“भारत की पूरी लोकतान्त्रिक राजनैतिक प्रणाली चुनाव आयोग की पवित्रता और स्वतन्त्रता व निष्पक्षता पर इस प्रकार टिकी होगी कि चुनाव के समय सत्ता के सभी अधिकारों का हस्तांतरण चुनाव आयोग की निगरानी में इस प्रकार रहेगा कि चुनावों में भाग लेने वाले प्रत्येक राजनैतिक दल को बराबरी के स्तर पर इनमें भाग लेने का अवसर इस प्रकार मिले िक किसी प्रकार के भेदभाव की रंचमात्र भी गुंजाइश न हो।” यह मैं नहीं कह रहा हूं बल्कि संविधान निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर ने तब कहा था जब उनसे यह पूछा गया था कि प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को एक वोट का बराबर का अधिकार देने से क्या भारत के अनपढ़ और गरीब व डरे हुए लोगों को सत्ता पर आसीन राजनैतिक दल विभिन्न प्रकार के दबावों में लाने का प्रयास नहीं करेंगे? इसका जवाब डा. अम्बेडकर ने जो दिया वह भारत की अजमत की निगेहबानी करता है।
उन्होंने कहा कि ‘डरे हुए लोगों को निडर बनाने का काम स्वतन्त्र भारत में चुनाव आयोग का होगा, इसी वजह से यह आयोग संविधान के प्रति ही जवाबदेह होगा, किसी सरकार के प्रति नहीं।’ अतः वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त श्री सुनील अरोड़ा पर इतिहास ने यह जिम्मेदारी डाल दी है कि वह हिन्दोस्तान की 17वीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनावों का संचालन करने में केवल संविधान की किताब को देखकर वे फैसले करें जिससे प्रत्येक राजनैतिक दल को बराबरी का अहसास हो सके और कोई भी राजनैतिक दल संविधान के दायरे को तोड़ने की जुर्रत न कर सके।
बिना शक जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 में बार-बार संशोधन करके राजनैतिक दलों ने चुनावों को महंगा और खर्चीला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है परन्तु इसी अधिनियम के अन्तर्गत चुनाव आयोग के पास वे अधिकार पूरी तरह महफूज हैं जिनका इस्तेमाल करके वह सत्ता और विपक्ष में बैठे सभी दलों को एक बराबरी पर लाकर पटक सकता है और घोषणा कर सकता है कि एक निर्दलीय प्रत्याशी और सत्तारूढ़ पार्टी के प्रत्याशी को कानून एक नजर से ही देखता है। क्योंकि दोनों ही जनता की अदालत में अपने लिए समर्थन मांग रहे हैं परन्तु गजब का खेल चल रहा है चुनाव प्रचार के नाम पर कि जिसके मुंह जो कुछ भी आ रहा है वही बक रहा है और जैसे चाहे वैसे ही चीजों को अपने हिसाब से बता रहा है, यहां तक कि तथ्यों को भी इस प्रकार तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है कि झूठ भी शर्माने लगे। लोकतन्त्र केवल जबानी जमा-खर्च का नाम नहीं है बल्कि यह पारदर्शी तरीके से आम जनता का अपने लिए शासन का चुना जाने वाला वह रास्ता है जिसमें हर अमीर-गरीब बराबरी पर तुलता है।
