राजनीति में विचारधारा की लड़ाई का विमर्श

देश में वर्तमान में जो राजनैतिक वातावरण है उसकी तुलना हम स्वतन्त्र भारत के किसी दौर या समय से नहीं कर सकते हैं।
राजनीति में विचारधारा की लड़ाई का विमर्श
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देश में वर्तमान में जो राजनैतिक वातावरण है उसकी तुलना हम स्वतन्त्र भारत के किसी दौर या समय से नहीं कर सकते हैं। वर्तमान राजनीतिक समय को यदि हम सिद्धान्त विहीनता का दौर भी कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसकी वजह यह है कि वर्तमान में जो भी राजनैतिक गठबन्धन बन रहे हैं उनका आधार वैचारिक समानता न होकर केवल सत्ता का गुणा-गणित है। यह दौर नब्बे के दशक के अन्त से शुरू हुआ जो अभी तक चल रहा है। मगर कांग्रेस पार्टी के लोकसभा में विपक्ष के नेता श्री राहुल गांधी पुरजोर तरीके से कह रहे हैं कि वह विचारधारा की लड़ाई भाजपा के साथ लड़ रहे हैं।

निश्चित रूप से कांग्रेस व भाजपा की विचारधाराओं में जमीन-आसमान का अन्तर है। जहां भाजपा हिन्दुत्व मूलक विचारधारा की संपोषक है तो वहीं कांग्रेस पार्टी विभिन्न धर्मों के लोगों को साथ लेकर चलने वाली धर्मनिरपेक्ष पार्टी कही जाती है। मगर भाजपा केवल कांग्रेस की खामियों को उभार कर ही शक्तिशाली पार्टी बनी है। भारत के सन्दर्भ में हमें यह जानना बहुत जरूरी है कि हिन्तुत्व की विचारधारा में भी सर्वधर्म समन्वय का भाव दूसरे धर्मों का आदर व सम्मान करने के साथ समाहित है। दरअसल ‘हिन्दू राष्ट्र’ औऱ ‘हिन्दू राज’ में भी जमीन-आसमान का अन्तर है। इस भेद को स्वतन्त्रता का युद्ध लड़ने वाले हमारे सेनानी भली-भांति समझते थे। ये सभी कांग्रेसी थे और मानते थे कि पाकिस्तान का निर्माण मुहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों के साथ साजिश करके पूरे हिन्दोस्तान में नफरत फैला कर करा तो लिया है मगर उसका भविष्य धार्मिक राष्ट्र होने की वजह से ही अंधकारमय होगा।

ऐसा कांग्रेस के महत्वपूर्ण मुस्लिम नेता मौलाना अबुल कलाम आजाद ने तसव्वुर किया था और उसे अपनी पुस्तक ‘इंडिया विंस द फ्रीडम’ में लिख डाला था। वास्तव में हिन्दुत्व की विचारधारा 1947 से पहले हिन्दू महासभा की थी। इसके नेता उस समय गठित संविधान सभा में भी थे। इन नेताओं के विरोध के बावजूद संविधान सभा ने स्वतन्त्र भारत को किसी एक विशेष धर्म का राज घोषित नहीं किया। संविधान सभा ने किसी विवादित मुद्दे पर मतदान का सहारा नहीं लिया बल्कि आम सहमति बना कर हर प्रश्न का जवाब ढूंढा और उसे कानून बनाया। बाबा साहेब अम्बेडकर ने पूरा संविधान गांधी के मानवतावाद के उन सिद्धान्तों को केन्द्र में रख कर ही लिखा जिसमें हर भारतीय नागरिक को एक समान समझते हुए इंसानियत की नजर से देखा गया। अतः किसी विशेष धर्म के प्रति ‘राज’ का नजरिया झुका हुआ नहीं रहा और भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहलाया गया। इसमें इसके किसी भी भू-भाग पर किसी भी धर्म या सम्प्रदाय अथवा जाति या वर्ण के रहने वाले नागरिक को एक समान अधिकार दिये गये।

जहां तक इस्लाम मानने वाले मुसलमान नागरिकों का सम्बन्ध था तो इनके आंशिक घरेलू कानूनों को लागू रहने की व्यवस्था की गई। इसकी खास वजह थी। कांग्रेस पार्टी ने अपने कराची अधिवेशन में नागरिकों को अधिकार सम्पन्न बनाने का प्रस्ताव पारित किया था। इस अधिवेशन की अध्यक्षता स्वतन्त्र भारत के प्रथम गृहमन्त्री सरदार पटेल ने की थी। यह अधिवेशन सरदार भगत सिंह की शहादत के बाद हुआ था। उस समय तक मुस्लिम लीग पाकिस्तान की मांग करने लगी थी। मुस्लिम लीग प्रचार कर रही थी कि भारत में यदि कांग्रेस पार्टी सत्ता में आती है तो मुसलमानों के साथ न्याय नहीं होगा और उनके निजी मामलात में दखल दिया जायेगा।

