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डॉक्टरों का खुद मरीज हो जाना!

चिकित्सकों का विरोध-प्रदर्शन जिस तरह तेजी के साथ फैला है उससे भारत की वह मूल स्वास्थ्य समस्या सतह पर आ गई है जो राजनैतिक दलों की प्राथमिकता पाने में असफल रहती है।

कोलकाता में एक चिकित्सक के साथ दुर्व्यवहार को लेकर पूरे देश में चिकित्सकों का विरोध-प्रदर्शन जिस तरह तेजी के साथ फैला है उससे भारत की वह मूल स्वास्थ्य समस्या सतह पर आ गई है जो राजनैतिक दलों की प्राथमिकता पाने में असफल रहती है। बेशक मोदी सरकार की ‘आयुष्मान भारत’ योजना के तहत गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को राहत देने का प्रयास किया गया है, मगर इससे चिकित्सा के व्यवसाय के व्यापार में बदलने पर कोई असर पड़ने की संभावना नहीं है। भारत जैसे विशाल 130 करोड़ की आबादी वाले देश में सरकारी अस्पतालों का स्थान मानवता के देवस्थलों से कम नहीं है, जहां जाकर आम नागरिक अपने शारीरिक कष्टों से मुक्ति पाने की कामना करता हैं। 
ये सरकारी अस्पताल लोकतन्त्र में सरकार की दक्षता और कर्त्तव्यनिष्ठा के भी प्रतीक होते हैं जहां मरीजों का ध्यान बिना किसी भेदभाव और आर्थिक लालच के करने की प्रणाली लागू होती है परन्तु पिछले तीस वर्ष से भारत में जिस तरह स्वास्थ्य व शिक्षा प्रणाली का निजी कार्पोरेटीकरण हुआ है उससे इन दोनों ही क्षेत्रों का जबर्दस्त वाणिज्यिकरण और बाजारीकरण हुआ है जिसकी वजह से डाक्टर और शिक्षक का रुतबा धन लूटने वाले शख्स का बन चुका है। समाज की मानसिकता में आया यह परिवर्तन डाक्टरों के प्रति असहिष्णुता को जन्म दे रहा है जिसकी वजह से विभिन्न स्थानों पर हमें मरीजों के सगे सम्बन्धियों द्वारा उनके विरुद्ध हिंसक होने की खबरें मिलती रहती हैं। 
सरकारी अस्पतालों में ये घटनाएं इसलिए ज्यादा होती हैं क्योंकि इनमें अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से कमजोर और बे-रसूख मरीज ही ज्यादातर भर्ती होते हैं। समस्या के कई और गंभीर पहलू भी प्रकट हुए हैं जिनमें भारत में डाक्टरों की संख्या कम होना भी है। इस मामले में  देखें तो प. बंगाल अन्य राज्यों से बहुत बेहतर स्थिति में है जहां दस हजार व्यक्तियों पर एक डाक्टर है जबकि बिहार में यह औसत 28 हजार लोगों पर एक डाक्टर का है और उत्तर प्रदेश में 19 हजार लोगों पर एक डाक्टर का, पूरे भारत में औसत 11 हजार लोगों पर एक डाक्टर का पड़ता है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानक एक हजार लोगों पर एक डाक्टर का है। 
इसके बावजूद भारत से विदेश जाकर अपनी सेवाएं देने वाले डाक्टरों की संख्या में भी कमी नहीं है। दूसरी तरफ इसी भारत में ऐसे-ऐसे कार्पोरेट अस्पताल हैं जहां विदेशों से मरीज अपना इलाज कराने के लिए आते हैं। ‘मेडिकल टूरिज्म’ को बढ़ावा देने के लिए सरकारों की तरफ से विशेष प्रोत्साहन भी दिया जाता है। यह पूरी तरह गजब का विरोधाभास है। जाहिर है स्वास्थ्य नीति में भारी विसंगतियां हैं जिनमें संशोधन और सुधार किया जाना जरूरी है। इसमें सबसे जरूरी यह है कि स्वास्थय सेवाओं का आधारभूत सरकारी ढांचा मजबूत किया जाये जिससे प्रत्येक नागरिक को सस्ती चिकित्सा सेवा निकट ही सुलभ हो सके परन्तु इस मामले में डाक्टरों की कमी की वजह सबसे आगे कर दी जाती है।
 