अतः जाहिर है कि हर राजनैतिक पार्टी के बराबर के अधिकार हैं। इन चुनावों में न कोई हिन्दू है न मुसलमान है बल्कि वह केवल एक वोटर है और उसका समर्थन लेने के लिए कोई भी पार्टी केवल संविधान के अनुसार ही मिली राजनैतिक आजादी का इस्तेमाल कर सकती है। संविधान यह निर्देश देता है कि चुनावों में मतदाताओं को धर्म के आधार पर बांटने का प्रयास दंडनीय अपराध है मगर क्या सितम हो रहा है कि हम खुलकर टीवी चैनलों में यह बहस सुन रहे हैं कि कौन नेता हिन्दुओं की तरफदारी कर रहा है और कौन मुसलमानों का पक्ष ले रहा है। चुनाव प्रचार मंे इस प्रकार का विमर्श पूरी तरह संविधान विरोधी है जिसकी तरफ चुनाव आयोग को तुरन्त ध्यान देना चाहिए। एेसा विमर्श किसी भी तरीके से भारत की एकता और अखंडता पर हमला है और दो समुदायों के बीच दुश्मनी पैदा कराने वाला राष्ट्र विरोधी कृत्य है। यह समस्या का एक पहलू है परन्तु दूसरा पहलू भी कम गंभीर नहीं है।
चुनाव आयोग के पास रोजाना शिकायतें आ रही हैं कि सत्तारूढ़ पार्टी की तरफ से चुनावों को प्रभावित करने के लिए एेसे हथकंडे अपनाये जा रहे हैं जिनसे आदर्श चुनाव आचार संहिता का खुला उल्लंघन हो रहा है। इस मामले में वह फिल्म विवाद में आ गई है जो वर्तमान प्रधानमन्त्री पर फिल्म अभिनेता विवेक ओबराय ने बनाई है। जहां तक फिल्म का सवाल है तो उसे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से जोड़कर भी देखा जा रहा है। इस फिल्म को सेंसर बोर्ड की अनुमति मिल चुकी है। बात सिर्फ इतनी सी है कि मौजूदा चुनाव कानून के तहत यदि स्वयं विवेक ओबराय इस फिल्म को अपनी तरफ से प्रधानमन्त्री के चुनाव क्षेत्र में लोगों को दिखाना चाहते हैं तो दिखा सकते हैं क्योंकि कानून में प्रत्याशी का कोई भी समर्थक या मित्र जितना चाहे उतना धन खर्च कर सकता है जिसकी जिम्मेदारी उसे खुद लेनी होगी। सेंसर बोर्ड द्वारा फिल्म को प्रमाण पत्र दिये जाने का आशय यह है कि इसमें कोई भी आपत्तिजनक मसाला नहीं है।
चुनाव आयोग आचार संहिता के अन्तर्गत राजनैतिक बराबरी के अवसर देने के नियमों से बन्धा हुआ है। अतः वह तदनुसार फैसला करेगा मगर उत्तर प्रदेश के छिपे रुस्तम मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ या फरीदाबाद से सांसद कृष्णपाल गुर्जर का क्या करेंगे जो बेलगाम होकर जुबान चलाते हैं। कृष्णपाल कहता है कि विरोधी दलों को बम बांधकर उड़ा दो! हे ईश्वर, कृष्ण के नाम मंे कैसे-कैसे लोग चुनावी मैदान में उतार दिये गये हैं मगर ये लोग भूल जाते हैं कि यह वह भारत है जहां हवलदार अब्दुल हमीद 1965 के भारत-पाक युद्ध में अपनी अकेली तोपगाड़ी से अमेरिकी पैटन टैंकों को तबाह करके पाकिस्तान की फौज को पीछे खदेड़ देता है और स्वयं शहीद हो जाता है। चुनावी बहार तभी तो आयेगी जब जय जवान के साथ जय किसान भी जुड़ा होगा क्योंकि किसान का बेटा ही बहुसंख्या मंे फौज में भर्ती होता है। किसान को कर्जे में मरता देखकर योगी जी जवान की जब हिमायत करते हैं तो पूरी चुनाव प्रणाली को रोना आ जाता है। इसलिए जरूरी है कि सुनील अरोड़ा वह टी. स्वामीनाथन बन कर दिखायें जो इमरजेंसी उठने के बाद देश के चुनाव आयुक्त थे और उन्होंने तय किया था कि आयोग सिर्फ और सिर्फ संविधान की तरफ देखेगा।