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दिल्ली का दरिया हो जाना

देश की राजधानी दिल्ली हर वर्ष बारिश से दरिया बन जाती है। घरों से बाहर निकले लोग सड़कों पर डूबने उतर जाते हैं। जाम और जल भराव में फंस जाते हैं।

देश की राजधानी दिल्ली हर वर्ष बारिश से दरिया बन जाती है। घरों से बाहर निकले लोग सड़कों पर डूबने उतर जाते हैं। जाम और जल भराव में फंस जाते हैं। कहीं कोई कार को धक्के मार रहा है तो कोई लबालब पानी में फंसी अपनी स्कूटी को लेकर बाहर निकलने की जदोजहद करता दिखाई देता है। आखिर लोग अपनी किस्मत को दोष दें या फिर ऊपर वाले को या फिर सरकार को कोसें। पिछले दो दिन से आसमान पर बादलों का डेरा है और जमीन पर पानी का प्रहार है। दिल्ली में 1944 के बाद इस बार सितम्बर माह में सबसे अधिक बारिश हुई है। बारिश का एक नया रिकार्ड यह भी है कि बीते 121 साल में सबसे ज्यादा पिछले 24 घंटों में बारिश हुई। इससे पूर्व 77 वर्ष पहले सितम्बर 1944 में सबसे ज्यादा 417 मि.मी. बारिश दर्ज की गई थी। पिछले चार महीनों में 1139 मि.मी. बारिश दर्ज की गई जो 46 वर्षों में सबसे अधिक है। 1975 में हुई 1155 मिमी. वर्षा हुई थी। दिल्ली के हवाई अड्डे पर नाव चलाने की नौबत आ गई। एक जगह बस पानी में डूब गई, बड़ी मशक्कत से 40 यात्रियों को निकाला गया। हर जगह सड़कें सैलाब में गुम हो गईं।
ऐसी स्थिति केवल दिल्ली में ही नहीं अन्य शहरों में भी है। बाढ़ के चलते शहर डूब जाएं तो बात समझ में आती है। मान लिया जाता है ​िक प्रकृति पर ​​किसी का वश नहीं है, लेकिन अब कुछ घंटों की बारिश में दिल्ली ही नहीं बल्कि उससे जुड़े गुरुग्राम, फरीदाबाद आैर अन्य उपनगर भी डूब जाते हैं। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारतीय शहरों की भी इसी तरह की दशा है। हम भले ही यह कहें कि वर्षा मूसलाधार हुई है, परन्तु यह भी सच्चाई है कि शहर प्रकृति के कारण नहीं मानव द्वारा प्रकृति से खिलवाड़ के कारण डूब रहे हैं। पहले तो हम डूब चुके हैं, शहर तो अब डूबे हैं। वर्षा तो पहले भी होती थी। सात-सात दिन लगातार वर्षा होती थी। जब भी मानसून के दिनों में वर्षा शुरू होती थी तो लोगों के मुंह से यही शब्द सुनने को मिलते थे-‘शनि की झड़ी टूटे न लड़ी।’ लेकिन तब शहर शोकांतिका में नहीं डूबते थे। वर्षा खत्म होते ही जनजीवन सामान्य हो जाता था। ऐसी स्थिती के लिए हम हर साल व्यवस्था को कोसते हैं, ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? सरकार प्रशासन आैर स्थानीय निकाय। वर्षा जनित हादसों में अनेक लोगों की मौत हो जाती है, हर साल वर्षा को लेकर सियासत भी होती है।
वास्तव में हम तय नहीं कर पा रहे कि विकास का एक तरीका होता है लेकिन हम वर्षों से अनियोजित विकास कर रहे हैं। यह विकास अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता और जीवन की जड़ों से कट कर किया है। शहरों में आबादी का दबाव काफी बढ़ गया है, ड्रेनेज सिस्टम काफी पुराना है, वह बोझ सहने को तैयार नहीं। नई सड़कें भी बनीं, शहरों में फ्लाईओवरों का जाल बिछाया गया। आप दिल्ली को ही देख लीजिए आज फ्लाईओवरों के दोनों तरफ वर्षा के दौरान पानी भर जाता है। अंडरपास भी पानी में डूब जाते हैं। दीनदयाल उपाध्याय मार्ग से ​िमंटो ब्रिज तक की सड़क ऐसी है, जिसकी तस्वीर हर मानसून में हम अखबारों आैर टीवी चैनलों पर देखते हैं, जहां दशकों से पानी भरता है, लेकिन अब ऐसे कई अन्य मंजर देखने को मिलते हैं। हाइवे भी बहुत बने, शहरों के बीच की दूरी भी काफी कम हो गई। परन्तु हाइवे को बनाने में खाली जगहों पर कई टन मिट्टी डाल कर बहुत सारी लेन वाली सड़कें हमने तैयार कर दीं। वर्षा का पानी निकालने की जगह तो हमने खुद ही कम कर दी। कभी शहरों और गांवों में बड़े-बड़े तालाब, पोखर और  कुएं होते थे और वर्षा का पानी इनमें धीरे-धीरे समा जाता था। जिससे भूजल का स्तर बढ़ता जाता था। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उनके तट पर मानव जीवन फलता-फूलता रहा लेकिन कई दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदियों की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वहीं बस गई। दिल्ली में यमुना नदी का कैचमैंट एरिया कभी काफी विस्तृत था, लेकिन कालोनियां बसती गईं। जब यमुना उफान पर होती है तो आबादी को खतरा पैदा हो जाता है। दिल्ली, मुम्बई, गुरुग्राम, कोलकाता, पटना में जल निकासी की व्यवस्था है ही नहीं। महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण है। हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पाए। लाख प्रयासों के बावजूद हम पॉलीथीन और नष्ट न होने वाली चीजों का इस्तेमाल करने से रुक नहीं रहे हैं।
कोरोना से बचने के लिए इस्तेमाल किए गए मास्क वर्षा के पानी में साफ बहते दिखाई दे रहे हैं। लोगों को कोई परवाह ही नहीं की फिर से संक्रमण फैला तो स्थिति भयानक होगी। विकास के लिए हमने सिंगापुर की नकल तो मार ली, शहरों को पैरिस बनाने का वादा भी किया। मगर हमने अक्ल से काम नहीं लिया। अगर फ्लाईओवरों के दोनों किनारे, अंडरपास पानी से भर जाते हैं तो इनमें डिजाइन में कमी को तलाश करना होगा। शहरी नियोजनकर्ताओं को जान लेना चाहिए ​की भविष्य की योजनाएं समझदारी से बनाएं और जल निकासी व्यवस्था को सुदृढ़ बनाएं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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