वस्तुतः भारत में निजी क्षेत्र में मेडिकल कालेजों की संख्या में पिछले तीस वर्षों में ही भारी इजाफा हुआ है और प्रायः ये निजी क्षेत्र में ही खुले हैं। इन कालेजों में प्रवेश के लिए जिस तरह लाखों रुपये की प्रत्यक्ष व परोक्ष फीस वसूली जाती है उसके चलत ही डाक्टरों की मानसिकता भी बदली है और यह पेशा धन कमाने का शानदार जरिया बन चुका है। सरकारी अस्पतालों में मजबूरी में ही चिकित्सकों को काम करना पड़ता है। भारत के ग्रामीण इलाकों में वे काम करना पसन्द नहीं करते हैं क्योंकि वहां आमदनी बहुत सीमित और पारिवारिक उत्थान के साधन बहुत कम होते हैं। अतः स्वास्थ्य व शिक्षा का अन्तर्सम्बन्ध किस प्रकार है इसका अन्दाजा हम आसानी से लगा सकते हैं और भारत में सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.3 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होता है और इससे कुछ ज्यादा शिक्षा पर।  
अतः जो समस्या कोलकाता से शुरू हुई है उसकी जड़ में हमें जाना होगा और इसे केवल कानून-व्यवस्था की समस्या से ऊपर उठ कर देखना होगा। भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य शुरू से ही सेवा क्षेत्र माने गये हैं मगर बदलते हालात ने इन्हें तिजारत बना दिया है जिसकी वजह से यह विद्रूपता पैदा हुई है ‘ऊपर भगवान और नीचे डाक्टर’ की लोकोक्तियों को मानने वाले भारतीय समाज में डॉक्टर का रूतबा बदलना गंभीर सामाजिक अराजकता की ही चेतावनी देता है। इसका स्थायी हल यही हो सकता है कि भारत में सरकारी अस्पतालों का ढांचा इतना मजबूत और सुविधा सम्पन्न बनाया जाये कि इनमें काम करने वाले चिकित्सकों को किसी प्रकार की असुविधा न हो और इनमें दाखिल होने वाले मरीजों को अपने विपन्न होने का खतरा न रहे। 
यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकार जो भी खर्च करती है वह दीर्घकालिक स्थायी निवेश होता है क्योंकि उसकी मार्फत ही देश की आम जनता स्वस्थ रह कर अपने राष्ट्र का आगे विकास कर सकती है। भारत के बामुश्किल सात प्रतिशत लोग ही स्वास्थ्य बीमा जैसी सुविधाओं का लाभ उठा पाने में सक्षम हैं निजी क्षेत्र में बड़े-बड़े अस्पतालों का खुलना आम आदमी के लिए तब तक मृग मरीचिका है जब तक कि उसके पर्याप्त धन न हो और जब स्थिति यह होगी तो सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की सेवाएं किस प्रकार मिलेंगी? जाहिर है कि लाखों रुपये डाक्टरी की पढ़ाई पर खर्च करने वाला व्यक्ति उसे जल्दी से जल्दी वसूलने का इन्तजाम भी करना चाहेगा। 
दो दशक पूर्व यह समस्या आयी थी कि सरकारी मेडिकल कालेजों से डिग्री लेने वाले चिकित्सक विदेशों को पलायन कर जाते थे। बाद में इस बारे में कड़ा कानून बनाया गया। अतः चिकित्सकों की सुरक्षा को लेकर जो सवाल कोलकाता से चलकर पूरे भारत में तैर रहा है उसका सम्बन्ध बहुआयामी है। 

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