भारत के लोकतन्त्र को चौखम्भा राज बताते हुए संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने साफ किया था कि इनमें से चुनाव आयोग की भूमिका प्राथमिक तौर पर समूची प्रणाली के लिए उत्तरदायित्वपूर्ण होगी क्योंकि आयोग ही इस व्यवस्था के तहत विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के लिए लोकतन्त्र के प्रति समर्पित शासन तन्त्र की जमीन तैयार करेगा। संविधान में चुनावों की देख-रेख व संचालन के लिए पृथक संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की स्थापना इसीलिए की गई जिससे समूची प्रणाली पूरी तरह निरपेक्ष भाव से संविधान से ही अपने अधिकार लेकर लोकतन्त्र को मजबूत कर सके। चुनाव आयोग की प्रमुख जिम्मेदारी निष्पक्ष चुनावों की इस प्रकार नियत की गई कि प्रत्येक नागरिक अपने मत का इस्तेमाल निर्भय व निर्द्वन्द रह कर बिना किसी लालच के अपनी मनमर्जी के मुताबिक कर सके। यह संयोग नहीं है कि जब कोई व्यक्ति मतदाताओं द्वारा चुन कर विधानसभा या लोकसभा अथवा राज्यसभा में पहुंचता है और मन्त्री तक बनता है तो वह संविधान की शपथ लेते हुए यह कसम खाता है कि वह अपने पद का निर्वहन बिना किसी लालच या पक्षपात अथवा द्वेष के करेगा, इसी संविधान की शपथ राष्ट्रपति से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश लेते हैं। अतः बहुत स्पष्ट है कि चुनाव आयोग चुनाव कराने की जब प्रक्रिया शुरू करता है तो उसका मुख्य कार्य मतदाताओं के लिए भयमुक्त वातावरण तैयार करने के साथ ही सभी राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों के लिए एक समान अवसर प्रदान करने का होता है। इसके लिए हमारे जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में विभिन्न धाराएं व उप-धाराएं हैं जिनका प्रयोग करके चुनाव आयोग यह कार्य करता है।
चुनाव आयोग यह कार्य बिना किसी पक्षपात या रागद्वेष के करने के उत्तरदायित्व से संविधानतः बन्धा होता है जिसको पाने हेतु हमारे संविधान निर्माताओं ने इसे अर्ध न्यायिक अधिकार भी दिये। यही वजह रही कि चुनावों को पूरी तरह निष्पक्ष बनाये रखने हेतु नेहरू काल के दौरान ही चुनाव आचार संहिता की बात उठी जिस पर बाद में अमल होना शुरू हुआ, इसकी जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि चुनावों के अवसर पर राजनीतिक दल अधिकाधिक लाभ पाने की गरज से अनापेक्षित रूप से एक-दूसरे की आलोचना में व्यावहारिक व नैतिक सीमाओं का उल्लंघन करने से भी नहीं चूकते थे। अतः इसकी एक सीमा निर्धारित करने हेतु आचार संहिता प्रणाली लागू की गई।
चूंकि चुनाव आयोग के पास अर्ध न्यायिक अधिकार भी हैं और एक बार चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने पर न्यायिक हस्तक्षेप निषेध है तो इस परिपाठी को वैध सहमति की श्रेणी में रखा गया परन्तु यह अधिकार निरंकुश नहीं है। अतः चुनाव समाप्त हो जाने पर चुनाव आयोग के फैसलों की न्यायिक समीक्षा का दरवाजा भी खुला रखा गया। यह सवाल इसलिए सामने आया है क्योंकि मध्य प्रदेश मंे 28 विधानसभाई क्षेत्रों के लिए हो रहे चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस