राष्ट्र के समक्ष भयानक संकट है अविश्वास

राष्ट्र के समक्ष भयानक संकट है अविश्वास
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कुछ समय पहले तक हम यह कहते थे कि हमारे देश में प्रकृति ने धरती की गोद में, पहाड़ों के गर्भ में, सागर की गहराइयों में दुनिया भर के सभी पदार्थ दिए हैं। सप्तधातु तो दिए ही हैं इसके साथ ही जीवन के लिए हर आवश्यक वस्तु धरती माता दे रही है। भारत में तो दूसरे देशों से बहुत अधिक उपहार प्रकृति के दिए हैं, पर केवल भ्रष्टाचार के कारण हमारा देश दूसरे देशों से पीछे रह रहा है। भ्रष्टाचार आज भी है अन्यथा जितने साधन, संसाधन हमारे पास हैं उससे तो हम विश्व की प्रथम शक्ति बन जाते। अब भी बनने की ओर बढ़ रहे हैं, पर हमारे देश का भ्रष्टाचार अमरबेल की तरह है। पहले यह कथन था कि स्वतंत्रता से पूर्व और स्वतंत्रता के पहले दशक में नेताजी शब्द का बहुत सम्मान था, पर आधी शताब्दी बीतते-बीतते किसी को नेताजी कहना मानो एक शब्द में सौ गाली दे देना है। उसके आज 75 वर्ष से ज्यादा समय और बीतने के बाद अमृत महोत्सव का उत्सव मनाकर आनंदित होने के बाद आज देश में जो सबसे बड़ा संकट है वह राजनीति में विश्वास का संकट है। कोई किस पर विश्वास करे और करे भी तो क्यों?
एक आम जीवन में चलती कथा कहिए, कहानी कहिए या व्यंग्य, पर है सच -एक पुत्र ने पिता से कहा कि मैं भी राजनीति में आना चाहता हूं। आपने राजनीति में तीन-चार दशक बिता दिए, मुझे राजनीति का मंत्र बताइए। पिता समझाता रहा कि राजनीति को मत समझ, पर जब पुत्र ने हठ किया तो उसके पिता ने यह कह दिया कि छत से नीचे छलांग लगाओ। बेटा हिचकिचाया। हड्डी टूटने की आशंका भी उसके सामने थी, पर पिता ने कहा कि मैं कह रहा हूं तुम्हारा शुभचिंतक हूं कूद जाओ। वही हुआ जो होना ही था, राजनीति का नया विद्यार्थी कूद गया, घायल हो गया, अस्पताल पहुंचा तब पिता ने कहा कि राजनीति का पहला मंत्र यह है कि किसी पर विश्वास मत करो, चाहे वह बाप ही क्यों न हो।
दुर्भाग्य से आज यह सब कुछ हो रहा है। वर्ष 2024 में ही राजनेताओं ने जितना अपने मतदाताओं का अपनी पार्टी के नेताओं का विश्वास तोड़ा उसके सामने तो केवल हड्डीयां नहीं, अपितु हृदय टूट रहे हैं। जब बड़े-बड़े नेता, विधायक, सांसद, मंत्री रात्रि भोजन में हंसते, खेलते, खाते, स्वादिष्ट पर मुफ्त भोजन का आनंद लेते हुए शुभ रात्रि कहकर विदा होते हैं और गुड मार्निंग के साथ इकट्ठा होकर फिर बढ़िया व्यंजनों का आनंद लेते हैं उसके कुछ पल बाद ही वे पीठ पर नहीं, छाती में छुरा घोंपते हैं। जिनके साथ खाया-पिया उन्हीं के विरोध में नोट दान या सत्ता प्रदान के जाल में फंस जाते हैं तब इससे बड़ा राजनीति के अविश्वासग्रस्त होने का प्रमाण और क्या हो सकता है।
