चुनाव आयोग की ‘विमर्शिका’

चुनाव आयोग की ‘विमर्शिका’
Published on

बाबा साहेब अम्बेडकर जो संविधान हमें सौंप कर गये हैं उसमें चुनावों की व्यवस्था के लिए पृथक चुनाव आयोग का गठन इस प्रकार किया गया कि यह पूरी प्रजातान्त्रिक प्रणाली की आधारभूत जमीन तैयार करे और प्रत्येक वयस्क नागरिक को मिले एक वोट के संवैधानिक अधिकार के उपयोग की गारंटी करते हुए नागरिकों की मनपसन्द सरकार का गठन करने में मदद करे। चुंकि भारत में राजनैतिक आधार पर प्रशासनिक व्यवस्था चलती है अतः चुनाव आयोग को ही सभी राजनैतिक दलों की नियामक संस्था बनाया गया और तय किया गया कि चुनाव घोषित होने के बाद सत्ता पर काबिज किसी भी राजनैतिक दल की सरकार की भूमिका अन्य राजनैतिक दलों के समकक्ष ही हो। चुनाव आयोग को चुनाव घोषित होने के बाद समूची प्रशासन प्रणाली का संरक्षक बनाते हुए संविधान में यह व्यवस्था की गई कि चुनाव प्रचार के दौरान सभी सत्ता व विपक्ष के दलों के लिए नियम एक समान होंगे और सभी की स्थिति चुनाव आयोग के समक्ष एक समान होगी।
चुनाव आयोग की यह जिम्मेदारी होगी कि वह सत्ता पर काबिज दल की सरकार से निरपेक्ष रहते हुए अपना कार्य पूरी निष्पक्षता व स्वतन्त्रता के साथ करे और सत्तारूढ़ दल के प्रधानमन्त्री से लेकर मन्त्रियों तक के लिए चुनावी नियम एक समान बनाये। इसे सभी दलों के लिए एक जैसी जमीन या 'लेवल प्लेयिंग फील्ड' का नाम दिया गया। अतः जब प्रधानमन्त्री से लेकर मन्त्री तक चुनाव प्रचार में उतरते हैं तो उनकी मुख्य हैसियत अपने दल के एक राजनैतिक कार्यकर्ता की होती है और उनके चुनाव प्रचार पर किया गया खर्चा उनकी पार्टी को वहन करना पड़ता है। बेशक उनका औहदा मन्त्री या प्रधानमन्त्री का रहता है परन्तु वह प्रचार के दौरान अपनी सरकार की तरफ से कोई नीतिगत घोषणा नहीं कर सकते उन्हें केवल पार्टी की नीतियों व कार्यक्रमों तक ही सीमित रहना होता है। ऐसा इसीलिए होता है कि क्योंकि विपक्षी दलों के हाथ में केवल अपनी पार्टी की नीतियों व कार्यक्रमों को ही लोगों को बताने की ताकत होती है। इसे ही 'लेवल प्लेयिंग फील्ड' कहा जाता है जिसे चुनाव आयोग सुनिश्चित करता है और ऐसा वह सीधे संविधान से शक्ति लेकर करता है। वह किसी भी सरकार के रहमो-करम पर निर्भर संस्था नहीं होती। मगर चुनाव प्रचार के दौरान हम देखते हैं कि राजनैतिक दलों में भयानक तौर पर आरोप-प्रत्यारोपों की बौछार चलती है। एक-दूसरे पर अनर्गल आरोप लगाना आम बात होती है। चुनाव प्रचार का एक स्तर बनाये रखने के लिए ही चुनाव आयोग आदर्श आचार संहिता को लागू करता है जिससे प्रत्येक दल का नेता मर्यादा में रह कर अपने विरोधी के खिलाफ आरोप लगा सके और संविधान की आत्मा के अनुरूप भारत की सामाजिक एकता को बनाये रख सके। मगर चुनाव आते ही साम्प्रदायिक आधार पर हिन्दू-मुस्लिम वोटों की गिनती शुरू हो जाती है और हिन्दू समुदाय में जातिगत आधार पर वोटों को गिनवाने की परंपरा जैसी शुरू हो जाती है। संविधान इसकी इजाजत नहीं देता है और प्रत्येक वयस्क मतदाता को केवल नागरिक मानता है जिसके पास एक वोट का अधिकार होता है।
जाति या धर्म अथवा समुदाय या वर्ग के नाम पर कोई भी नेता नागरिकों से वोट नहीं मांग सकता है परन्तु हम देखते हैं कि भारत में चुनाव आते ही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण व जातिगत गोलबन्दी शुरू हो जाती है। हद तो यह है कि भारत में जातिगत आधार पर पार्टियां तक बताई जाती हैं और अल्पसंख्यकों व बहुसंख्यकों की पार्टियां तक गिनाई जाती हैं। चुनाव प्रचार में किसी न किसी बहाने सम्प्रदाय या जाति को केन्द्र में लाने के बहाने ढूंढे जाते हैं। चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनावों की घोषणा करने से पहले सभी राजनैतिक दलों के लिए एक विमर्शिका (एडवाइजरी) जारी की है जिसमें कहा है कि अगर कोई स्टार प्रचारक या नेता या प्रत्याशी आचार संहिता का उल्लंघन करते हुए पाया गया तो उसके खिलाफ यथोचित कार्रवाई की जायेगी।
हम जानते हैं कि पिछले वर्ष पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से पूर्व भी आयोग ने ऐसी ही विमर्शिका जारी की थी मगर उसका कोई खास असर हमें दिखाई नहीं दिया। आदर्श आचार संहिता कोई चुनावी औपचारिकता नहीं होती बल्कि यह कानूनी प्रक्रिया होती है जिससे किसी भी दल का नेता ऊपर नहीं होता। अतः चुनाव आयोग को ही सोचना होगा कि वह इसके लागू करने में कैसी लापरवाही बरतता है और क्यों बरतता है। चुनावों के समय यदि चुनाव आयोग के रुतबे में गिरावट आती है तो इसका सीधा असर पूरी चुनाव प्रणाली की गुणवत्ता पर पड़ता है । हम जानते हैं कि पहले ही देश में ईवीएम मशीनों से मतदान कराये जाने को लेकर भयंकर विवाद छिड़ा हुआ है। चुनाव आयोग इस पर चुप्पी साधे बैठा है और शकांओं के निवारण से कन्नी काटता हुआ लग रहा है। हालांकि ईवीएम को जितना तूल दिया जा रहा है उसका निवारण भी इसी मशीन के साथ लगी दूसरी वीवीपैट या वोट रसीदी मशीन में है जिसकी सभी पर्चियों को गिनकर मामले को सुलझाया जा सकता है। इसके साथ ही चुनाव आयोग ने अब 85 वर्ष से ऊपर के नागरिकों के लिए डाकमतपत्रों या पोस्टल बैलेट की सुविधा देने का प्रस्ताव किया है। पहले यह आयु 80 वर्ष की थी। यह फैसला तार्किक लगता है क्योंकि भारत में अब औसत आयु 70 के करीब पहुंच रही है तो 80 वर्ष तक के नागरिक स्वयं मतदान केन्द्रों तक जा सकते हैं।

Related Stories

No stories found.
logo
Punjab Kesari
www.punjabkesari.com