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विधायिका का सम्मान न घटे !

भारत की संसदीय प्रणाली में जो विधि अपनाई गई उसमें संसद के भीतर ‘विधायिका’ (लेजिसलेचर) को राजसत्ता पर तरजीह देते हुए यह तय किया गया कि हर सूरत और परिस्थिति में इसके दोनों सदनों के भीतर बैठने वाले सदस्यों की आवाज और

भारत की संसदीय प्रणाली में जो विधि अपनाई गई उसमें संसद के भीतर ‘विधायिका’ (लेजिसलेचर) को राजसत्ता पर तरजीह देते हुए यह तय किया गया कि हर सूरत और परिस्थिति में इसके दोनों सदनों के भीतर बैठने वाले सदस्यों की आवाज और मत का संज्ञान दोनों सदनों के चुने हुए अध्यक्षों की मार्फत लिया जाये जिससे लोकतन्त्र के तरीके से स्थापित बहुमत की सरकार पूरे देश के मतदाताओं का प्रतिनिधित्व कर सके। हमारे पुरखे हमें जो यह बेहद जवाबदेह प्रणाली सौंपकर गये उसमें विधायिका को संसद के भीतर सत्ता से ऊपर ही नहीं रखा गया बल्कि इसे विधायिका (दोनों सदनों के चुने हुए सदस्यों) के प्रति जवाबदेह भी बनाया गया। इस जवाबदेही को सदन चलाने के नियमों में इस प्रकार ढाला गया कि अल्पमत में रहे विपक्ष के सदस्यों के पास हर मौके पर सरकार से जवाबतलबी का अधिकार मौजूद रहे। जवाबदेही लोकतन्त्र का अन्तर्निहित अंग इस प्रकार होता है कि इसकी मार्फत संसद में सरकार से जवाबतलबी की जाती है। इसके साथ ही दोनों सदनों के भीतर समय-समय पर ऐसी स्वस्थ परंपराएं स्थापित की गईं जिनका अनुसरण करके आने वाली पीढि़यां संसदीय प्रणाली को और मजबूत बना सकें। मगर संसद में फिलहाल जो वातावरण चल रहा है उसे देख कर निश्चित रूप से आने वाली पीढि़यां अपना माथा फोड़ेंगी और पूछेंगी कि उनके पुरखे स्वतन्त्रता सेनानियों द्वारा बनाई गई लोकतन्त्र की इमारत को किस तरह तहस-नहस करके गये हैं।
 भारत के बारे में जो लोग यह विचार रखते हैं कि इसकी  संसदीय प्रणाली ऐसी है जिसमें बहुमत का शासन होता है, वे मूलतः गलती पर होते हैं क्योंकि भारत की संसदीय प्रणाली ऐसी है जिसमें शासन बहुमत के हाथ में जरूर होता है मगर सत्ता संविधान के राज की होती है। इसी संविधान ने संसद का गठन किया है और इसके चलाने के नियम संविधान की सत्ता की प्रेरणा से ही बनाये गये हैं। मगर हम देख रहे हैं कि संसद के उच्च सदन राज्यसभा में उस स्थापित परंपरा के नियम को किस प्रकार तोड़ा जा रहा है कि सदन में कोई भी विधेयक शोर-शराबे के बीच पारित नहीं होगा।  आज जितने भी विधेयक पारित हुए सभी के दौरान भारी शोरगुल होता रहा। इसके लिए किसी एक पक्ष को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि जब सदन के नियमों के अनुसार विपक्षी सांसदों ने विभिन्न विषयों पर स्थगन या काम रोको प्रस्ताव के नोटिस दिये हैं तो उन्हें क्रमवार वरीयता के अनुसार सदन में विचारार्थ लाये जाने की अपेक्षा प्रत्येक सांसद को थी। परन्तु सदन के सभापति के फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती है और उन्होंने अपने विवेक से जो फैसला किया उसे सिर माथे रखने की स्वस्थ परंपरा है। परन्तु इसके साथ यह भी आवश्यक है कि संसद की उपयोगिता व सार्थकता बनाये रखने के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष को ऐसे बिन्दू पर लाया जाये जिससे सदन के भीतर नियमों का पालन होते हुए कार्यवाही आगे बढ़ सके और  जिसमें समस्त विधायिका की सहभागिता सुनिश्चित हो सके। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि अन्ततः विधायिका ही सरकार का गठन करती है। हम इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि किसी भी सरकार का राज्यसभा में बहुमत हो यह जरूरी नहीं।
 लोकसभा में पाये बहुमत के आधार पर बनी सरकार जब राज्यसभा में अल्पमत में रह जाती है तो उसके स्थायित्व पर कोई असर नहीं पड़ता। मगर सरकार के हर विधेयक का (केवल वित्त विधेयकों को छोड़ कर ) राज्यसभा में पारित होना जरूरी होता है। हमारे संविधान निर्माता यह नियम इसीलिए बना कर गये हैं जिससे लोकसभा में अपने बहुमत के बूते पर इठलाती सरकार उच्च सदन राज्यसभा में आकर सौम्य भाव से अपने फैसले की समीक्षा करे और आत्म विश्लेषण करने को मजबूर हो क्योंकि उच्चसदन में देश के जाने माने विशेषज्ञों को प्रत्याशी बनाने की परंपरा रही है। हालांकि अब इसमें भी भारी गिरावट आ चुकी है। अतः इस सदन में जब यह फैसला सदन के ही सदस्यों द्वारा सर्वसम्मत्ति से किया गया था कि कोई भी विधेयक शोर-शराबे के बीच पारित नहीं होगा तो उससे सत्ता और विपक्ष के बीच सामंजस्य व सहयोग कायम करने की खिड़की खुलती थी। इस परंपरा के लागू रहने से दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जिद तोड़ने पर मजबूर हो जाते थे। मगर अब इसकी उम्मीद भी खत्म हो गई है और इस तरह यह अपेक्षा खत्म हो रही है कि अब संसद के बजाये 13 अगस्त तक चलने के 7 अगस्त को ही स्थगित होने की अटकलें लगाई जाने लगी हैं। इसकी आशंका आज राज्यसभा में पारित विधेयकों के तरीके को देख कर और भी बलवती होती है। मगर ध्यान रखा जाना चाहिए कि पूरी दुनिया में और भी देश हैं जहां संसदीय प्रणाली का लोकतन्त्र है। 
सत्ता पक्ष और विपक्ष की जिद को तोड़ने का एक रास्ता यह भी है कि जब संसद में गतिरोध की स्थिति बन जाये तो संसद के सत्र को बजाय छोटा करने उसे बढ़ा दो जिससे दोनों पक्ष अपनी-अपनी  इज्जत बचाने की खातिर बीच का रास्ता निकालने को मजबूर हो जायें। मगर यहां तो कांग्रेस के जमाने से ही उल्टी गंगा बहाई जा रही है और जिद पर अड़ने के चक्कर में संसद  सत्र छोटा किया जाता रहा है। अब इस रणनीति में परिवर्तन करने का समय इसलिए आ गया है क्योंकि संसद के असंगत हो जाने का खतरा मंडराने लगा है और विधायिका के ऊपर सत्ता तरजीह पाने लगी है जबकि संसदीय प्रणाली संसद के भीतर विधायिका को सर्वोच्च रखती है तभी तो सदन के अध्यक्ष के निर्देशों और आदेशों की कोई भी सरकार पाबन्द होती है।

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