अगर आज पूरे देश को न भी देखो, ​िकसी भी राज्य को देखें तो हर नए सूर्योदय और हर सांझ के सूर्यास्त के बाद जो ब्रेकिंग न्यूज मिलती है, कौन टिकट न मिलने से दल बदल गया, किसको उन्होंने सांसद का उम्मीदवार बनाया जिस दल में छलांग लगाकर वह गए। उस गति ने तो आया राम गया राम को भी बहुत पीछे छोड़ दिया। एक दिन कवि ने छोटी सी कविता लिखी थी। वैसी ही छोटी सी जैसी कभी श्री अज्ञेय जी ने सांप पर लिखी थी। इस नए कवि ने गिरगिट का आत्महत्या करने का कारण बताया। यह सुनाया गया कि गिरगिट ने आत्महत्या करने से पहले जो सुसाइड नोट अर्थात आत्महत्या करने से पहले का वक्तव्य लिखित रखा उसमें यह कहा गया था कि वह आज के नेताओं से रंग बदलने में परास्त होकर जीवन समाप्त कर रहा है।
बेचारा गिरगिट तो वैसे ही बदनाम है उसे तो प्रकृति ने बनाया ही ऐसा है। वह रंग नहीं बदलता, कुदरत उसका रंग बदल देती है, पर यहां तो रंग बदले जाते हैं। जिस रंग में रंग जाने से अधिक लाभ धन का, सत्ता का या अपना अस्तित्व बनाए रखने का या अपनी अगली पीढ़ियों को सत्तापति या धनपति बनाए रखने का आश्वासन मिल जाता है या सीधा-सीधा सत्ता की चाबी हाथ में आ जाती है, उसी रंग में रंग जाते हैं। डंडा तो एक ही चाहिए और रंगे हुए झंडे मिल जाते हैं। फूलों के गुलदस्ते, गले में हार तो वही रहते हैं, उनका रंग तो एक ही रहता है। निश्चित ही सिरोपा, झंडा और नारा बदल जाता है। नारा बदलने का क्या है, अगर तोता-मैना नया पाठ पढ़ सकते हैं तो इंसान का बेटा बेटी क्यों नहीं पढ़ सकता।
एक बार एक बहुत ही वरिष्ठ व्यक्ति जो अब राष्ट्रीय स्तर पर है उनके साथ कुछ मतभेद हुआ विश्वास हनन के कारण। एक का यह कथन था कि हड्डी टूट जाए तो डाक्टर हड्डी जुड़ने का समय बता देते हैं पर विश्वास जुड़ने का कोई समय नहीं। आज राजनीति के खिलाड़ियों ने विश्वास तोड़ा है। एक पार्टी का अध्यक्ष दूसरी का अध्यक्ष बन गया। एक पूर्व सांसद नई पार्टी में संसद का उम्मीदवार बन गया। एक युवा मोर्चा या महिला मोर्चा का अध्यक्ष दल बदलते ही उसी पद पर दूसरी पार्टी में आसीन हो गया। अब तो हालत यह हो गई कि राज्यों में जितनी पार्टियां हैं और बहुत सी राष्ट्रीय पार्टियां भी हर रोज यह लेखा-जोखा करती होंगी कि कितने उनकी पार्टी में आए और कितने गए।
चुनाव आयोग तथा आम जनता को भी इन उम्मीदवारों को देखकर निश्चित ही एक बार तो सोचना पड़ता है कि पहले कितनी बार ये दल बदल चुके हैं। जिन्होंने गरीबी हटाने की बात कही, गरीबी नहीं हटा पाए। हरेक को मकान देने की बात कही, पर लोग करोड़ों की संख्या में फुटपाथ पर हैं। शिक्षा सबको को मिलेगी, जोर जोर से कहा, पर देश के करोड़ों बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा सकते। मानव अधिकार आयोग कमरों में बंद है, मानवता का कत्ल हो रहा है। संविधान का समानता का अधिकार उनके लिए है ही नहीं जो मैले कपड़ों में हैं। देश का एक व्यक्ति एक रात नृत्य गायन के लिए सौ करोड़ खर्च कर सकता है और एक गरीब मजदूर, किसान लाख दो लाख के कर्ज के कारण आत्महत्या कर रहा है, परिवार को अनाथ छोड़ कर। किस पर विश्वास करें, करें भी तो क्यों करें और अविश्वास का संकट भयानक संकट है, जीवन के लिए राष्ट्र के लिए।

– लक्ष्मीकांता चावला

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