अब इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है कि कोरोना वायरस का प्रकोप भारतीय अर्थव्यवस्था पर कहर बरपा सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी ‘मूडी’ ने चालू वर्ष 2020 में भारत की विकास वृद्धि दर 5.3 प्रतिशत से गिर कर केवल 2.5 (ढाई) प्रतिशत रहने की भविष्यवाणी की है जबकि हमारे रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्ति कान्त दास ने भी कल वित्तीय मोर्चे पर कई राहत भरे कदमों की घोषणा करते हुए स्वीकार किया था कि वर्तमान वित्त वर्ष की पहले से ही कमजोर पूर्व अपेक्षित वृद्धि दर पांच प्रतिशत से और नीचे गिर सकती है। इसके साथ ही विश्व मुद्रा कोष (इंटरनैशनल मोनेटरी फंड) की अध्यक्ष क्रिस्टलीना ज्योरजीवा ने चेतावनी फैंक दी है कि विश्व की अर्थव्यवस्था कोरोना की वजह से मन्दी में प्रवेश कर चुकी है।
भारत जैसे तेजी से विकास करने वाले देश के लिए ये संकेत जाहिर तौर पर अमंगलकारी कहे जा सकते हैं। विकास वृद्धि दर पहले से ही भारत में दबाव में है क्योंकि समाप्त होने वाले वित्त वर्ष की अन्तिम तिमाही में यह दर 4.7 प्रतिशत आंकी गई है। विकास वृद्धि दर का सीधा सम्बन्ध आम आदमी से होता है। इसमें रोजगार के अवसरों से लेकर औद्योगिक क्षेत्र की क्षमताएं व घरेलू व्यापार से लेकर आयात-निर्यात कारोबार की संभावनाएं छिपी रहती हैं। ऐसा नहीं है कि भारत के आर्थिक विशेषज्ञ इस आशंका से खबरदार नहीं हैं और इससे निपटने की तैयारियां नहीं कर रहे हैं।
वित्तमन्त्री निर्मला सीतारमन द्वारा घऱेलू स्तर पर दिया गया एक लाख 70 हजार करोड़ का ‘मदद पैकेज’ और रिजर्व बैंक का ‘वित्तीय पैकेज’ इसी ओर इशारा करता है परन्तु सवाल यह खड़ा हो सकता है कि क्या यह पर्याप्त है। विश्व आर्थिक मन्दी को रोकने का हमारे सामने ही एक ताजा उदाहरण 2008-09 का है। 26 नवम्बर, 2008 को जब मुम्बई पर पाकिस्तानी आतंकवादी हमला होने के बाद तत्कालीन मनमोहन सरकार में गृहमन्त्री शिवराज पािटल का इस्तीफा लेकर श्री पी. चिदम्बरम को गृहमन्त्री बनाया गया था और पूर्व राष्ट्रपति ‘भारत रत्न’ श्री प्रणव मुखर्जी को विदेश मन्त्रालय से हटा कर वित्तमन्त्री बनाया गया था तो देश में इस मन्दी की मार का तूफान उठा हुआ था। कल-कारखानों में उत्पादन घट रहा था।
निर्यात कारोबार थम सा गया था, बाजार में सभी प्रकार के उत्पादों के भंडार भरे पड़े थे जबकि खरीदारी लगातार घट रही थी। यह विकट स्थिति थी जो प्रणव दा को परेशान कर रही थी। हद यह हो गई थी कि विभिन्न कम्पनियों ने अपने कर्मचारियों की छंटनी करनी शुरू कर दी थी। सर्वत्र नौकरी का संकट मंडराने लगा था और साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़े व्यापारिक बैंकों के कंगाल होने की खबरें आने लगी थीं। अमेरिका समेत यूरोपीय देशों के महारथी बैंक रोकड़ा से खाली हो रहे थे मगर प्रणव दा एेेसे वित्तमन्त्री थे जिन्होंने संसद में ही घोषणा की थी कि भारत को अब विदेशी मदद की जरूरत नहीं है। ब्रिटेन से मिलने वाली ऋण मदद को उन्होंने अनावश्यक बताया था।
तब प्रणव दा ने लोकसभा में सिंहनाद करते हुए कहा था कि इस वैश्विक मन्दी को भारत अपने बूते पर मात देने की कूव्वत रखता है। उनकी इस प्रबल इच्छा शक्ति ने भारत के वित्तीय व औद्योिगक क्षेत्र में आत्मविश्वास की लहर पैदा कर दी। प्रणव दा ने चेतावनीपूर्ण एेेलान किया कि नौकरी किसी की भी नहीं जानी चाहिए, बेशक ऊंचे पदों पर कार्यरत लोगों के वेतन में कुछ कटौती की जा सकती है मगर निचले स्तर पर प्रत्येक कर्मचारी का रोजगार बरकरार रहेगा। इससे पहले उन्होंने कार्पोरेट क्षेत्र को कुछ शुल्क रियायतें दे दी थी जिससे उन्हें उत्पादन घटाने के बारे में न सोचना पड़े। इसके साथ ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाये रखने के लिए उन्होंने किसानों से लेकर मजदूरों और छोटे उद्योगों को मदद देने का काम किया जिससे घरेलू बाजार में रोकड़ा की किल्लत न हो सके और खरीदारी में उठान हो।
साथ ही उन्होंने चुनौती दी कि भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से किसी प्रकार की रियायत न ली जाये और इन्हें प्रतियोगी माहौल में निजी बैंकों के साथ कारोबारी प्रतिस्पर्धा करने के लिए पूर्ण स्वतन्त्र रखा जाये। हालांकि प्रणव दा ने संसद में ही साफ किया था कि बैंकों का कामकाज रिजर्व बैंक के अन्तर्गत आता है जो पूर्ण रूपेण स्वतन्त्र और स्वायत्तशासी संस्थान है। रिजर्व बैंक की तरफ से भी अलग से विश्व मन्दी पर पार पाने के लिए कई कदम उठाये गये।
हमारे बैंक पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा मजबूत साबित हुए। विश्व मन्दी के दौर में अन्य विकसित देशों के बड़े-बड़े बैंकों के समान अपना धन निकालने वालों की यहां कहीं भी कतार नहीं लगी और न ही जमाकर्ताओं में घबराहट हुई। उस वर्ष जब अमेरिका जैसे देश की अर्थव्यवस्था लमलेट होकर एक प्रतिशत के करीब पहुंच गई तो भारत की विकास वृद्धि दर 6.7 प्रतिशत रही। यह सब घरेलू बाजार की मजबूती के भरोसे ही हुआ।
कहने का मतलब यह है कि संकट पर पार पाने के लिए सरकार के पास विचार-विमर्श की भरमार है। संकट पर पार पाने के लिए विपक्ष से लेकर अन्य विशेषज्ञों से सलाह मशविरा करके एक मुश्त निर्णायक कदम उठाये जा सकते हैं मगर सबसे ज्यादा जरूरी है कि कोरोना की वजह से न तो किसी मजदूर का ‘ठीया’ जाये और न किसी कर्मचारी की नौकरी। इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में रोकड़ा की कमी न होने पाये जिससे बाजार से माल का उठान जारी रहे। अंग्रेजी में जिसे बैकवर्ड और फारवर्ड इंटीग्रेशन (पूर्व व भविष्य का वित्तीय समन्वय) कहा जाता है उस तरफ सावधानी से बढ़ा जाये। हम अपने दम पर ऐसा कर सकते हैं यह 2009 में भारत रत्न प्रणव दा ने करके दिखाया था और एक भी छोटे कर्मचारी की नौकरी नहीं जाने दी थी।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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