के कद्दावर नेता पूर्व मुख्यमन्त्री श्री कमलनाथ ने भाजपा की इन चुनावों में एक प्रत्याशी श्रीमती इमरती देवी को ‘आइटम’ कह दिया, इसकी भाजपा द्वारा शिकायत करने पर चुनाव आयोग ने उनका इन चुनावों में स्टार प्रचारक का दर्जा वापस ले लिया, इसके साथ ही आयोग ने भाजपा नेता विजयवर्गीय द्वारा श्री कमलनाथ व दिग्विजय सिंह की जोड़ी को चुन्नु-मुन्नु कहे जाने पर भी चेतावनी जारी की और भविष्य में ऐसी भाषा का इस्तेमाल न करने की ताईद की। भाषा विदों की मानें तो दोनों ही शब्द बोलचाल की भाषा मे आम लोगों द्वारा दैनिक व्यवहार में लाये जाने वाले शब्द हैं। कांग्रेस पार्टी ने इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का फैसला किया है।
दरअसल इसका सम्बन्ध भारत की उस सामाजिक व भाषायी विविधता से सीधे जाकर जुड़ता है जिसमें दशकों भाषाएं और हजारों बोलिया हैं। भारत के बारे में एक पुरानी कहावत बहुत प्रसिद्ध है कि हर दस मील पर इसकी बोली बदल जाती है। एक अंचल में बोले जाने वाले शब्द का अर्थ दूसरे अंचल में जाकर दूसरे सन्दर्भों में देखा जाने लगता है। अतः आइटम और चुन्नु- मुन्नु शब्दों को हमें इसी नजरिये से परखना होगा। दोनों ही शब्दों में शालीनता भंग होने का अन्देशा नहीं है क्योंकि इनका भाव आक्रमणकारी न होकर व्यंग्यात्मक है। दोनों ही शब्द अभद्रता की सीमा में भी नहीं आते हैं क्योंकि दोनों का उद्गम उपहास करने की भद्र संस्कृति से हुआ है।
श्री कमलनाथ ने हालांकि इस शब्द के प्रयोग पर खेद व्यक्त कर दिया मगर ‘आइटम’ शब्द संसदीय शब्दों की शृंखला में आता है जिसकी वजह से सरकार या संसद में किसी महिला नेता तक के प्रमुख पद पर नियुक्त होने पर उनके नाम से पहले आइटम नम्बर लगाया जाता है। इसी प्रकार चुन्नु-मुन्नु शब्द का प्रयोग भी असंसदीय नहीं है। इस शब्द का उद्गम भारतीय संस्कृति में प्रचिलित राम-लक्ष्मण की जोड़ी का लोकान्तर ही है जिसे लोक व्यवहार में व्यंग्यात्मक रूप दे दिया गया। सामान्य भाव में इसे पक्की मित्रता के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। वास्तव में चुनाव आयोग के लिए चिन्ता का विषय चुनाव प्रचार में बोली जाने वाली कड़वी बोली होनी चाहिए जो प्रत्यक्ष रूप से पूरे वातावरण को विषैला बनाती है। चुनाव चूंकि लोकतन्त्र का उत्सव होते हैं। अतः इसमें से हास-परिहास के वातावरण को समाप्त करना आम लोगों की भागीदारी को सीमित करना ही माना जायेगा। सिर्फ देखना यह होता है कि यह अश्लील न हो। चुटकुलेबाजी का प्रयोग करते हुए राजनीतिक पेंचों को खोलना भी एक कला होती है वरना हिन्दी साहित्य में नौ रसों की व्याख्या क्यों की जाती जिनमें ‘हास्य’ रस को भी रखा गया है। इन रसों का प्रयोग केवल काव्य (पद्य) में ही नहीं होता बल्कि गद्य (निबन्ध) में भी होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हिन्दी के प्रख्यात निबन्धकार स्व. पंडित प्रताप नारायण मिश्र थे जिन्होंने अपने एक लेख में लिखा था,
‘‘चूरन खाये एडिटर जात, जिनके पेट पचे नहीं बात
चूरन पुलिस वाले खाते, सब कानून हजम कर जाते।’’