कोरोना काल में मतदान कराने के लिए चुनाव आयोग जो नियम निर्देशिका लेकर आया है , पहली नजर में वह व्यावहारिक नहीं है। चुनाव से जुड़ा कोई भी कार्य संगठित मानवीय प्रयासों के बिना पारदर्शी ढंग से संभव नहीं हो सकता। अतः नई टैक्नोलोजी का प्रयोग करके पूरी चुनाव प्रक्रिया को सम्पर्क रहित व कागज रहित बनाने से मतदान की पवित्रता, सरलता व गोपनीयता प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। लोकतन्त्र में चुनाव को समारोह या ‘जश्न से तेहरवीं’ में तब्दील करने की कोई तुक नहीं है। कोरोनाकाल वास्तव में सामाजिक आपातकाल या इमरजेंसी घोषित रूप से है तो ऐसे समय में चुनावों की अनिवार्यता को संवैधानिक विकल्पों के आधार पर स्थगित करने की पक्की वजह बनती है, खास कर चुनाव जब किसी राज्य के विधानसभा के लिए हों। जाहिर है कि चुनाव आयोग ने यह नियमावली बिहार विधानसभा के चुनावों को देखते हुए जारी की है जबकि इससे पहले सितम्बर महीने में मध्य प्रदेश विधानसभा की 27 सीटों के उपचुनाव होने हैं। इससे चुनाव आयोग के पास अवसर है कि वह चालू चुनाव नियमों को कुछ सख्त बनाते हुए इनमें ऐसा परीक्षण करे जिससे लोगों का चुनाव प्रणाली में विश्वास कम न हो। पूरे मामले में सबसे मूल प्रश्न चुनाव में खड़े हुए सभी प्रत्याशियों को एक समान बराबर के प्रतियोगी अवसर देना होगा।
चुनाव प्रचार के जरिये प्रत्याशी अपने मत व विचार धारा का प्रवाह करते हैं। जब यही प्रक्रिया प्रतिबन्धित रहेगी तो आगे की प्रक्रिया की पवित्रता के बारे में सवाल खड़े होने निश्चित हैं। घर-घर जाकर अगर केवल तीन लोग ही प्रचार कर सकेंगे और किसी जनसभा या रैली में आने वाले लोगों की संख्या का निर्धारण आपदा प्रबन्धन विभाग करेगा तो चुनाव क्या खाक होंगे? चुनाव का अर्थ ही होता है जनता की खुल कर भागीदारी। जब इस भागीदारी को ही सीमित कर दिया जायेगा तो लोकतन्त्र में जनता की चुनी हुई सरकार का क्या मतलब रह जायेगा? अतः पहली नजर में चुनाव आयोग की यह निर्देशिका ही संविधान के मूल प्रावधानों के विरुद्ध मानी जायेगी। इसके साथ चुनाव आयोग ‘वर्चुअल रैलियों’ के मुद्दे पर चुप है। उसकी चुप्पी कई सवालों को जन्म देती है।
पहला सवाल यह है कि क्या ऐसी रैली को सार्वजनिक प्रचार की श्रेणी में नहीं रखा जायेगा और इसे ‘डिजीटल सम्पर्क’ के घेरे में लेकर इस पर होने वाले खर्च को चुनावी दायरे से बाहर कर दिया जायेगा? यदि ऐसा होता है तो यह प्रारम्भिक स्तर पर ही चुनावों को भ्रष्टाचार से भर देगा क्योंकि केवल धनवान प्रत्याशी ही अपने समर्थकों के माध्यम से मतदाताओं को मोबाइल फोनों को देने के जरिये लालच दे सकेगा। लोकतन्त्र में यह अनर्थ कहा जायेगा। इसके साथ मतदाताओं की पहचान ‘रेडियो फीक्वेंसी’ टैक्नोलोजी से करने पर सब कुछ टैक्नोलोजी पर ही छोड़ दिया जायेगा जिससे मतदाताओं में लगातार अपने मतदाता होने पर ही संशय बना रहेगा। संशय के वातावरण में मतदान केन्द्र तक पहुंचने वाले मतदाता का तापमान रिकार्ड करने की प्रक्रिया दो बार होगी जिसके डर से साधारण आदमी का तापमान स्वयं ही आधे डिग्री तक बढ़ जायेगा (यह वैज्ञानिक शारीरिक प्रतिक्रिया होती है)। फिर प्रत्येक मतदाता को दस्ताने दिये जायेंगे जिन्हें पहन कर वह ईवीएम मशीन पर जाकर बटन दबायेगा। इस प्रक्रिया में एक मतदान केन्द्र पर एक व्यक्ति को सामान्यतः मतदान करने में जितना समय औसत रूप से लगता है उससे कम से कम चार गुना अधिक समय विशेषज्ञों के अनुसार लगेगा। इसका मतलब मतदान का समय आठ घंटे से बढ़ा कर अधिकतम 24 घंटे किया जायेगा और चार गुणा संख्या में मतदान केन्द्र स्थापित करने पड़ेंगे और ईवीएम मशीनों की संख्या भी इसी अनुपात में बढ़ानी पड़ेगी। इससे जाहिर है कि कर्मचारियों की संख्या भी इसी अनुपात में बढे़गी। इस प्रक्रिया में सबसे बड़ी मूलभूत खामी है कि इसमें मतदाता के हाथ में कुछ है ही नहीं जो कुछ भी है वह सब का सब चुनाव आयोग के हाथ में है जबकि चुनावों का अर्थ इसका उल्टा होता है अर्थात पूरी स्वतन्त्रता के साथ निर्भय होकर बिना किसी लालच के मतदाता अपने मताधिकार का उपयोग करता है जबकि चुनाव आयोग का पहला संवैधानिक दायित्व मतदाता को किसी भी खौफ से मुक्त करने का होता है। यह सब व्यावहारिक पक्ष है जिसकी तरफ चुनाव आयोग के विद्वान आयुक्तों को ध्यान देना चाहिए था। भारत के चुनाव आयोग की दुनिया भर में विश्वसनीयता ऊंचे पायदान पर रख कर देखी जाती रही है और विभिन्न लोकतान्त्रिक देश इसकी कार्यप्रणाली का अध्ययन करने भारत आते रहे हैं। अतः पूरे मामले पर आयोग को गंभीरता के साथ फिर से मनन करना चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com