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दुर्गा पूजा और मोहर्रम

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पश्चिम बंगाल की धरती को यदि हिन्दू-मुसलमान के नाम पर देखने की गलती की जाती है तो इससे बड़ी भूल कोई दूसरी नहीं हो सकती। साम्प्रदायिक हिंसा के लिए इस भूमि पर कोई स्थान नहीं रहा है। बेशक 1947 में पूर्वी बंगाल को भारत के बंटवारे के समय पाकिस्तान का हिस्सा बना दिया गया था मगर इसके 25 वर्ष बाद ही यह हिस्सा पाकिस्तान से अलग हो गया और बंगलादेश कहलाया। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि इस राज्य को इसकी बांग्ला भाषा इतनी कसकर बांधे हुए हैं कि मजहब की विभिन्नता उसमें समा जाती है। यह महान बांग्ला भाषा ही है जो इस राज्य के हिन्दू-मुसलमान नागरिकों को हमेशा से गले लगाकर रखती है। अत: राज्य की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी ने दुर्गा पूजा और मोहर्रम के आगे-पीछे पड़ जाने पर जो बीच का रास्ता निकाला उसका आंखें मूंद कर केवल इसलिए विरोध नहीं किया जाना चाहिए कि उन्होंने दशहरे से अगले दिन मूर्ति विसर्जन पर प्रतिबन्ध लगा कर मोहर्रम के ताजिये निकालने की अनुमति दे दी।

भारत ऐसा विलक्षण देश है जिसमें मोहर्रम पर ‘हुसैनी ब्राह्मण’ भी अपने अलग से ‘ताजिये’ निकालते हैं। ये सभी हिन्दू धर्म को मानने वाले हैं मगर इनका इतिहास है कि इनके पूर्वज राहिल कुमार दत्ता ने 1400 साल पहले ‘मुकद्दस कर्बला’ के युद्ध में हजरत इमाम हुसैन के साथ लड़ाई लड़ी थी। इसी वजह से ये खुद को हुसैनी ब्राह्मण कहते हैं। भारत की इस अप्रतिम विविधता का जश्न मनाये जाने की जरूरत है न कि इस पर विवाद खड़ा करने की, इसी प्रकार हरियाणा के मेव इलाके में मुसलमानों के एक वर्ग में विवाह की रस्म हिन्दू-रीति के अनुसार जन्मपत्री मिलवा कर की जाती है। पूरी दुनिया में भारत एकमात्र ऐसा देश होगा जिसमें साम्प्रदायिक सौहार्द की ये रवायतें चली आ रही हैं। हमें तो इन रस्मों पर गर्व होना चाहिए और पूरी दुनिया को बताना चाहिए कि हमारी धर्म निरपेक्षता कोरी कागजी नहीं है बल्कि जमीन पर उतर कर अपनी पहचान साबित करती है। ममता के फैसले को मुस्लिम तुष्टीकरण की नजर से देखना गलता होगा क्योंकि इसमें मुसलमानों को कहीं कोई रियायत नहीं दी गई है बल्कि केवल इतना किया गया है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही अपने त्यौहारों को सम्मानपूर्वक मना सकें। दुर्गा पूजा होने पर विजय दशमी के दिन से दुर्गा मां की मूर्तियों का विसर्जन शुरू हो जाता है और इसके बाद दो-तीन दिन तक चलता रहता है। दुर्गा पूजा में कहीं कोई व्यवधान नहीं है। नवदुर्गा के सभी 9 दिन तक यह त्यौहार बंगाली नागरिक पूरे हर्षोल्लास के साथ मनायेंगे। इसके दो दिन बाद मोहर्रम आने पर मुसलमानों का भी अधिकार है कि वे अपना त्यौहार अपने रीति-रिवाजों के अनुसार मनायें।

राज्य की साम्प्रदायिक स्थिति को देखते हुए अगर सरकार ने यह फैसला एहतियात के तौर पर लिया है तो इसमें किसी को भी एतराज नहीं होना चाहिए। यह तथ्य है कि ममता दीदी इस्लामी शिक्षा में एमए पास भी हैं और वह इस धर्म की ‘दीनी रवायतों’ से अच्छी तरह वाकिफ भी हैं। वह एक बंगाली ब्राह्मण भी हैं और इस धर्म की शिक्षा से भी भली-भांति परिचित हैं। इसके साथ वह राज्य की मुख्यमन्त्री भी हैं अत: किसी भी प्रकार की आशंका से निपटने के लिए यथोचित कदम उठाना उनका ‘राजधर्म’ बनता है क्योंकि कट्टरपंथी दोनों ही समुदायों में हैं। इन कट्टरपंथियों के लिए मूर्ति विसर्जन और ताजियों के निकलने के मार्ग आपस में मिल जाने पर साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करना आसान हो सकता था अत: उसे टालने के लिए शासन यदि सावधानीपूर्वक ऐसे कदम उठाता है जिसमें किसी भी वर्ग के आम लोगों को एतराज न हो तो उसका विरोध क्यों और किसलिए किया जाना चाहिए? क्या ममता दीदी को भी हरियाणा की तरह इसके धू-धूकर जलने तक इन्तजार करना चाहिए। यह हमेशा ध्यान रखा जाना चाहिए कि ममता बनर्जी आम जनता के बीच से उठकर जन नेता बनी हैं और वह जानती हैं कि जमीन पर राजनीति किस तरह की जाती है और किस तरह राजनैतिक दल अपनी राजनीति चमकाते हैं। इस राज्य को वामपंथियों के मुंह से छीनना कोई आसान काम नहीं था क्योंकि यहां कि जनता मूल रूप से क्रान्तिकारी आधुनिक विचारों की है जिसकी झलक दुर्गा पूजा के त्यौहार तक में देखी जाती है।

इस त्यौहार में मुसलमान नागरिक भी जम कर हिस्सा लेते हैं। इस इतिहास को भी ध्यान में रखना चाहिए कि 1905 में ब्रिटिशकाल में संयुक्त बंगाल को दो टुकड़ों में बांट दिया गया था मगर यह बामुश्किल 6 साल ही चल पाया था और उसके बाद पुन: बंगाल एक हो गया था। मगर अंग्रेजों ने जिस तरह हिन्दू-मुसलमानों को बांटने की नीति पर चलना शुरू किया उसने पूर्वी बंगाल को भारत से अलग कर डाला लेकिन इतिहास ने इसे भी गलत साबित करते हुए बंगलादेश का निर्माण करा डाला। बंगाल और बांग्ला भाषा की यह अजीम ताकत है। इसे पहचानने की कोशिश की जानी चाहिए। यह प. बंगाल ही है जहां के ‘बाऊल’ संगीत पर तुर्की के रूहानी फकीरी सम्प्रदाय का असर है। यह उन चैतन्य महाप्रभु की धरती है जिनके स्वागत में इस्लाम को मानने वाले लोग भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ते थे। यह वह धरती है जिसकी हरी-भरी फिजाओं पर मिर्जा गालिब भी फिदा हो गये थे। पर्यावरण संरक्षण ने इसी धरती से विस्तार लिया और जगदीश चन्द्र बसु जैसे वैज्ञानिक पैदा हुए जिन्होंने सिद्ध किया कि पेड़-पौधों में भी जान होती है। यह बेवजह नहीं है कि पश्चिम बंगाल के जंगलों में जब कोई मुसलमान मजदूर वन सम्पदा को एकत्र करने जाता है तो प्रवेश करने से पहले ‘वन देवी’ की पूजा करता है।

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