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अकेले हिमाचल में चुनाव !

चुनाव आयोग ने हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा कर दी है और गुजरात में होने वाले चुनावों पर रहस्य बनाये रखा है

चुनाव आयोग ने हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा कर दी है और गुजरात में होने वाले चुनावों पर रहस्य बनाये रखा है। हकीकत यह है कि हिमाचल प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल आगामी जनवरी महीने के प्रथम सप्ताह में समाप्त हो रहा है और इसके चालीस दिनों बाद गुजरात विधानसभा के फरवरी महीने में पांच साल पूरे हो रहे हैं। सामान्य तर्क और पुरानी स्थापित परंपराओं के अनुसार आयोग दोनों राज्यों की चुनाव तिथियों की घोषणा एक साथ ही कर सकता था परन्तु उसने एेसा न करके पिछली बार गुजरात के चुनाव हिमाचल प्रदेश के बाद कराये जाने की परंपरा का हवाला दिया और इसे नियम संगत बताते हुए कहा कि दोनों विधानसभाओं के कार्यकाल समाप्त होने में 40 दिनों का अन्तर था अतः उसका फैसला नियमानुसार किया जायेगा। जबकि यह भी हकीकत है कि पिछले वर्ष के अंत में जब उत्तर प्रदेश समेत पंजाब व गोवा आदि समेत पांच राज्यों के एक साथ चुनाव कराये गये थे तो गोवा और उत्तर प्रदेश विधानसभाओं के कार्यकाल की समाप्ति में दो महीनों का अन्तर था। सवाल यह है कि चुनाव आयोग गुजरात और हिमाचल के चुनाव कार्यक्रम एक साथ घो​िषत न करके क्या सन्देश देना चाहता है?
भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में चुनाव आयोग पूरे तन्त्र का आधारभूत स्तम्भ है। बाबा साहेब अम्बेडकर ने देश को संविधान देते हुए इस तथ्य को बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा था। उन्होंने चुनाव आयोग को भारत के लोकतन्त्र की बुनियाद बताते हुए इस पर खड़े तीन खम्भों विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका की इमारत कहा था। अतः चुनाव आयोग की भूमिका लोकतन्त्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण समझी गई और हमारे संविधान निर्माताओं ने इसे पूरी तरह स्वतन्त्र व सरकारों से निरपेक्ष एेसी संस्था के रूप में खड़ा किया जिसे संविधान से ही सीधे शक्तियां मिलती हैं। इसलिए बहुत आवश्यक है कि इसका प्रत्येक फैसला लोकतन्त्र को मजबूत करने वाला होना चाहिए। समाजवादी चिन्तक डा. राममनोहर लोहिया ने जब भारत के लोकतन्त्र को चौखम्भा राज कहा तो उन्होंने तीन खम्भों के साथ स्वतन्त्र मीडिया या प्रेस को भी गिना। उनका यह भी कहना होता था कि लोकतन्त्र लोकलज्जा से चलता है। यह लोकलज्जा नियमों से भी ऊपर होती है जिस प्रकार राजनीति में परिवारवाद की जमकर आलोचना होती है वह इसका सबसे बड़ा उदाहरण कहा जा सकता है। 
भारत में एेसा कोई कानून या नियम नहीं है कि किसी राजनीतिज्ञ पिता पर अपने पुत्र को राजनीति में न लाने का नियम हो, मगर फिर भी हम परिवारवाद की जमकर निन्दा करते हैं। यह लोकलज्जा ही होती है जो किसी राजनीतिज्ञ पुत्र को रक्षात्मक पाले में खड़ा करती है। पिछली बार गुजरात के चुनाव हिमाचल प्रदेश के साथ इस वजह से नहीं कराये गये थे क्योंकि गुजरात में वर्षा और बाढ़ का प्रकोप रहा था। दूसरे यह भी सवाल खड़ा हो रहा है कि हिमाचल चुनाव एक चरण में ही 12 नवम्बर को मतदान होकर निपट जायेंगे मगर मतों की गिनती अगले महीने लगभग 26 दिनों बाद 8 दिसम्बर को होगी। मतदान और मतगणना में इतना बड़ा अन्तर सामान्य स्थिति में तभी होता है जब कुछ राज्यों के चुनाव एक साथ ही कराने की घोषणा चुनाव आयोग करे जिससे विभिन्न राज्यों में अलग-अलग तिथियों में मतदान होने की वजह से मतगणना एक दिन ही कराई जा सके जिससे एक राज्य के चुनाव परिणाम का असर दूसरे राज्य के चुनाव पर न पड़ सके। एेसा लगता है कि चुनाव आयोग गुजरात चुनावों की घोषणा कुछ दिनों बाद ही करना चाहता है जिससे मतगणना एक दिन ही कराई जा सके। परन्तु सवाल उठता है कि हिमाचल में आदर्श चुनाव आचार संहिता आज से ही लागू हो गई है जो नये नियम के अनुसार 57 दिनों तक लागू रहेगी।
 गुजरात चुनाव पर भी यही नियम लागू होता है तो वहां भी आचार संहिता 57 दिनों तक उसी दिन से लागू होगी जिस दिन चुनाव कार्यक्रम घोषित होगा। आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद सरकार किसी नई परियोजना की घोषणा नये चुनाव पूरा होने तक नहीं कर सकती है। चुनाव आयोग अपने फैसले लेने के लिए पूरी तरह स्वतन्त्र होता है। इसका सरकार से कोई लेना-देना नहीं होता। अपनी विश्वसनीयता को बनाये रखने की जिम्मेदारी स्वयं इसी पर ही होती है। मगर मुख्य चुनाव आयुक्त ने हिमाचल चुनावों की घोषणा करते हुए एक महत्वपूर्ण कथन दिया कि मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त सौगात या उपहार बांटने के राजनैतिक दलों के पैंतरों पर कड़ी निगाह रखी जायेगी और इसके लिए उपभोक्ता वस्तुओं की थोक में खरीदारी ‘जीएसटी’ तन्त्र की मार्फत उसकी निगरानी में रहेगी। निष्पक्ष व निर्भय और बिना किसी लालच के चुनाव सम्पन्न कराना आयोग की प्राथमिक जिम्मेदारी होती है। यही वजह है कि जिस राज्य में भी चुनाव होते हैं तो आदर्श आचार संहिता लागू होने के दिन से ही उस राज्य की पूरी प्रशासन व्यवस्था चुनाव आयोग के नियन्त्रण में आ जाती है। राष्ट्रीय चुनाव होने पर यही व्यवस्था केन्द्र सरकार में लागू होती है। इसलिए हमारे संविधान में चुनाव आयोग को चुनावों के समय सर्वशक्तिमान बनाने का प्रावधान चुनावी प्रणाली को पूरी तरह स्वच्छ रखने के लिए किया गया है। यह जिम्मेदारी बहुत बड़ी होती है जिसका पालन भी उसी बड़प्पन के साथ करने की अपेक्षा संविधान करता है।

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