मुजफ्फरपुर में दिमागी बुखार से बच्चों की मौत का आंकड़ा हर रोज बढ़ रहा है। बच्चे हंसते-खेलते आते हैं और मर कर जा रहे हैं। अभिभावक बिलखते हुये गुहार लगाते दिखाई दे रहे हैं- भगवान के लिये मेरे बच्चे को बचा लीजिए, कुछ करिये लेकिन व्यवस्था बेबस है, डाक्टर मौन हैं। दूसरी तरफ बिहार में लू से मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। अस्पतालों में बैड की कमी, बिना प्रशिक्षण वाला स्टाफ और फंड की कमी, ऐसी कई समस्याओं से जूझने वाला स्वास्थ्य क्षेत्र किस दलदल में फंस चुका है, इसकी तस्वीर मुजफ्फरपुर में सामने आ चुकी है।
हर एक घण्टे में किसी न किसी वार्ड से दिल दहला देने वाला क्रन्दन सुनाई देता है लेकिन सिस्टम बेबस है। मुजफ्फपुर हमेशा मौतों का चश्मदीद रहा है। चमकी बुखार हर साल आता है और बच्चों को निगल लेता है। चमकी बुखार ही क्यों इससे पहले भी यहां कई बीमारियों से बच्चाें ने दम तोड़ा है। राजनीतिज्ञों के लिये महज यह एक घटना मात्र है। बीमारी की समीक्षा करते वक्त बिहार के स्वास्थ्य मंत्री तो भारत-पाक क्रिकेट मैच का स्कोर पूछते रहे। जिस मां की गोद सूनी हुई, उस पर क्या गुजरती है, इसका किसी को अहसास नहीं। तमाम उम्र उनकी आंखों में आंसू ही रहेंगे। अब तो डाक्टरों ने भी असहाय होकर कहना शुरू कर दिया है कि सूर्य का तापमान कम होने पर ही बीमारी का प्रकोप कम होगा।
हमने तूफानों का सामना करना सीख लिया। हमने चक्रवातों से जूझना सीख लिया। लोगों की जिंदगियां बचाने के लिये आपदा प्रबन्धन करना सीख लिया मगर अफसोस हमने महामारियों से निपटना नहीं सीखा। भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था कई गंभीर मानकों पर विफल साबित हो रही है। इसी बीमारी से मुजफ्फरपुर में 1991 और 2014 में काफी मौतें हुई थीं। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और पश्चिम बंगाल के मालदा में भी ऐसे ही मामले सामने आते रहे हैं। सवाल यह है कि जब हर वर्ष जापानी बुखार, दिमागी बुखार फैलता है तो स्थाई समाधान क्यों नहीं ढूंढा जाता।
चमकी नाम तो स्थानीय लोगों ने दिया है। मेडिकल जगत में इस बीमारी को ए.ई.एस. यानी एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम कहा जाता है। यह रोग पिछले दो दशकों से ज्यादा समय से है। हालांकि अब तक इसके ठोस कारणों का पता नहीं चल पाया है। नेशनल सेंटर फार डिसीज कंट्रोल इंडिया, नेशनल सेंटर फार एनवायरमेंटल हैल्थ और यू.एस. फार डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के शोधकर्ताओं ने 2014 में इस बीमारी पर शोध किया था। वर्ष 2017 में इस अध्ययन की रिपोर्ट प्रकाशित भी हुई थी जिसके अनुसार एक्यूट इंसेफेलाइटिस का प्रकोप एमसीपीजी की विषाक्तता से जुड़ा है। इस विषाक्तता का सम्बन्ध लीची खाने से है। इसका प्रभाव तब और बढ़ जाता है जब इस बीमारी के शिकार बच्चे ने रात का भोजन नहीं किया हो। इसका अर्थ यही है कि कुपोषण से प्रभावित बच्चों में ए.ई.एस. की संभावना अधिक रहती है।
सवाल यह है कि क्या बीमारी से पीडि़त बच्चे कुपोषित हैं। मां-बाप अपने बच्चों को रात का खाना देने में सक्षम नहीं हैं या फिर उनमें जागरूकता का अभाव है। यह भी पाया गया है कि मुजफ्फरपुर का एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम बाकी जगहों के जापानी इंसेफेलाइटिस से अलग है। कुछ शोधों में लू लगने और नमी की कमी को भी इस बीमारी के लिये जिम्मेदार माना गया है। आंकड़े बताते हैं कि देश में एक तिहाई यानि 4.66 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं। बिहार में तो कुपोषित बच्चों की संख्या काफी ज्यादा है जबकि उत्तर प्रदेश का स्थान दूसरे नम्बर पर है। अगर व्यवस्थायें दुरुस्त होतीं तो शायद बच्चों की जान बच सकती थी। बच्चों की मौत का कारण गरीबी है। लोग गरीब हों तो सिस्टम कुछ काम नहीं करता।
सवाल यह है कि राज्य में नीतीश कुमार की सरकार है। उनके शासनकाल में अस्पताल में बैड बढ़ाने की जरूरत ही नहीं समझी गई। जब पानी सिर से ऊपर से निकल गया तो मुख्यमंत्री मुजफ्फरपुर पहुंच गये। इस बात पर भी नजर डाली जानी चाहिये कि पिछले 5 वर्ष में सुशासन बाबू की सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र के लिये क्या किया? बिहार अपने बजट का 4.4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है। 18 राज्यों के औसत खर्च से भी यह काफी कम है। बिहार में 17 हजार से अधिक लोगों पर एक ही डाक्टर है। ऐसे में स्थिति क्या है, किसी से छिपी हुई नहीं है। सरकार, प्रशासन और दूसरे जिम्मेदार लोगों ने बच्चों को बचाने के लिये समय रहते कुछ नहीं किया।
कहां हैं आंगनबाड़ी कार्यकर्ता जो लोगों को जागरूक करते कि बच्चों को रात को खाना खिलाया जाये। कहां है सरकार का प्रचार तन्त्र जो लोगों को पहले से ही अलर्ट करता। ऐसा लगता है कि सिस्टम लाचार हो चुका है। क्या हर बार सब कुछ वर्षा के भरोसे छोड़ा जा सकता है कि वर्षा आयेगी, मौसम करवट लेगा, तापमान घटने से बीमारी का प्रकोप कम होगा, फिर सब कुछ शांत हो जायेगा। हम अगले वर्ष इन्हीं महीनों में फिर मौत के तांडव का इंतजार करेंगे?