लोकसभा चुनावों के अब केवल दो चरण ही शेष बचे हैं इसलिए देशभर के राजनीतिक पंडितों ने चुनाव परिणामों पर अपने आंकलन पेश करने शुरू कर दिये हैं। चुनाव परिणाम जानने का लोकतन्त्र में एक सरल तरीका यह होता है कि चुनावी मैदान में जो भी पक्ष अपने विमर्श पर सामने वाले पक्ष को रक्षात्मक पाले में खड़ा कर रहा है अर्थात जो पक्ष सवाल खड़े कर रहा हो और दूसरा पक्ष उनका जवाब ही दे रहा हो तो सवाल पूछने वाला पक्ष विजयी हो जाता है। दूसरा पैमाना यह होता है कि जब सत्ता पक्ष और विपक्ष में लड़ाई इस तरह हो कि जनता किसी एक पक्ष द्वारा उठाये जा रहे मुद्दों में खुद शामिल हो जाये तो समझ लेना चाहिए कि विजयी वही पक्ष होगा जिसके मुद्दों में जनता खुद को शामिल कर रही है। अक्सर चुनावी पंडित मतदान प्रतिशत को लेकर भी हार-जीत का गणित हल करने लगते हैं । यह गणित वैज्ञानिक तर्क के साथ जब पेश किया जाता है तो हम हार-जीत के निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। यह वैज्ञानिक तर्क है कि जब जनता में असन्तोष होता है तो मतदान प्रतिशत अधिक रहता है। इसका मतलब यह निकलता है कि लोग बदलाव के लिए मत देते हैं जो कि तर्कपूर्ण है।
भारत का चुनावी इतिहास इस बात का गवाह है मगर यह अन्तिम सत्य नहीं है। इसकी वजह यह है कि कभी-कभी मतदाताओं की उदासीनता कम मतदान प्रतिशत पर ही बड़ी हार– जीत तय कर देती है। 1952 में भारत में हुए पहले आम चुनाव में 52 प्रतिशत के लगभग मतदान हुआ था मगर हार-जीत बहुत बड़ी हुई थी जिसमें कांग्रेस पार्टी को तीन चौथाई के करीब बहुमत प्राप्त हुआ था। यह कहना गलत होगा कि उस समय विपक्ष में मजबूत पार्टियां नहीं थीं। उस समय तक कम्युनिस्ट पार्टी देश की दूसरे नम्बर की पार्टी थी और कांग्रेस से निकली हुई समाजवादी पार्टियां भी कांग्रेस के जनाधार में सेंध लगा रही थीं। वर्तमान चुनावों में मतदान के पांच चरण पूरे हो जाने पर संसद की कुल 543 सीटों में से 428 पर चुनाव पूरा हो चुका है। इन्हीं सीटों का गणित देखें तो पूर्ण बहुमत के लिए 272 सीटों का पान विजयी पक्ष के लिए कोई बड़ी बात नहीं है बशर्ते उस पार्टी के पक्ष में देश में हवा बह रही हो परन्तु यह कहना इसलिए कठिन है क्योंकि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी एक समान रूप से भारत के सभी क्षेत्रों में लोकप्रिय नहीं मानी जाती। मगर लोकसभा के चुनाव राष्ट्रीय चुनाव हैं और इनमें राज्यवार प्रभुत्व का विशेष महत्व नहीं देखा जायेगा बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा व कांग्रेस के प्रभुत्व की पहचान व्यापक पैमाने पर की जायेगी। यहीं पर हमें इन दोनों पार्टियों के किये जा रहे विमर्शों की तीव्रता को नापना पड़ेगा और फिर यह देखना पड़ेगा कि किसके विमर्श के साथ जनता की शिरकत ज्यादा है। कांग्रेस महंगाई, बेरोजगारी से लेकर किसानों व गरीबों की व्यथा के मुद्दे उठा रही है।
भाजपा सत्तारूढ़ पार्टी होने की वजह से इन पर सीधा जवाब देने से बच रही है और वह हिन्दुत्व व राष्ट्रवाद के मुद्दे उठा कर इन जमीनी मुद्दों को छोड़ रही है तथा भारत के विश्व की पांचवीं अर्थ व्यवस्था बन जाने पर इन्हें नैपथ्य में रखना चाहती है। गरीबों के लिए मुफ्त अनाज की व्यवस्था करने वाली भाजपा सरकार अपने सिर इसका सेहरा बांध कर कह रही है कि वह गरीबों के दुख से चिन्तित है मगर कांग्रेस सवाल खड़े कर रही है कि जब देश में पिछले 45 सालों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है तो पांचवीं अर्थव्यवस्था बनने का लाभ किसे पहुंच रहा है?और 81 करोड़ लोग गरीबी की रेखा में कैसे पड़े हुए हैं। दर असल ऐसी परिस्थितियों में जनता ही चुनाव लड़ने लगती है क्योंकि वह अपने जमीनी मुद्दों की तरफ सत्ताधारी दल का ध्यान आकर्षित कराना चाहती है। भारत में चुनाव जन अवधारणाओं पर लड़े जाते हैं। भारतीय जनता पार्टी जनसंघ के जमाने से ही इसमें सिद्ध हस्त मानी जाती है। देश में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का जन विमर्श कांग्रेस पार्टी की ही नाकामयाबियों पर ही गढ़ा गया है। श्री मोदी ने भारत की राजनीति के मूल नियामकों में जो परिवर्तन किये उसमें उनकी सबसे बड़ी सफलता सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अमली जामा पहनाना था मगर जनसंघ के जमाने का यह सिद्धान्त एक समान रूप से भारत की वैविध्यपूर्ण लोक संस्कृति पर लागू नहीं होता है क्योंकि यह देश विभिन्न जातीय समुदायों का संगम है। बेशक हिन्दू धर्म की पूरे भारत को एकता के सूत्र में बांधे रखने की क्षमता रही है मगर हिन्दू धर्म स्वयं में ही इतना वैविध्यपूर्ण है कि इसमें देवी–देवताओं की गिनती करना भी आसान नहीं है।
कुल देवता से लेकर ग्राम देवता और इष्ट देवता तक की जो विविधता इस धर्म में समाहित है वह भारत को वास्तव में विभिन्न युग्मीय संस्कृति का देश बनाती है। अतः यह बेसबब नहीं था कि अंग्रेजों से स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत को एक भौगोलिक सीमाओं (टेरीटोरियल स्टेट) का देश कहा। इसके अनुसार भारत के किसी भी भू भाग में रहने वाले किसी भी धर्म के नागरिक को भारतीय का दर्जा दिया गया और किसी एक धर्म की बात नहीं कही गई। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को अपना विमर्श फैलाने में सुविधा इसी वजह से होती है क्योंकि टेरीटोरियल स्टेट का दर्शन इसी के दूरदर्शी नेताओं का है। अतः वर्तमान चुनावों के दौरान देख रहे हैं कि विपक्ष के विमर्श में जनता शिरकत करती नजर आ रही है। यही वजह है कि संविधान भी एक मुख्य चुनावी मुद्दा बना हुआ है क्योंकि संविधान में भारत की हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता के उन सभी तत्वों को समाहित किया गया है जो भारत भूमि की विशेषताएं मानी जाती थीं और जिनमें मानवतावाद को सबसे ऊंचे दर्जे पर रखा गया था। वोट के अधिकार से लेकर जीवन तक के आधिकार को संरक्षण देने वाला संविधान यदि आज एक चुनावी मुद्दा बना हुआ है तो यह भारत के लोकतन्त्र की जीवन्तता का प्रतीक ही है।