गुजरात के पहले चरण के मतदान में मतदाताओं ने जिस प्रकार बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है वह दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतन्त्र कहलाये जाने वाले देश भारत में लोकतन्त्र की जीवन्तता का उदाहरण है मगर इसके साथ ही जिस प्रकार चुनाव आयोग इन चुनावों को लेकर सन्देह के घेरे में आ रहा है वह इसी लोकतन्त्र के लिए अत्यन्त चिन्ता पैदा करने वाला मुद्दा है, क्योंकि निष्पक्ष व साफ-सुथरे चुनाव होना ही मतदाताओं के जनादेश की पहली शर्त होती है मगर दुखद यह है कि गुजरात को लेकर चुनाव आयोग पर पक्षपात करने के आरोप विरोधी दल तभी से लगा रहे हैं जब इसने हिमाचल प्रदेश के चुनावों की तारीख घोषित करते हुए इस राज्य का चुनावी कार्यक्रम इस आधार पर आगे टाल दिया था कि राज्य में बाढ़ आने की वजह से राहत कार्यों पर विपरीत प्रभाव पड़ता, क्योंकि चुनाव की तिथियां घोषित होते ही ‘आदर्श चुनाव आचार संहिता’ लागू हो जाती, जबकि चुनाव तिथियां आगे बढ़ाने का कारण आयोग ने 2014 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव कराते वक्त वह नहीं ढूंढा था जो गुजरात में ढूंढा, जबकि वहां भी चुनाव से पहले भारी बाढ़ ने तबाही मचाई थी। इस राज्य में तब राहत कार्यों में किसी प्रकार का व्यवधान आदर्श आचार संहिता लागू रहने की वजह से नहीं पड़ा था।
चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं रहता है कि उसके किसी निष्पक्ष फैसले से किस राजनीतिक दल को लाभ हो सकता है या हानि हो सकती है। उसे केवल संविधान के अनुसार और पुरानी स्वस्थ परंपराओं का भी संज्ञान लेते हुए अपना कार्य करना होता है, क्योंिक इसके पास ‘अर्ध न्यायिक’ अधिकार भी होते हैं। लोकतन्त्र की बुनियाद चुनाव आयोग के कार्यकलापों से ही शुरू होती है, इसीलिए प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने स्वतन्त्र चुनाव आयोग की संविधान में ही व्यवस्था करने के लिए जबर्दस्त पैरवी की थी। ईवीएम चुनावी मशीनों को लेकर जिस तरह का सन्देहास्पद वातावरण वायरलेस नेटवर्क टैक्नोलोजी उन्नयन को लेकर बना वह मतदाताओं में भ्रम फैला रहा था। इसी वजह से चुनाव आयोग ने गुजरात चुनावों में ईवीपैट मशीनें भी इन मशीनों के साथ जोड़ कर मतदान कराने की व्यवस्था की, परन्तु गुजरात के राजकोट विधानसभा क्षेत्र में इस टैक्नोलोजी में भी गड़बड़ी करने की गंभीर शिकायतें की गईं। इसका निराकरण करने में आयोग ने तकनीकी विशेषज्ञों की मदद ली मगर राजनीतिक दलों को इस मामले में एक-दूसरे की टोपी उछालने का मौका जरूर मिल गया।
इसके बावजूद राज्य के मतदाताओं ने जिस उत्साह से मतदान में भाग लिया है वह बताता है कि दुनिया की कोई भी ताकत उनके उस लिखे को बदलने की क्षमता नहीं रखती जो वे अपने एक वोट के अधिकार की कलम से लिखते हैं मगर इतना जरूर है कि जब चुनाव आयोग की भूमिका पर विरोधी दल पहले से ही अंगुली उठा रहे थे तो उसे इस मोर्चे पर बहुत सावधान रहने की जरूरत थी और एेसा पुख्ता इंतजाम बांधने की आवश्यकता थी जिससे उसकी निष्पक्ष भूमिका पर कोई भी अंगुली उठाने की हिम्मत न कर सके। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1977 के चुनाव हैं जब इमरजेंसी हटाने के बाद इंदिरा जी ने चुनाव कराये थे तो तत्कालीन चुनाव आयोग पूरी तरह निराकार और उदासीन मुद्रा में आ गया था और उस पर देशभर के विभिन्न राज्यों समेत केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार के रुतबे का कोई असर नहीं पड़ा था। इसके बाद 1980 के चुनावों में भी एेसा ही नजारा देखने को मिला। चुनाव आयोग का यह भी दायित्व है कि चुनावों को आम जनता लोकतन्त्र का सबसे बड़ा उत्सव समझे और अपने वोट देने के अधिकार का निर्भीकता के साथ प्रयोग करे। चुनाव आयोग के समक्ष चुनावी बेला में न तो कोई मुख्यमन्त्री होता है आैर न प्रधानमन्त्री होता है बल्कि वह केवल एक मतदाता होता है।
राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए गुजरात के मामले में तो उसे आैर भी ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत थी। उसकी जिम्मेदारी यह भी होती है कि चुनाव प्रचार करते समय कोई सत्ताधारी दल या विपक्षी दल से जुड़ा नेता अपनी बोली में बेलगाम न हो और जातिगत व धार्मिक आधार पर मतदाताओं को बांटने का प्रयास न करे, लेकिन गुजरात के चुनाव प्रचार में जिस प्रकार की बाजारू भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है उससे राजनीतिक दलों की बदहवासी का ही परिचय मिल रहा है। यह बदहवासी उन्हें बता रही है कि मतदाताओं के मन में क्या चल रहा है और उनके असली मुद्दे क्या हैं। यह सबूत रहना चाहिए कि गुजरात में चुनावी बाजी जीतने के लिए हर उस हथियार का इस्तेमाल किया जा रहा है जिससे मतदाता उन समस्याओं की तरफ ध्यान ही न दे सकें जो उनके जीवन से जुड़े हुए हैं और उनकी सामाजिक-आर्थिक हालत को बदतर बनाये हुए हैं। यह स्वयं में कम विस्मयकारी नहीं है कि जिस गुजरात की जनता को पूरे देश में सर्वाधिक व्यापारिक बुद्धि का माना जाता है उसके चुनाव में इससे जुड़े सवालों को मन्दिर-मस्जिद के विवाद से ढकने के प्रयास किये जा रहे हैं। पूरे इतिहास की जड़ों को खोदा जा रहा है।
तिलहन, दलहन व कपास उत्पादन में अग्रणी माने जाने वाले गुजरात के किसानों के मुद्दे को हाशिये पर डालकर पूरी दुनिया-जहान की बातें की जा रही हैं मगर भारत का लोकतन्त्र और खासकर गुजरात के लोग किसी नेता के मोहताज कभी नहीं रहे हैं, क्योंकि इस राज्य के लोगों ने दुनिया को अपनी सदी की जो सबसे बड़ी हस्ती दी उसका नाम ‘महात्मा गांधी’ था। एेसे राजनीतिक फकीर ने न केवल भारत के बल्कि पूरी दुनिया के लोगों में आत्म गौरव, आत्म निर्णय आैर निजी स्वतन्त्रता के भाव को सर्वोच्च रखने का जज्बा भरा। इसलिए शान्त रहकर ‘कमाल’ करना गुजरातियों की आदत में शुमार माना जा सकता है मगर लोकतन्त्र में इस प्रकार के कमाल होते रहते हैं। भारत का चुनावी इतिहास इस प्रकार के कमालों से भरा पड़ा है। इसके बावजूद राजनीतिक दल मतदाताओं से ही शक्ति प्राप्त करके पुनः ताकतवर बनते रहे हैं।