चुनाव आयोग और ईवीएम

चुनाव आयोग और ईवीएम
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भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में चुनाव आयोग की हैसियत देश के लोगों को मिले एक वोट के अधिकार के महारक्षक व संरक्षक की है। आजादी के बाद भारत की जनता को बिना किसी ऊंच-नीच या जाति-पाति के भेदभाव के बगैर मिला यह एक वोट का अधिकार सबसे बड़ा संवैधानिक हथियार है जिसने भारत के लोगों की राजनैतिक आजादी का रास्ता खोला है। इसी राजनैतिक आजादी के रास्ते से भारत के लोग अपनी आर्थिक व सामाजिक आजादी भी प्राप्त करेंगे अर्थात गैर बराबरी को भी समाप्त करेंगे। यह रास्ता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी व संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ही यहां के लोगों को दिखाकर गये थे। मगर लोगों को यह एक वोट का अधिकार लाखों कुर्बानियां देने के बाद मिला है। वास्तव में एक वोट का अधिकार भारत में मूक क्रान्ति थी जिसके महानायक महात्मा गांधी थे। इस एक वोट के माध्यम से लोगों को सत्ता बदलने का अधिकार मिला था और ऐसी हुकूमत कायम करने का हक मिला था जो उनकी सरकार ही कहलाये। अतः इस अधिकार की रक्षा के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने ऐसी पुख्ता व्यवस्था चुनाव आयोग के माध्यम से की जिससे गरीब से लेकर अमीर आदमी तक कह सके कि वह भारत का एक खुद मुख्तार राजनैतिक बाशिन्दा है। चुनाव आयोग को संविधान निर्माताओं ने सरकार का अंग नहीं बनाया और इसे स्वतन्त्र व खुद मुख्तारी का रुतबा अता किया। चुनाव आयोग सीधे संविधान से शक्ति लेकर अपना काम करता है।

सत्ता पर काबिज कोई भी सरकार इसके काम में टांग नहीं अड़ा सकती। इसके सामने हुकूमत करने वाली राजनैतिक पार्टी और विपक्ष में बैठे सियासी दल में कोई अन्तर नहीं होता। इस पर सभी दलों को एक नजर से देखने का दायित्व रहता है क्योंकि यह देश की राजनैतिक दलगत प्रणाली का संरक्षक भी होता है। हर राजनैतिक दल को चुनावों में भाग लेने से पहले चुनाव आयोग की चौखट पर जाकर माथा नवाना होता है और भारत के संविधान के अनुसार राजनैतिक गतिविधियां शुरू करने की कसम उठानी पड़ती है। चुनाव आयोग ही हर पांच साल बाद पूरी तरह से निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनाव कराकर देश व प्रदेशों में सरकारें गठित करने की प्रक्रिया की शुरूआत करता है और देश के राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति का चुनाव भी कराता है। अतः संविधान में चुनाव आयोग को बहुत ऊंचा रुतबा दिया गया है और यह भी तय किया गया है कि अपने काम को अंजाम देते वक्त यह किसी भी तौर पर सत्तारूढ़ सरकार के दबाव में न आये क्योंकि वह सरकार भी किसी राजनैतिक दल या दलों की हो सकती है। जिस देश में ऐसी पाक-साफ व्यवस्था हो वहां चुनाव आयोग की भूमिका पर सन्देह की अंगुलियां उठना वाकई में बहुत अफसोसनाक कहा जायेगा। क्योंकि चुनाव आयोग की पहली जिम्मेदारी यह होती है कि देश के आम मतदाता का उस पर अटूट विश्वास होना चाहिए और यकीन होना चाहिए कि मतदाता जिस भी पार्टी या प्रत्याशी को वोट देगा वह उसी को जायेगा।

मगर जब से देश में चुनाव में ईवीएम मशीनों का इस्तेमाल शुरू हुआ है तब से एक शाश्वत बहस चल रही है कि ईवीएम में डाला गया वोट अविश्वनीय होता है और मतदाता व प्रत्याशी के बीच में प्रत्यक्ष रूप से मशीन आ जाती है जो चुनाव परिणाम बताती है। जबकि भारत के जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 के तहत यह व्यवस्था है कि मतदाता और प्रत्याशी के बीच में किसी भी प्रकार से कोई तीसरी शक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष अथवा अदृश्य रूप से नहीं आ सकती। इसी वजह से भारत में ईवीएम मशीन से चुनाव कराने के विरुद्ध अक्सर छिटपुट नागरिक अभियान भी चलाये जाते हैं। मगर वे बेअसर रहते हैं। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी जा चुका है और वहां से अभी तक इसका कोई सन्तोषजनक हल नहीं निकल पाया है। वास्तव में यह मामला चुनाव आयोग व आम जनता के बीच का है क्योंकि चुनाव आयोग अन्ततः देश के आम मतदाता के प्रति ही जवाबदेह होता है। बेशक आम मतदाता अपनी बात राजनैतिक दलों के माध्यम से उठा सकता है। हरियाणा में हुए हाल ही में विधानसभा चुनावों में भी ईवीएम मशीनों की गड़बड़ी का मामला उठाया गया है और कांग्रेस पार्टी ने बाकायदा इसकी शिकायत चुनाव आयोग से की है। हम देखते हैं कि लगभग हर चुनाव में ऐसी शिकायतें की जाती हैं और बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग की जाती है। इस मामले में विपक्षी दल कभी तो एक हो जाते हैं और कभी मामले को छोड़ देते हैं।

ईवीएम मशीनों को लेकर यह अनमनापन उचित नहीं कहा जा सकता। इस मामले में सत्तारूढ़ दल को भी एक पक्ष नहीं बनना चाहिए और चुनाव आयोग की रक्षा में नहीं खड़ा होना चाहिए क्योंकि यह उसकी विश्वनीयता का भी सवाल है। चुनाव आयोग भी इस सन्दर्भ में उठाई गई शिकायतों का जवाब किसी राजनैतिक दल की तरह नहीं दे सकता क्योंकि उसकी निगाह में सभी राजनैतिक दल एक समान होते हैं। ईवीएम मशीनों के प्रति अतिमोह भी ठीक नहीं है क्योंकि दुनिया में जितने भी देश विकसित समझे जाते हैं और जिनमें लोकतन्त्र है वहां चुनाव बैलेट पेपर से ही कराये जाते हैं। भारत जैसे विशाल देश में बैलेट पेपर से चुनाव कराने में कोई दिक्कत पेश नहीं आ सकती क्योंकि हमारी आन्तरिक सुरक्षा पंक्ति बहुत मजबूत है। सबसे बड़ा सवाल लोकतन्त्र के सबसे बड़े भागीदार मतदाता के यकीन का है। जब उसे ही अभी तक यह यकीन नहीं हो पा रहा है कि वह जिस व्यक्ति को वोट देना चाहता है उसका वोट उसी को जा रहा है अथवा नहीं, इस बात का जवाब मशीन की मर्जी पर निर्भर है तो पूरी प्रणाली की विश्वसनीयता के बारे में क्या कहा जा सकता है? मगर विपक्ष भी यह तय करे कि वह केवल हारने पर ही ईवीएम का रोना नहीं रोयेगा और सिद्धान्ततः ईवीएम के खिलाफ मुहीम में शामिल होगा।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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