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अर्थतंत्र और उत्सव मंत्र

उत्सवों के सीजन में हर कोई उम्मीद लगाए रहता है कि उसकी जेब में पैसा आएगा। दुकानदार सोचता है कि उसकी बिक्री अच्छी खासी होगी।

उत्सवों के सीजन में हर कोई उम्मीद लगाए रहता है कि उसकी जेब में पैसा आएगा। दुकानदार सोचता है कि उसकी बिक्री अच्छी खासी होगी। नौकरीपेशा सोचता है कि उसे भी कुछ न कुछ मिलेगा। भारतीयों की धार्मिक आस्था बहुत मजबूत है, इसलिए वे त्यौहारों के दिनों में ही नया मोटरसाइकिल, स्कूटर और कार या मकान खरीदने में विश्वास रखते हैं लेकिन इस बार बाजार में मंदी का माहौल नजर आ रहा है। नवरात्र पर्व भी सम्पन्न होने को है। 
उत्सवों के सीजन में कम्पनियां अपना उत्पादन बढ़ाती हैं क्योंकि बाजार में मांग बढ़ती है लेकिन इस बार कम्पनियां उत्पादन नहीं बढ़ा रहीं क्योंकि मांग नहीं है। ऑटो सैक्टर से लेकर उपभोक्ता वस्तुओं तक की बिक्री लगातार कम हो रही है। रियल एस्टेट सैक्टर में कामकाज पूरी तरह ठप्प पड़ा हुआ है। बुनियादी उद्योगों के उत्पादन में साढ़े तीन साल की बड़ी गिरावट देखी गई। जीएसटी से राजस्व संग्रह कम हुआ। रिजर्व बैंक ने 2019-20 में आर्थिक वृद्धि दर का अनुमान 6.9 से घटाकर 6.1 फीसदी कर दिया। 
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में निर्यात, रियल एस्टेट से लेकर कार्पोरेट जगत के लिए कई घोषणाएं कीं जिससे साफ है कि सरकार अर्थव्यवस्था की सुस्ती को तोड़ने के लिए फायर फाइटिंग मोड में है। बजट में सुपर रिच टैक्स जैसे प्रावधानों से शेयर बाजार गिरने लगा था। रियल एस्टेट और निर्यात सैक्टर के लिए प्रोत्साहन पैकेज दिया गया। अमीरों पर सुपर रिच टैक्स घटाने की घोषणा के बाद उससे एक दिन शेयर बाजार गुलजार जरूर हुआ लेकिन बाद में लगातार नुक्सान हुआ। वर्तमान दौर में भारत की मंदी के कई और भी कारण हैं क्योंकि उपभोक्ताओं की जेब में पैसा नहीं। कार्पोरेट टैक्स कम करके कम्पनियों को तो राहत दी लेकिन उपभोक्ताओं को नहीं। 
जिनके पास धन है वह भी डिजिटलाइजेशन के दौर में कुछ भी करने से हिचकिचा रहे हैं। डिजिटलाइजेशन के दौर में सब कुछ पारदर्शी हो गया और कालेधन पर काफी हद तक अंकुश लगा है। पहले ​रियल एस्टेट सैक्टर से लेकर हर क्षेत्र में कालेधन का बोलबाला था। कालेधन से धन का प्रवाह बढ़ता है। अब क्योंकि  कालेधन पर रोक लगी तो फिर धन का प्रवाह ही खत्म हो गया है। ऐसी व्यवस्था कुछ देर के लिए तकलीफदेह हो सकती है लेकिन दीर्घकाल के लिए अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करती है। भारतीय रिजर्व बैंक ने एक बार ​िफर नीतिगत दरों में कटौती की है। आरबीआई का यह कदम दर्शाता है कि बाजार की हालत अच्छी नहीं। 
रिजर्व बैंक ने लगातार 5वीं बार नीतिगत दरों में कटौती की थी लेकिन आज तक कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला। होम और आटो लोन सस्ते होने से हर बार उम्मीद लगाई गई कि लोग कर्ज लेंगे तो उद्योगों को लाभ होगा। रियल एस्टेट को भी फायदा होगा। सरकार का अर्थतंत्र उत्सवों की मांग पर केन्द्रित हो गया है। अर्थव्यवस्था के दूसरे ऐसे कई क्षेत्र हैं, जो मंदी के कारणों में शामिल हैं, लेकिन उनकी तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा। पूर्व में भी हमने देखा कि रिजर्व बैंक ने तो नीतिगत दरें कम  कीं लेकिन बैंकों ने ब्याज दरों में कटाैती नहीं की। बैंक इतने आतंकित हो चुके हैं कि उन्हें हर वक्त डर सता रहा है कि कहीं उनका धन लुट न जाए। 
पंजाब एंड महाराष्ट्र सहकारी बैंक के घोटाले ने भी एक बार फिर बैंकिंग सैक्टर और आम लोगों में खौफ पैदा कर दिया है। बैंकिंग सैक्टर पर लोगों का भरोसा कम हो रहा है। लोग बैंकों में अपना धन जमा कराने को लेकर सशंकित हो उठे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की मजदूरी नहीं बढ़ी है। असंगठित क्षेत्र के श्रमिक काम धंधा नहीं मिलने से परेशान हैं। आटो-मोबाइल सैक्टर में बेरोजगारी की स्थिति स्पष्ट हो चुकी है। छोटे कारोबारियों के पास नगदी नहीं है, इसलिए उन्होंने अपने कारीगर घटा दिए हैं। अर्थ विशेषज्ञों का कहना है कि छोटे कारोबारियों के पास ऐसी धनराशि होती थी जो कारोबार में लगी रहती थी जो मांग के अनुसार ज्यादा उत्पादन कर लेते थे। 
यह भी मानकर चलना चाहिए था कि कारोबार में लगा पूरा धन काला नहीं है लेकिन सरकार के सख्त कदमों से नगदी का प्रवाह ही टूट गया। सरकार कार्पोरेट सैक्टर के टैक्स कम करने की बजाय अन्य चीजों पर जीएसटी घटाती तो कीमतें घटतीं और लोग बाजार की तरफ आकर्षित होते। मध्यम वर्ग और नौकरी पेशा लोग कुछ खर्च बढ़ाते। जब तक आम आदमी की जेब में पैसा नहीं आता तब तक मांग नहीं बढ़ेगी। आरबीआई द्वारा उठाए गए कदमों का असर भी रातोंरात दिखाई नहीं देता, इसके लिए हमें इंतजार करना होगा। देखना होगा कि कम्पनियों के वित्तीय परिणाम क्या रहते हैं और क्या कम्पनियां अपना कुछ लाभ उपभोक्ताओं को हस्तांतरित करती हैं या नहीं।

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