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शिक्षा की फैक्ट्रियां

भारत में उच्च शिक्षा किसी के भी जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जो छात्रों को किसी भी चीज के संबंध में अधिक जानने, अपनी रुचि के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिये जरूरी है।

भारत में उच्च शिक्षा किसी के भी जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जो छात्रों  को किसी भी चीज के संबंध में अधिक जानने, अपनी रुचि के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिये जरूरी है। भारत की शिक्षा प्रणाली सबसे पुरानी है और इसे दुनिया में सबसे अग्रणी माना जाता है। लेकिन वर्तमान समय में भारत में उच्च शिक्षा प्रणाली के अच्छे, बुरे और सुधार तथा आम पहलुओं पर ध्यान देने की बहुत जरूरत है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले पांच दशकों में देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काफी विस्तार हुआ है। स्वतंत्रता के समय देश में केवल तीन विश्वविद्यालय थे, वहीं अब विश्वविद्यालयों की संख्या 250 से अधिक है। कालेजों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। विकास के साथ-साथ शिक्षा का निजीकरण भी तेजी के साथ हुआ है। जो छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल हो जाते हैं और उन्हें फिर किसी व्यावसायिक या अन्य पाठ्यक्रम में प्रवेश नहीं मिल पाता, तब वह अधिक धन खर्च करके निजी कालेजों में प्रवेश ले लेते हैं।
उच्च शिक्षा की चुनौतियों का उल्लेख करते हुए भारत के प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमण ने शिक्षा का ऐसा माडल विकसित करने पर जोर दिया जो छात्रों को वास्तविक जीवन की चुनौतियों का सामना करना सिखाए। उन्होंने इस बात पर अफसोस जताया कि कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते शिक्षा के कारखानों की बहुत से उच्च शिक्षा संस्थान सामाजिक प्रासंगिकता खो चुके हैं। दरअसल शिक्षा सामाजिक एकजुटता हासिल करने और आम नागरिकों को भी समाज का सार्थक सदस्य बनाने में सहायक होनी चाहिए। युवाओं को परिवर्तन का प्रबुद्ध वाहक बनना चाहिए, जिन्हें विकास के स्थाई माडल के बारे में सोचना चाहिए। जस्टिस रमा ने खेद व्यक्त किया कि व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का मुख्य केन्द्र बिन्दू औपनिवेशिक काल की तरह ही एक आज्ञाकारी कार्यबल तैयार करना रह गया है। व्यावसायिक विश्व- विद्यालयों का ध्यान कक्षा आधारित शिक्षण पर है, न कि बाहर की दुनिया पर आधारित। शिक्षा के कारखानों में तेजी से बढ़ौतरी हो रही है जो डिग्री और मानव संसाधनों के अवमूल्यन की ओर ले जा रहे हैं।
हम वैश्वीकरण के दौर में जी रहे हैं। वैश्वीकरण में निजीकरण की भूमिका निर्णायक है लेकिन निजी क्षेत्र में शिक्षा ने जनकल्याण से हाथ पूरी तरह खींच लिया है। दुनिया की सौ बेहतरीन संस्थाओं में भारत की एक भी संस्था का नाम नहीं। निजी विश्वविद्यालयों और कालेजों में कुछ परिवारों की ही पूंजी लगी होती है और उन के संचालन में जन तंत्र और जनहित की कोई भूमिका नहीं होती। निजी क्षेत्र वहीं धन का निवेश करता है जहां उसे लाभ दिखाई देता है। फीस इतनी ज्यादा होती है कि सामान्य नागरिक और निम्न मध्य वर्ग यानि देश के बहुमत की पहुंच के बाहर हो चुकी है। एक-एक सीट की कीमत पर्दे के पीछे तय होती है। इससे गरीब का बच्चा तो इनमें पढ़ने में असमर्थ होता है। समस्या यह भी है कि अमेरिका जैसे देश में निजी विश्वविद्यालयों के पास भारी अनुदान होता है। उदाहरण के लिए येल विश्वविद्यालय के पास 30 अरब से अधिक का अनुदान उपलब्ध है इसलिए वह छात्रों को रियायतें दे सकते हैं। भारत के विश्वविद्यालयों के पास ऐसा अनुदान उपलब्ध नहीं है। सरकार समर्थित संस्थाओं का अब कोई नामलेवा नहीं रहा। दाखिलों की समस्या नर्सरी एडमिशन से लेकर कॉलेजों तक बनी हुई है। कोई भी परीक्षा सही ढंग से आयोजित की ही नहीं जा रही। महामारी कोरोना से पार पाने के बाद बारहवीं की परीक्षा से छात्र गुजरे नहीं कि सीयूईटी की एक नई परीक्षा सामने आ गई। जब परीक्षा की तारीख आई और छात्र परीक्षा केन्द्र पहुंचे तब भी उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ा। कहीं सर्वर की समस्या रही। पेपर डाउनलोड करने में मुश्किलें आईं और सुरक्षा प्रोटोकॉल तो आफत बने हुए हैं। तकनीकी गड़बडि़यों के चलते कई सैंटरों की परीक्षाएं रद्द कर दी गई।
यूजीसी के चेयरमैन कह रहे हैं कि कहीं-कहीं जानबूझकर गड़बड़ियां किए जाने की भी शिकायतें मिली हैं। सच तो यह भी है कि इन परीक्षाओं के लिए जैसी तैयारियों की जरूरत थी वैसी तैयारियां नहीं की जा सकी अन्य संयुक्त परीक्षाओं में केवल तीन विषय होते हैं जबकि सीयूईटी यूजी में 61 विषयों की परीक्षा 13 भाषाओं में होती है। इसके लिए कहीं ज्यादा बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर और ज्यादा सक्षम सॉफ्टवेयर व्यवस्था की जरूरत थी। परीक्षा केन्द्र पर कहीं बच्चों के कपड़े उतरवाए गए तो कहीं बच्चों को पीने का पानी भी उपलब्ध नहीं हुआ। परीक्षा में गड़बड़ियों के चलते अब दाखिलों में भी देरी होना स्वाभाविक है। शिक्षा प्रणाली में बदलाव का समय है, लेकिन यह बदलाव जनता के हित में होना चाहिए। महंगाई के इस दौर में गरीब के घर में दो वक्त का भोजन ही बन जाए तो बहुत है। मध्यम वर्गीय परिवार तो बच्चों की फीस देने में ही थक जाते हैं। बेहतर यही होगा कि शिक्षा के कारखानों में सस्ती शिक्षा की व्यवस्था की जाए तथा मानविकी, प्राकृतिक विज्ञान और कौशल विकास जैसे विषयों पर ध्यान केन्द्रित किया जाए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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