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संसद से सांसदों की बर्खास्तगी

संसद के शीतकालीन सत्र की शुरूआत जिस रंजिश भरे माहौल में हुई है उसे लोकतन्त्र के लिए किसी भी दृष्टि से शुभ नहीं कहा जा सकता।

संसद के शीतकालीन सत्र की शुरूआत जिस रंजिश भरे माहौल में हुई है उसे लोकतन्त्र के लिए किसी भी दृष्टि से शुभ नहीं कहा जा सकता। राज्यसभा के 12 विपक्षी सदस्यों की पूरे सत्र के लिए बर्खास्तगी का निर्णय मूल रूप से हमारी संसदीय प्रणाली के उन बिन्दुओं को केन्द्र में लाता है जिनमें किसी भी चुने हुए सदन के भीतर उसके ही द्वारा बनाये गये नियमों के तहत कार्यवाही संचालन की व्यवस्था होती है। ये नियम इस प्रकार बनाये गये हैं कि सदन में लोक हित व जनहित के पक्ष में उठाये जाने वाले मुद्दों पर किसी प्रकार का अंकुश न रहे और संसद सही अर्थों में देश की आम जनता का प्रतिनिधित्व करती रहे परन्तु यह कार्य संसद में विपक्ष द्वारा ही किया जाता है क्योंकि लोगों द्वारा बहुमत दिये गये राजनीतिक दल की सरकार होती है और वह सत्तारूढ़ दल कहलाता है। इसी वजह से लोकतन्त्र में संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का बताया जाता है क्योंकि वह सरकार की नीतियों व निर्णयों के सड़कों पर हो रही प्रतिक्रिया का आइना सत्तारूढ़ दल को दिखाता है। इस व्यवस्था को मजबूती देने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने संसद सदस्यों को विशेषाधिकारों से नवाजा जिससे वे बिना किसी डर या लालच के संसद में जनभावनाओं की अभिव्यक्ति कर सकें। इसके लिए हमारे दूरदर्शी संविधान निर्माताओं ने पूरी संसद की स्वतन्त्र सत्ता इस प्रकार कायम की जिससे सत्ता में बैठी पार्टी अपने बहुमत के बूते पर विपक्ष की आवाज को न दबा सके। अतः संसद के परिसर के भीतर का पूरा निजाम लोकसभा अध्यक्ष के जिम्मे किया गया और इसे सरकार के निरपेक्ष रखा गया और अध्यक्ष को अपने बीच से ही चुनने की जिम्मेदारी लोकसभा सदस्यों पर डाली गई।
दूसरी तरफ उच्च सदन राज्यसभा के सभापति का पद देश के उपराष्ट्रपति को दिया गया जो संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के सहायक होते हैं। अतः हर स्तर पर संविधान के शासन की गारंटी देने वाले हमारे लोकतन्त्र में सबसे ज्यादा जोर संसद के अधिकारों पर दिया गया जो संविधान से ही शक्ति लेकर देश के समस्त संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों की समीक्षा तक कर सके। इसमें राज्यपालों को शामिल नहीं किया गया क्योंकि वे अपने-अपने राज्यों में स्वयं संविधान के संरक्षक होते हैं और उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति की प्रसन्नता पर निर्भर करती है जो सम्पूर्णता व समग्रता में संविधान के संरक्षक होते हैं परन्तु दुर्भाग्य से राज्यसभा के भीतर ही सदन की मर्यादा के अनुरूप व्यवहार न करने के आरोप में 12 विपक्षी सांसदों को पूरे सत्र से निलम्बित करने का फैसला सत्तारूढ़ के संसदीय मन्त्री द्वारा रखे गये एक प्रस्ताव के आलोक में लिया गया जिसका विरोध समूचा विपक्ष कर रहा है। विपक्ष का तर्क यह है कि यह कार्रवाई इकतरफा तरीके से की गई है क्योंकि सदन के पिछले 254वें वर्षाकालीन सत्र के अंतिम दिन विपक्षी सांसदों द्वारा सरकार की कार्यवाही के विरोध में किये गये आचरण व व्यवहार की कोई निष्पक्ष जांच नहीं की गई और उन्हें अपनी सफाई में स्पष्टीकरण देने का अवसर नहीं दिया गया। 
दरअसल पिछले सत्र के अंतिम दिन सरकार ने सदन की कार्यवाही को शाम छह बजे के बाद के लिए बढ़वाया था और उस समय के भीतर इसने जनरल इंश्यूरेंस संशोधन विधेयक पारित करने के लिए रख दिया था। विपक्षी सांसद इसका विरोध इसलिए कर रहे थे कि इस विधेयक का पहले तो उस दिन की कार्यसूची में कोई जिक्र नहीं था और उस समय भी नहीं ​िकया गया था। इसी बीच सदन के भीतर मार्शलों ने आकर विरोध कर रहे सदस्यों के साथ बरजोरी करनी शुरू कर दी। इस पर माहौल बिगड़ता चला गया और वह हुआ जिसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती। उस समय विपक्षी सांसदों का यह कहना था कि जिन मार्शलों ने सदन में प्रवेश किया था उनमें से कुछ संसद की सुरक्षा गार्ड के दस्ते के हिस्सा भी नहीं थे। 
अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या पिछले सत्र के अन्तिम दिन 11 अगस्त को शाम छह बजे के बाद जो कार्यवाही हुई उसकी जांच किस संसदीय संस्था द्वारा की गई? यह पूरी तरह सही है कि इसकी जांच करने के लिए सभापति ने सांसदों की ही एक समिति बनाने का प्रस्ताव किया था जिसे विपक्ष ने नहीं माना था और स्वयं को पीड़ित पक्ष बताया था क्योंकि तब बर्खास्त महिला सांसदों ने अपने साथ हुए दुर्व्यवहार की शिकायत तक मीडिया चैनलों में की थी। जाहिर है संसदीय नियमों के अन्तर्गत सदन के भीतर किसी भी सदस्य द्वारा किये गये आचरण की जांच कोई भी बाहर की संस्था नहीं कर सकती है और इसकी पूरी जिम्मदारी सभापति पर ही होती है। अतः इस पूरे प्रकरण के सन्दर्भ में उन्होंने जो फैसला किया वही अन्तिम फैसला होगा परन्तु भारत के महान लोकतन्त्र को देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि सदन में सत्तारूढ़ दल व विपक्ष के नेता के बीच संवाद के जरिये कोई रास्ता निकाला जा सकता था। इस मामले में अभी भी देर नहीं हुई है। लोकतन्त्र में राज्यसभा जैसे उच्च सदन की गरिमा के अनुरूप एेसा फैसला किया जाना जरूरी है जिससे लोगों में संसदीय प्रणाली के प्रति निष्ठा बनी रहे। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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