्रीय दल ऐसे हैं जो अपने-अपने राज्यों में मजबूत हैं और इन सबका नजरिया भी अलग-अलग व क्षेत्र केन्द्रित है। इनमें से अधिसंख्य क्षेत्रीय दलों की पहचान अपने-अपने राज्यों से बाहर शून्य है। अतः राष्ट्रीय स्तर पर इनमें एकता स्थापित करने के लिए राष्ट्रीय चुनावों में ऐसे राष्ट्रीय नजरिये या विमर्श की जरूरत होगी जिसके साये में बैठ कर ये सभी क्षेत्रीय दल स्वयं को सुरक्षित और सामर्थ्यवान समझ सकें। जाहिर है कि ऐसा नजरिया केवल ऐसे दल के साये में ही ढूंढा जा सकता है जिसका वैचारिक केन्द्र क्षेत्र के स्थान पर देश हो और उसकी नीतियां भी राष्ट्रपरक होने के साथ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वग्राही हों। यदि बारीकी से देखा जाये तो भारत में राष्ट्रमूलक दृष्टिकोण को प्रतिपादित करने वाली केवल दो पार्टियां ही हैं। एक भाजपा व दूसरी कांग्रेस। इनमें से भाजपा सत्ता में है, अतः कांग्रेस की ही यह मूल जिम्मेदारी बनती है कि वह भाजपा के वैचारिक दृष्टिकोण के समक्ष अपना ऐसा ठोस वैकल्पिक दृष्टिकोण खड़ा करे जिसके दायरे में सभी विपक्षी क्षेत्रीय दल सुगमता के साथ आ सकें और जो भाजपा को कड़ी चुनौती भी दे सके। कांग्रेस की विचारधारा आजादी के पहले से ही ऐसी राष्ट्रीय विचारधारा रही है।
भाजपा भी राष्ट्र की परिकल्पना इसी आधार पर करती है। विशेषकर 1947 में मजहब के आधार पर मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान देश बनाये जाने के बाद हिन्दुत्व से ही भारत की पहचान मुखर रूप से मानने का सिद्धान्त इस पार्टी के जन्मदाता स्व. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1951 में जनसंघ की स्थापना करते समय दिया और इसी के चलते उन्होंने दिसम्बर 1950 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लियाकत अली खां के साथ स्व. प. जवाहर लाल नेहरू का दोनों देशों के अल्पसंख्यकों की स्थिति के बारे में हुए समझौते के बाद प. नेहरू की राष्ट्रीय सरकार से इस्तीफा दिया। अतः आजादी के बाद भारत में तीन विचारधाराएं प्रमुख रूप से रहीं। पहली कांग्रेस की गांधीवादी समाजवाद की विचारधारा और दूसरी कम्युनिस्ट विचारधारा तथा तीसरी डा. मुखर्जी की राष्ट्रवादी विचारधारा। इसमें से गांधीवादी समाजवाद की विचारधारा से अलग हुई कई विशिष्ट समाजवादी विचारधाराएं विकसित हुईं जिनमें डा. राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव व आचार्य कृपलानी की पार्टियों की विचारधाराएं। इसी प्रकार जनसंघ की विचारधारा की राष्ट्रवादी विचारधारा के समानान्तर भी कुछ उग्र धार्मिक व हिन्दुत्ववादी विचारधाराओं की पार्टियां अस्तित्व में रहीं जिनमें स्वामी करपात्री जी महाराज की राम राज्य परिषद और वीर सावरकर की हिन्दू महासभा प्रमुख थी। परन्तु जनसंघ के अस्तित्व में आने के बाद इन सभी पार्टियों का वजूद हाशिये पर जाता रहा।
वर्तमान समय में 90 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद राजनीति में जमीनी परिवर्तन आया और जिस प्रकार जातिमूलक राजनीति ने पैर पसारे उसमें राष्ट्रीय दृष्टिकोण नैपथ्य में जाने लगा और क्षेत्रीय दलों ने सामाजिक गणित के आधार पर मतदाताओं का विभाजन करने में सफलता प्राप्त कर ली जिसकी वजह से कांग्रेस के राष्ट्रीय दृष्टिकोण का बंटवारा होता रहा और चुनावी समीकरण बनते रहे। परन्तु भाजपा के हिन्दुत्व मूलक राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का शिकार भी अन्ततः क्षेत्रीय पार्टियों को ही होना पड़ा बेशक कुछ अपवाद इसमें रहे परन्तु यह काम क्षेत्रीय स्तर पर ही असरदार तरीके से हुए जिसकी वजह से कांग्रेस पार्टी का पतन होता रहा, मगर राष्ट्रीय स्तर पर इन क्षेत्रीय दलों को हमेशा से ही भाजपा या कांग्रेस की छत्रछाया की जरूरत रही जिसकी वजह से आज देश में एक भी ऐसा प्रमुख क्षेत्रीय दल नहीं है जो 90 के दशक के बाद से अभी तक कभी न कभी केन्द्र में सत्ता में न रहा हो। ऐसा तभी हो सका जब वैचारिक स्तर पर इन्होंने भाजपा या कांग्रेस में से किसी एक का दृष्टिकोण स्वीकार किया हो। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से भी यही काम हो रहा है। अतः जो क्षेत्रीय दल स्वयं को भाजपा विरोधी मानते हैं, उनके लिए सिवाय कांग्रेस की छत्रछाया में जाने के दूसरा विकल्प नहीं बचता है। हालांकि 2024 मेें अभी बहुत समय शेष है और इससे पहले 2023 में नौ राज्यों में जो विधानसभा चुनाव होंगे उनमें से अधिसंख्या में कांग्रेस व भाजपा के बीच ही सीधी टक्कर होगी जिनसे लोकसभा चुनावों से पहले यह आभास हो जायेगा कि लोगों का रुख किस विचारधारा के प्रति अधिक है। इतना तय है कि श्री राहुल गांधी की यात्रा के बाद इन चुनावों में विचारधारा की लड़ाई ही प्रमुख रहेगी।