कोराेना वायरस का संक्रमण रोकने के लिए किए गए लॉकडाउन से निकलने की योजनाओं पर काम हो रहा है। महामारी की रोकथाम के लिए तालाबंदी भी जरूरी थी लेकिन अगर इसको बहुत ज्यादा खींचा जाता है तो इसका असर हर क्षेत्र पर बहुत ज्यादा पड़ेगा। एक तरफ उद्योगों को फिर से गतिशील बनाने की चुनौती है क्योंकि उद्योगों का पहिया घूमेगा तो अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी और दूसरी तरफ कृषि सैक्टर को हरा-भरा बनाए रखने की भी बड़ी चुनौती है। तमाम बड़ी चुनौतियों के बीच देश के शिक्षा क्षेत्र को हुए नुक्सान की भरपाई का विषय भी कोई सहज नहीं है।
कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक सत्र 2020-21 को सितम्बर से शुरू करने की सिफारिश की गई है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा गठित सात सदस्यीय समिति ने परीक्षा से जुड़े मुद्दों और अकादमिक कैलेंडर को लेकर अपनी रिपोर्ट पेश कर दी है। कई राज्यों में पूर्व निर्धारित समय पर विश्वविद्यालयों की प्रवेश परीक्षाएं भी आयोजित नहीं करवाई जा सकती हैं। सिफारिशों के अनुसार ये परीक्षाएं जुलाई में आयोजित की जा सकती हैं। अगर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सिफारिशों पर सहमति बनती है तो केन्द्र सरकार को मेडिकल और तकनीकी क्षेत्र में प्रवेश प्रक्रिया की अंतिम तिथि बढ़ाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिए 15 अगस्त और मेडिकल परीक्षा के लिए 31 अगस्त की समय सीमा तय कर रखी है।
यूजीसी द्वारा ऑनलाइन शिक्षा पर गठित एक अन्य समिति ने विश्वविद्यालयों को विविधता, स्थानीय पर्यावरण, छात्रों की संरचना और शिक्षार्थियों की तैयारी, वर्तमान बुनियादी ढांचे और प्रौद्योगिकी सहायता को देखते हुए अनिवार्य रूप से ऑनलाइन परीक्षा आयोजित करने की सलाह दी है।
जहां तक स्कूलों का संबंध है, उनका शिक्षा सत्र भी छोटा ही रहेगा और उसी के हिसाब से पाठ्यक्रम तय किया जाएगा। वहीं घर बैठे बच्चों की आॅनलाइन पढ़ाई को और ज्यादा प्रमोट करने आैर सभी बच्चों तक पहुंचाने की कोेशिशें भी तेज हो रही हैं। सभी कक्षाओं के लिए ऐसे कोर्स तैयार किए जा रहे हैं जो पांच माह में पूरे हो सकें। जिस तरीके से स्कूलों में पढ़ाई का डेढ़ महीने से अधिक समय लॉकडाउन में ही बीतने वाला है और कोरोना को देखते हुए स्कूलों को खोलना काफी जोखिम भरा हो सकता है। मानव संसाधन मंत्रालय की योजना 15 मई के आसपास शुरू होने वाली गर्मियों की छुट्टियों में किसी तरह की कटौती न करते हुए उसे जारी रखने की है। स्कूल जून के अंत में या जुलाई के शुरू में खुलने पर ही कोई फैसला लिया जा सकता है। फिर भी सब कुछ कोरोना की स्थिति पर निर्भर करेगा। स्थिति काबू में आ जाती है तो स्कूल सामान्य ढंग से खोले जा सकते हैं।
कालेज, विश्वविद्यालय और दसवीं-बारहवीं कक्षा के छात्र तो सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क पहनने और स्वच्छता का ध्यान रख सकते हैं लेकिन समस्या तो पहली कक्षा से लेकर नौवीं कक्षा तक के छात्रों की है। प्राइमरी तक के बच्चों को नियमों का पालन कराना कोई आसान बात नहीं। प्राइमरी स्कूलों में सुविधाओं का तो पहले से अभाव है। एक ही कक्षा में 40-40 बच्चे बैठते हैं, ऐसे में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कैसे होगा। अभिभावक पहले से ही महामारी से उत्पन्न हालातों के चलते काफी हताश हो चुके हैं, उन्हें अपने बच्चों की चिंता लगी रहती है।
ऐसी स्थिति में हो सकता है कि अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजें ही नहीं। स्कूलों की िदनचर्या को सामान्य बनाने में भी काफी लम्बा समय लगेगा। यद्यपि मानव संसाधन मंत्रालय ने छठी से लेकर आठवीं तक के छात्रों के लिए वैकल्पिक अकादमिक कैलेंडर जारी किया है। इसके तहत टीचर्स और पेरेंट्स दोनों को टैक्नोलोजी का इस्तेमाल कर बच्चों को पढ़ाने के लिए टिप्स दिए गए हैं। शिक्षित अभिभावक तो अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए टेक्नोलोजी का इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन सबसे बड़ी मार तो गरीब परिवारों पर पड़ रही है। जो अभिभावक घरों में खाली बैठे हैं जिन्हें भोजन लेने के लिए लम्बी कतारों में लगना पड़ता है, उनके बच्चे भी रात के भोजन की व्यवस्था करने के लिए शाम को ही कतार में आकर बैठ जाते हैं, उनके बच्चों को कौन पढ़ाएगा? उन्हें कोई गूगल मेल ज्ञान नहीं दिया जा सकता। गरीबों के बच्चों काे पढ़ाने का काम अंततः गुरुओं यानी शिक्षकों को ही करना है। देशभर में ऐसे बच्चों को पढ़ाने का काम शिक्षाविदों और शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय संगठनों को करना होगा। शिक्षा की अलख जगाने के लिए देश को एक बड़ी भूमिका के लिए तैयार रहना चाहिए। एक बार शिक्षा में पिछड़े तो िफर आगे बढ़ना मुश्किल हो जाएगा। अगर महामारी जल्दी नहीं रुकी तो शिक्षा का क्षेत्र असहाय होकर रह जाएगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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