अतः जब सरदार पटेल की अध्यक्षता में नागरिक अधिकारों का प्रस्ताव पारित किया गया तो मुसलमान नागरिकों को यह आश्वासन दिया गया कि उनके घरेलू मामलों में उनके अपने कानून लागू रहेंगे मगर फौजदारी मामलों में उन पर भी वही कानून लागू होगा जो अन्य धर्मों के नागरिकों पर होता है। अतः संविधान लिखते हुए हालांकि पाकिस्तान का निर्माण हो चुका था मगर कांग्रेस पार्टी ने मुसलमानों से किये गये अपने वादे को निभाया। इसकी यह भी वजह थी कि अंग्रेजों ने हिन्दू-मुसलमानों को राजनीतिक आधार पर भी बांट रखा था। 1909 में ही अंग्रेजों ने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल बना दिये थे। अर्थात कुछ सीटों पर केवल मुस्लिम नागरिक ही चुनाव लड़ सकते थे। इसलिए जब 1936 में अंग्रेजी राज में पहली प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव हुए तो अविभाजित पंजाब जैसे मुस्लिम बहुल सूबे में मुस्लिम लीग को केवल दो सीटें मिली और पंजाब यूनियनिस्ट पार्टी व कांग्रेस को अच्छी सफलता मिली। मगर अविभाजित बंगाल में मुस्लिम लीग को अच्छी सीटें मिल गई थीं और हिन्दू महासभा को भी। इसलिए जब वहां सरकार बनी तो ये दोनों एक-दूसरे की खून की प्यासी पार्टियां सत्ता करने के लिए एक हो गईं। बंगाल में भी कांग्रेस पार्टी पंजाब की तरह बहुमत से दूर रह गई थी।

1931 के कांग्रेस के कराची अधिवेशन के बाद पूर्ण स्वतन्त्रता व नागरिकों के अधिकारों का मुद्दा बहुत लोकप्रिय हुआ था विशेषकर उस समय के युवा समाज में । सरदार पटेल की राजनीतिक विचारधारा कांग्रेस पार्टी की मूल गांधीवादी विचारधारा ही थी। सरदार पटेल हिन्दू राज के किस कदर विरोधी थे इसका अन्दाजा हमें आजादी के सिर्फ दो वर्ष बाद ही हैदराबाद में उस्मानिया विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में उनके सम्बोधन से मिलता है। इस समारोह में उन्होंने जो कहा उसे पढि़ये। उस समय तक पंजाब व बंगाल को काट कर पाकिस्तान बन चुका था और भारत में इन दोनों ही जगहों से हिन्दू शरणार्थी भारी संख्या में भारत में आ रहे थे। विभाजित भारत की कुल आबादी 34 करोड़ थी। इनमें मुसलमानों की संख्या केवल चार करोड़ के लगभग थी। सरदार पटेल ने कहा ‘यदि चार करोड़ मुसलमान हिन्दोस्तान में शेष 30 करोड़ लोगों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर खड़े हो जायें तो वे न केवल हिन्दोस्तान का बल्कि पाकिस्तान का भाग्य भी बदल सकते हैं।

अब बीती बातों पर पर्दा डालना चाहिए। देश के प्रत्येक व्यक्ति को भारत को महान राष्ट्र बनाने में मदद करनी चाहिए। हमें पूर्णतः साम्प्रदायिक सौहार्द रखना चाहिए क्योंकि हम सब इसी जमीन पर पैदा हुए हैं, इसी पर पले और यहीं जिन्दा रहना व मरना है। मगर वर्तमान दौर में जो सैद्धान्तिक राजनीति हो रही है वह नितान्त खोखली नजर आती है क्योंकि एक तरफ कांग्रेस के साथ हिन्दुवादी शिवसेना है तो दूसरी तरफ भाजपा के साथ आन्ध्र प्रदेश की तेलगूदेशम व बिहार की जनता दल (यू) जैसी पार्टियां हैं जिनका विश्वास हिन्दुत्ववादी राजनीति में नहीं है। तेलगूदेशम अपने राज्य में मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण दे रही है तो बिहार में जनता दल (यू) जातिगत सर्वेक्षण करा कर आरक्षण की सीमा को 75 प्रतिशत तक ले जाने के हक में हैं मगर सत्ता के लिए ये पार्टियां एक-दूसरे से हाथ मिलाने में गुरेज नहीं करतीं।

एेसे वातावरण में राहुल गांधी यदि सिद्धान्तवादी राजनीति की बात करते हैं तो उसे सबसे पहले राजनैतिक दल ही पटरी से उतारते हैं। इसी वजह से आज की राजनीति का मिजाज बदला हुआ है और लोगों को लग रहा है कि राजनीतिक दलों का कोई दीन-ईमान नहीं होता। सिद्धान्तवादी राजनीति के लिए जरूरी है कि राजनीतिक दल स्वयं आगे बढ़कर सैद्धान्तिक जन विमर्श गढ़ें और वैचारिक आधार पर ही लोगों को आन्दोलित करें। गांधीवाद कहता है कि राजनीति में साधन और साध्य की शुचिता बहुत महत्व रखती है। इसका मूल कारण यह है कि लोकतन्त्र में हर कदम पर राजनैतिक निर्णयों के सहारे ही काम होता है। अतः जब राजनीति में साधन और साध्य की शुचिता नहीं रहेगी तो लोगों में किस प्रकार यह शुचिता आ पायेगी। लोकतन्त्र में सत्ता केवल लोक सेवा के लिए ही होती है। इस मामले में सन्त शिरोमणी रैदास की यह उक्ति राजनीतिज्ञों को सदैव याद रखनी चाहिए ः

‘‘जहं-जहं जाऊं तहां तेरी सेवा

तुम सा ठाकुर और न देवा’’

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