स्वतन्त्र भारत को बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने जो संविधान दिया उसमें प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली को चौखम्भा राज बताते हुए स्पष्ट किया कि विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और चुनाव आयोग इसके चार खम्भे होंगे जो एक-दूसरे से स्वतन्त्र रहते हुए अपने अधिकारों की सीमा में इस प्रकार काम करेंगे कि लोगों द्वारा बहुमत से चुनी गई सरकार इसी संविधान की सत्ता का प्रतिनिधित्व करे। इन चारों में से चुनाव आयोग पूरी प्रणाली की बुनियादी जमीन होगा जो तय करेगा कि प्रत्येक वयस्क नागरिक को मिला एक वोट का अधिकार बिना किसी डर या दबाव अथवा लालच के स्वतन्त्र और निर्भीक तरीके से प्रयोग हो जिससे उसकी इच्छा के अनुरूप बहुमत की सरकार गठित हो।
चुनाव आयोग की प्रमुख भूमिका निष्पक्ष व स्वतन्त्र मतदान की व्यवस्था काबिज करने की होगी और यह सीधे संविधान से अधिकार लेकर किसी भी सरकार के मातहत नहीं रहेगा। इसका संवैधानिक ढांचा संविधान से ही निर्दिष्ट होगा जिसमें सरकार की भूमिका केवल आवश्यक सुविधाएं सुलभ (फेसिलिटेटर) कराने की होगी। बाबा साहेब ने यह व्यवस्था भारत के लोकतन्त्र को शक्तिशाली बनाने की गरज से की थी और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का अधिकार संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति को दिया था, किन्तु कैसा संयोग है कि वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त श्री सुनील अरोड़ा स्वतन्त्र भारत के सबसे विवादास्पद चुनाव प्रमुख होने का तमगा लगाये बैठे हैं। चुनाव आयोग पर राजनीतिक दलों की व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त रखने की जिम्मेदारी भी होती है क्योंकि ये राजनीतिक दल ही लोकसभा में बहुमत पाने पर अपने लोक प्रतिनिधियों के माध्यम से देश की शासन प्रणाली को चलाते हैं।
सभी राजनैतिक दलों के लिए चुनाव में एक समान अवसर प्रदान करना चुनाव आयोग की संवैधानिक जिम्मेदारी होती है जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष की पार्टियों में आम मतदाता के सामने व्यवहार के स्तर पर कोई फर्क न रहे मगर सबसे बड़ी और मूलभूत जिम्मेदारी चुनाव आयोग की यह होती है कि वह आम मतदाता को निर्भय होकर मतदान करने का वातावरण प्रदान करे और आश्वस्त करे कि इसका मत पूरी तरह गोपनीय रहेगा। मत की यह गोपनीयता ही वोट के अधिकार की पवित्रता कही जाती है। इस पवित्रता को अक्षुण्य रखना चुनाव आयोग का दायित्व होता है जिसे बरकरार रखने के लिए संविधान में चुनाव के समय शासनाधिकार चुनाव आयोग को सौंप दिये जाते हैं, परन्तु हाल ही में जिस तरह चुनाव आयोग ने यह फैसला किया कि 65 वर्ष से अधिक आयु के बुजुर्गों को डाक द्वारा मतदान करने का अधिकार दिया जायेगा उससे मत की गोपनीयता और मतदाता की निर्भीकता प्रभावित होने के आसार बहुत ज्यादा हैं। 65 वर्ष के बुजुर्ग भारतीय समाज में अधिसंख्य अपने बाल- बच्चों पर आश्रित होते हैं। इसके साथ ही सत्तारूढ़ पार्टी के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव में आने की इन पर संभावना बहुत ज्यादा बढ़ सकती है जिससे इनकी इच्छा को छल-बल से प्रभावित किया जा सकता है। अपनी इच्छा के अनुसार अपना मत डालने का पवित्र अधिकार उम्र के आखिरी पड़ाव में आकर शंकाओं के घेरे में यदि घिरता है तो संविधान की वह भावना मरती है जो मतदाता को निडर, निर्भीक व अपनी मर्जी का मालिक बनाती है।
चुनाव आयोग को ऐसा फैसला लेने से पहले सम्पूर्ण भारतीय समाज के सन्दर्भों का बारीकी से अध्ययन करना चाहिए था और राजनीतिक वातावरण के हर पहलू का गहराई से विश्लेषण करना चाहिए था। समझ से परे है कि चुनाव आयोग ने ऐसा फैसला क्यों किया जो मनोवैज्ञानिक और सामाजिक तौर पर पहली नजर में ही दोषयुक्त लगता है। अतः इस फैसले का विरोध होना वाजिब था और कई राजनीतिक दलों ने इसका पुरजोर विरोध किया है जिनमें कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के अलावा दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां हैं और कई क्षेत्रीय दल भी शामिल हैं। चुनावों और मतदान की पवित्रता के साथ हम एेसे प्रयोग नहीं कर सकते जिनके परिणामों को लेकर पूरी तरह एकमत न हो। वर्तमान चुनाव आयोग पहले से ही कई मुद्दों को लेकर विवादों में है जिनमें ईवीएम मशीनों का मुद्दा सबसे प्रमुख है। ईवीएम मशीनों के मामले में भी सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इनके प्रयोग से मतदान की गोपनीयता भंग होती है और मतदाता और प्रत्याशी के बीच में एक तीसरी शक्ति विद्यमान हो जाती है जिसे मशीन कहा जाता है।
मतदान का फैसला मशीन की तकनीकी सक्षमता पर निर्भर करता है जबकि संविधान मतदाता और प्रत्याशी के बीच में किसी भी तीसरी शक्ति का अदृश्य तरीके से भी होना निषेध है परन्तु आयोग टैक्नोलोजी का तर्क देकर मशीनों के उपयोग को सही बताता है जबकि बारीकी से देखा जाये तो यह तर्क संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है परन्तु किया क्या जाये जब स्वयं संसद ने ही 1986 में बैलेट पेपर की जगह मशीनों के प्रयोग के लिए आयोग को अधिकृत किया हो। वास्तव में वह जल्दबाजी और कम्प्यूटर टैक्नोलोजी के प्रयोग में अति उत्साह दिखाने की वजह से किया गया अदूरदर्शी फैसला था जो स्व. राजीव गांधी की सरकार ने किया था। तब इसके सभी पक्षों पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया। गौर से देखा जाये तो चुनाव आयोग इन मशीनों के रखरखाव पर ही सैकड़ों करोड़ रुपया खर्च करता है जो बैलेट पेपर से होने वाले चुनाव के खर्चे से बहुत ज्यादा पड़ता है। तर्क दिया जाता है कि इससे परिणाम बहुत जल्दी आ जाते हैं मगर आयोग ने जिस तरह कई विधानभाओं तक के चुनाव कई चरणों में कराने की परंपरा वर्तमान चुनाव आयोग ने डाली है, उससे तो पहले चरण और अंतिम चरण के चुनाव में औसतन 20 दिन का अन्तर रहता है और तब तक मशीनों की सुरक्षा की जाती है। बुजुर्गों के मामले में तो चुनाव आयोग को सबसे पहले यह सोचना चाहिए कि चुनाव लोकतन्त्र का त्यौहार होते हैं जिसमें सक्रिय शिरकत करना हमारे बुजुर्ग अपनी शान समझते हैं। मतदान का दिन उनका आत्म गौरव बढ़ाता है और उनका सम्मान भी। वह स्वतन्त्र नागरिक होने और सत्ता में भागीदार होने का प्रदर्शन बहुत अभिमान के साथ करते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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