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अंकों के जाल में शिक्षा

राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लेकर काफी चर्चा चल रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी किसी भी अन्य नीति की तरह सरकार की नहीं बल्कि देश की नीति है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है

राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लेकर काफी चर्चा चल रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी किसी भी अन्य नीति की तरह सरकार की नहीं बल्कि देश की नीति है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि तीन दशक से भी अधिक समय के अंतराल के बाद शिक्षा नीति में परिवर्तन हुआ। इस अवधि में देश और दुनिया में बड़े फेरबदल हो चुके हैं और भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए शैक्षणिक प्रणाली में बदलाव जरूरी था। प्रधानमंत्री ने 21वीं सदी में स्कूली शिक्षा विषय पर एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा कि एक टेस्ट, एक मार्क्सशीट बच्चों के सीखने की, उनके मानसिक विकास का मानक नहीं हो सकती। मार्क्सशीट मानसिक प्रेशर शीट बन चुकी है। जिस तरह की अंकों की स्पर्धा शुरू हो गई है, उससे छात्र मानसिक रूप से प्रताड़ित ही हो रहे हैं। कम नम्बर आने पर वे आत्महत्याएं करने लगते हैं। अभिभावक बच्चों पर इतना दबाव डाल देते हैं कि बस उन्हें तो अपना बच्चा सबसे आगे होना चाहिए और बड़ा होकर नोट उगलने वाला एटीएम बन जाए। समाज समझ ही नहीं पा रहा है कि उन्हें हंसता-खेलता बचपन चाहिए या बुझा हुआ बचपन। सभी बच्चों से एक ही सवाल पूछा जाता है कि कितने नम्बर आए हैं? अब छात्रों को केवल वही सामग्री चाहिए जिसमें वह अधिक से अधिक अंक प्राप्त कर सकें। अंकों की दौड़ में प्रतिभाएं पिछड़ भी रही हैं। परीक्षा में सफलता का आश्वासन देने वाली पुस्तकें भी बाजार में उपलब्ध हैं। यह भी अपनी किस्म का बाजार है। वर्तमान दौर में परीक्षा प्रणाली एक ऐसी प्रतियोगिता में बदल दिया गया है जिसका एक मात्र लक्ष्य केवल सफलता हासिल करना है। उस सफलता के लिए बच्चों को अंक केन्द्रित बना दिया है। वैसे भी आधुनिक विश्व की कार्यप्रणाली का एक भाग आंकड़ों (अंकों) पर केन्द्रित हो चुका है। ऐसे लगता है कि जैसे मनुष्य की सभी क्रियाओं को डिजिटल क्रांति ने अपने अधीनस्थ कर लिया है। परीक्षा में ज्यादा अंक लाने की प्रतियोगिता ने छात्रों में मित्रता की भावना ही समाप्त कर दी है। इस दौर में सबको न केवल सौ फीसदी अंक चाहिएं, बल्कि यह भी कि मेरे ही सर्वाधिक अंक आने चाहिएं, किसी और के नहीं। अंकों के आधार पर ही बच्चों की योग्यता, क्षमता और कौशल को आंका जाने लगा है। परिणाम यह हुआ कि बच्चों का जीवन एक कमोडिटी में बदल गया है। उसके जीवन का एक मात्र लक्ष्य बाजार में अच्छे पैकेज वाली नौकरी हासिल करना ही रह गया है। अंकों की होड़ में बच्चों की सृजनशीलता खत्म हो रही है। 
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति अगर अंकों की होड़ को खत्म कर सके तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। मगर देखना यह भी है कि शिक्षा में भी प्रतिस्पर्धा स्वस्थ होनी चाहिए। प्राथमिक शिक्षा पर कुछ समय पहले एक रिपोर्ट आई थी कि 57 फीसदी बच्चे साधारण जमा-भाग भी नहीं कर पाते, 40 फीसदी बच्चे अंग्रेजी के वाक्य नहीं पढ़ पाते। 76 फीसदी छात्र पैसों की गिनती नहीं कर पाते। 58 फीसदी अपने राज्य का नक्शा नहीं जानते, 14 फीसदी को देश के नक्शे की जानकारी नहीं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर शिक्षक स्कूलों में क्या कर रहे हैं? अगर बच्चे ठीक तरह से पढ़ नहीं पा रहे तो उनकी तार्किक क्षमता कैसे ​विकसित होगी। सवाल बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने का है।
एशिया में जापान और चीन जैसे देशों में अर्थव्यवस्था की मुख्य कड़ी कौशल पर आधारित शिक्षा ही है। इन देशों में इलैक्ट्रानिक उपकरणों की एसैम्बलिंग सीख कर छोटे इलैक्ट्रोनिक  उपकरणों का उत्पादन कर लोग आजीविका अर्जित कर रहे हैं। जबकि भारत में छात्रों को व्हाइट कॉलर जॉब के सपने दिखाए जाते हैं। कभी भी उनकी रुचि-अभिरुचि के बारे में पड़ताल नहीं की जाती। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पांचवीं तक की पढ़ाई हिन्दी में कराने पर बल दिया गया है। इसका अर्थ यही है कि अपनी भाषा में किसी भी पाठ्यक्रम को पढ़ना और समझना आसान होता है।
मगर विडम्बना यह है कि भारत में शिक्षा क्षेत्र को निजी क्षेत्र के लिए इतने बेतरतीब ढंग से खोला गया है कि इन शिक्षा संस्थानों की फीसें गरीब आदमी की पहुंच से बाहर है। एक तरफ सरकार सर्वशिक्षा अभियान, कन्या शिक्षा अभियान पर भारी धनराशि खर्च करती है, दूसरी तरफ गरीबों के बच्चों को निजी स्कूलों में दाखिला ही नहीं मिलता। शिक्षा के अधिकार का तब तक क्या अर्थ रह जाता है जब गरीब का बच्चा फटेहाल स्कूूल में पढ़ेगा और अमीर का बच्चा शानदार एयरकंडीशंड स्कूलों में पढ़ेगा। कौन सी समानता इन स्कूलों में पढ़े हुए बच्चों में होगी। एक के लिए प्रतिस्पर्धा का क्षेत्र खुला होगा और गरीब के बच्चों के लिए दरवाजे बंद ही रहेंगे। सभी स्कूलों में शिक्षा का स्तर समान होना चाहिए मगर भारत के ​किसी भी छोटे शहर या गांव के स्कूल में शिक्षा का स्तर क्या है, इसका अंदाजा हमें वहां जाकर आसानी से लग सकता है।
शिक्षा के बाजारीकरण ने ही अंकों की होड़ पैदा की है और मार्क्सशीट प्रेशर शीट बन चुकी है। महंगी शिक्षा गुणवत्ता की गारंटी हो गई है। क्या सिर्फ महंगे संस्थान सेशिक्षा  प्राप्त करते ही अच्छी नौकरी मिलती है या अच्छा व्यवसाय करने के काबिल बन जाते हैं? अगर ऐसा है तो फिर गरीब तबके के लोगों को कौन सी शिक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति की सफलता केवल सरकारों पर निर्भर नहीं करती बल्कि शिक्षाविदों द्वारा इसे सही ढंग से लागू करना बहुत जरूरी है। शिक्षा गुणवत्तापूर्ण कौशल और रोजगारोंमुखी होनी चाहिए। छात्रों के व्यावहारिक कौशल का मूल्यांकन होना चाहिए न की केवल अंक तालिका से।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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