चुनावी मौसम में जिस तरह धड़ाधड़ आयकर के छापे पड़ रहे हैं उससे यह सिद्ध हो रहा है कि चुनाव आयोग की सत्ता को हम धत्ता बता रहे हैं और यह भी सिद्ध हो रहा है कि बाबा साहेब अम्बेडकर ने हमें जिस संविधान के तहत चुनाव आयोग की स्वतन्त्र और निष्पक्ष भूमिका नियत करके चुनावों का आयोजन करने की जिम्मेदारी सौंपी थी उसे राजनैतिक प्रणाली चुनौती दे रही है। इतना ही नहीं राजनैतिक दल अब वे सभी मर्यादाएं लांघते नजर आ रहे हैं जिन्हें विशेष रूप से चुनावों के लिए बनाये गये कानून ‘जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951’ में रखा गया है।
धार्मिक आधार पर वोट मांगने की इस कानून में सख्त मनाही है परन्तु बहुजन समाज पार्टी की नेता सुश्री मायावती ने दो दिन पहले ही सहारनपुर की अपनी जनसभा में जिस तरह खुलकर मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों से अपील की कि वे अपना वोट बंटने न दें और एकमुश्त होकर सपा-बसपा व रालोद के गठबन्धन के प्रत्याशियों को मत दें, पूरी तरह गैर कानूनी और आम मतदाता को एक-दूसरे के समुदाय से लड़ाने व डराने की तजवीज है मगर यह उस उत्तर प्रदेश की राजनीति का पिछले तीस साल से चरित्र बन चुका है जिसमें मतदाताओं को हिन्दू-मुसलमान में बांटकर ज्वलन्त समस्याओं को दरकिनार करके वोट बटोरे जाते हैं।
जिन डाक्टर अम्बेडकर का नाम ले-लेकर बहन मायावती अपनी राजनैतिक दुकान चला रही हैं उन्होंने ही दलितों से आह्वान किया था कि ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो।’ उनका यह कथन किसी दूसरे समुदाय के विरुद्ध नफरत फैलाने या बदला लेने के लिए नहीं था बल्कि समाज में सदियों से चली आ रही सामाजिक गैर-बराबरी को दूर करने के लिए था और उन्हीं के लिखे संविधान में अपने अधिकारों के लिए लड़ने का था मगर आश्चर्य है कि मायावती दलितों की शिक्षा के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलती हैं और सरकार से यह मांग भी नहीं करती हैं कि किसी दलित या मुसलमान के बेटे को भी किसी संभ्रान्त वर्ग के बेटे जैसी स्तरीय शिक्षा देने की व्यवस्था की जाये, जिससे भविष्य का भारत समतामूलक समाज के स्वरूप में स्वयं ही ढलता जाये।
उनका जोर तो मूर्तियां बनाने पर रहता है मगर इनसे प्रेरणा तो दलित समाज तभी ले सकेगा जब वह शिक्षित होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीखेगा और संविधान में दिये गये अपने हिस्से के कोटे को भरने में सक्षम हो सकेगा परन्तु मायावती के हाथ बहुत आसान फार्मूला लग गया है। वह चुनावी मौसम में मुस्लिमों को भाजपा का डर दिखाकर पूरे माहौल को साम्प्रदायिक बना देती हैं और आरोप भाजपा पर ही मढ़ देती हैं। ऐसा वह जानबूझ कर और सोची-समझी रणनीति के तहत करती हैं मगर यही रणनीति समाजवादी पार्टी की भी है जो बढ़-चढ़कर मुस्लिम हितों की बात करते हुए ही मुजफ्फरनगर में अपने शासन में ही भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगा करा देती है और जाट समुदाय व मुस्लिमों को एक-दूसरे का दुश्मन बना देती है लेकिन राजनीतिज्ञ अक्सर मतदाता को मूर्ख समझने की गलती कर बैठते हैं और उन्हें जमीन पर लोगों के बने गठबन्धनों की जानकारी नहीं रहती।
उत्तर प्रदेश का हर मतदाता जानता है कि चुनाव लोकसभा के लिए हो रहे हैं जिनके नतीजे आने पर देश की नई सरकार का गठन होगा और इसमें उत्तर प्रदेश में बने गठबन्धन के प्रत्याशियों की कोई भूमिका इसके अलावा नहीं हो सकती कि वे सत्ता की सौदेबाजी में अपनी ऊंची कीमत वसूल करें। 545 की लोकसभा में सपा 37, बसपा 38 और लोकदल मात्र तीन सीटें लड़कर कोई वैसा बदलाव नहीं ला सकते जिसकी बातें ये कर रहे हैं। अन्त में असली लड़ाई राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस व भाजपा के बीच ही होकर रहेगी क्योंकि दोनों ही पार्टियां अपने-अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाने का दावा कर रही हैं। यह हकीकत भी मायावती, अखिलेश यादव और रालोद के अजित सिंह जानते हैं कि चुनाव जीतने पर उनकी पार्टियों के प्रत्याशियों के समर्थन की बोली त्रिशंकु लोकसभा के बनने पर लगकर रहेगी जिसका फायदा उठाना ही आज की राजनीति का सच हो चुका है।
वरना वह मायावती आज मुसलमानों के समर्थन की मांग क्यों करतीं जिन्होंने 2002 में गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे होने के बाद भाजपा के समर्थन में वहां के दलितों का वोट मांगा था। दिक्कत यह थी कि वह उस समय उत्तर प्रदेश में भाजपा के समर्थन से ही मुख्यमन्त्री थीं। सवाल यह दीगर है कि जब समाजवादी पार्टी के संस्थापक माननीय मुलायम सिंह यादव वर्तमान लोकसभा के अन्तिम सत्र मंे अपने भाषण में यह घोषणा करके आ चुके हैं कि उनकी इच्छा है कि माननीय नरेन्द्र मोदी चुनावों के बाद भी पुनः प्रधानमन्त्री बनें तो लड़ाई किससे हो रही है ? गठबन्धन या महागठबन्धन को जातिगत गठबन्धन के रूप में खड़ा करके सबसे बड़ा बेवकूफ इन्हीं जातियों और समुदायों के लोगों का बनाया जा रहा है।
मगर क्या वास्तव में उत्तर प्रदेश के मतदाता इतने मूर्ख हैं कि वे लोकसभा और विधानसभा के चुनावों का अन्तर न समझें और उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ की जुबान के चक्कर में आकर आपस में ही एक-दूसरे को शक की निगाहों से देखने लगें मगर देखिये चौधरी चरण सिंह की विरासत को संभालने वाले अजित सिंह का जोश कि किस ‘नशात’ से वह समाजवादी पार्टी के शासन में हुए 2014 के हिन्दू-मुस्लिम दंगे के लिए जिम्मेदार लोगों के कारवां के आगे खड़े हुए हैं कि उनका साया भी उनसे दो कदम पीछे छूटता दिखाई पड़ रहा है।
जिन लोगों ने उनकी पार्टी की हैसियत सिर्फ तीन सीटों में निपटा दी हो वे चरण सिंह की किसान-मजदूर एकता को अपने घर के किस ‘ताक’ में सजा देंगे, कौन जान सकता है मगर मतदाता जानता है कि ये चुनाव देश का भविष्य तय करने के लिए हो रहे हैं, मायावती, अखिलेश यादव या अजित सिंह का भविष्य तय करने के लिए नहीं और यह भविष्य भाजपा या कांग्रेस में से कोई एक पार्टी ही लिखेगी, जातियों का गठजोड़ कतई नहीं।