चुनाव-प्रबंधन : कितना महंगा हो चला है लोकतंत्र

चुनाव-प्रबंधन : कितना महंगा हो चला है लोकतंत्र
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वैसे यह भी अविश्वसनीय लगता है। पार्टी टिकट के लिए करोड़ों का खर्च प्रति उम्मीदवार। शक्ति प्रदर्शन की पहली रैली व जुलूस पर खर्च 50 से 60 लाख (इसमें वाहनों का खर्च, प्रचार सामग्री, बैनर, झंडे, माइक व एक सीमा तक मीडिया-प्रबंधन शामिल)। नामांकन-पत्र दाखिल करने के बाद पांच से सात तक बड़ी रैलियां- कुल खर्च प्रति रैली 50 लाख से एक करोड़ रुपए। उसके बाद घर-घर संपर्क और कुछ बस्तियों में दारू-सेवा एवं दक्षिणा, इसकी कोई सीमा नहीं। कुल मिलाकर हर गंभीर उम्मीदवार 8 से 10 करोड़ रुपए का बजट लेकर चलता है।
सिलसिला यहीं थम नहीं जाता। जो भी जीतेगा, उसे विजयोत्सव के लिए भी धन खर्च करना होगा। इस सारे तामझाम भी वेब-दुनिया एवं 'कम्प्यूटर वार-रूम' का खर्च अलग से करना होता है। 'वार-रूम' में सिर्फ प्रत्याशी की उपलब्धियों, योग्यताओं के विवरण नहीं होते। विरोधी पक्ष के खिलाफ अंधाधुंध आरोपों की बारिश के लिए 'कंटेंट-राइटर' भी रखे जाते हैं। हर प्रत्याशी के पास इतना नगद धन नहीं होता। इस 'यज्ञ' में कुछ सम्पन्न समर्थक, यार दोस्त और संबंधी भी आहुति डालते हैं। 'सोशल मीडिया' पर प्रदूषण फैलाने के लिए अलग प्रकोष्ठ बनता है।
अब ऐसा तो नहीं होता कि विजयी प्रत्याशी ऐसे चुनाव के बाद सारे माहौल से विरक्ति या वितृष्णा का शिकार हो जाता है। ज़ाहिर है घाटा पूर्ति पर पहली नजर होती है और फिर नौकरियों, टेंडरों पर नज़रें गढ़ाए समर्थकों व 'प्रियजनों', परिजनों की बारी आती है।
पुरानी बातों, आदर्श परम्पराओं और आदर्शवादी नेताओं के किस्से दोहराने से कोई लाभ नहीं। बेहतर यही है कि शास्त्री जी, कामराज, देसाई, कृपालानी, राजनारायण, लोहिया आदि के किस्सों के उदाहरण टेप-बद्ध या लिपिबद्ध या फिर 'सिने-वीडियो' के रूप में एक संग्रहालय में रख दिए जाएं और बाहर एक शिलालेख लग जाए 'अविश्वसनीय, अकल्पनीय मगर सत्य। कभी कभार स्कूली बच्चों व विदेशी पर्यटकों को इधर लाया जाए और उन्हें ये किस्से कहानियां नि:शुल्क उपहारों सहित बांटी जाएं।
देश का पहला चुनाव 1951-52 में हुआ था। यह प्रक्रिया 25 अक्तूबर, 1951 से 21 फरवरी, 1952 तक चली थी। उस समय लोकसभा की 489 सीटें होती थीं। उस पहले चुनाव में कांग्रेस को 364, सीपीआई (तब इसमें माकपा भी शामिल थी) को 16 व जेपी-लोहिया के समाजवादी दल को 12 स्थान मिले। तब भी कुछ विलक्षण घटनाएं घटीं थीं।
– भारतीय संविधान के निर्माता युगपुरुष एवं दलित नेता बाबा साहब अम्बेडकर भी चुनाव हार गए थे। तब उनके विरुद्ध कांग्रेस पार्टी ने अपना प्रत्याशी खड़ा किया था।
अम्बेडकर के विरुद्ध कांग्रेस ने फहराया था जीत का परचम। इससे पहले आम चुनाव के लिए मतदान का काम फरवरी 1952 के आखिरी सप्ताह में खत्म हो गया। जब मतगणना हुई तो कांग्रेस आसानी से जीत गई। कांग्रेस पार्टी को संसद में 489 में से 364 सीटों पर और पूरे देश में 3280 विधानसभा सीटों में से 2247 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। पूरे संसदीय चुनाव में कांग्रेस को कुल मतदाताओं का 45 फीसदी वोट हासिल हुआ था और इसने 74.4 फीसदी सीटों पर जीत दर्ज की थी। जबकि राज्य विधानसभाओं के लिए हुए चुनाव में इसे कुल मतों का 42.4 फीसदी हासिल हुआ था। इसने 68.6 फीसदी सीटों पर कब्जा जमाया था। लेकिन इस माहौल में भी कांग्रेस के 28 मंत्री चुनाव में हार गए थे।
लेकिन इस चुनाव में सबसे हैरानी वाला परिणाम डॉ. भीमराव अंबेडकर की हार रही थी। उनकी पहचान देश भर में अनुसूचित जातियों के कद्दावर नेता के तौर पर थी। लेकिन बंबई में उनके निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस ने तब अंबेडकर के सामने उनके पीए नारायण एस काजरोलकर को खड़ा किया था। वह भी बैकवर्ड क्लास से थे। इसके अलावा कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा से भी एक-एक प्रत्याशी था। नारायण काजरोलकर दूध का कारोबार करने वाले एक नौसिखिए नेता थे। लेकिन नेहरू की लहर इतनी तेज़ थी कि नारायण काजरोलकर 15 हजार वोटों से जीते थे। अंबेडकर चौथे स्थान पर रहे थे।
आखिर में कांग्रेस की पकड़ काजरोलकर के पक्ष में काम कर गई। इसके अलावा नेहरू ने बंबई में जो भाषण दिए थे वो भी काजरोलकर के पक्ष में रहे। अंबेडकर आज़ादी के आंदोलन में सबसे प्रमुख शख्सियतों में से थे। देश में उनके जैसा पढ़ा-लिखा उस समय शायद ही कोई था। अर्थशास्त्र से दो डॉक्टरेट की डिग्रियां। एक अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी से, दूसरी लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से। अंबेडकर की योग्यता को देखते हुए उन्हें संविधान की 'ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष भी बनाया गया था। हिंदू महासभा (अब बीजेपी) का दावा था कि नेहरू ने अंबेडकर को राजनीति की मुख्य धारा में नहीं आने दिया। उनकी हार सुनिश्चित करने के लिए खुद नेहरू ने चुनाव प्रचार भी किया। सन् 1954 में भी नेहरू ने ही दूसरी बार पक्का किया कि वह भंडारा से उपचुनाव में न जीतने पाएं। डॉ. अंबेडकर का 1956 में निधन हो गया था।
सबसे बड़ी जीत रही कम्युनिस्ट नेता की
लेकिन उस चुनाव में एक और चौंकाने वाली बात यह थी कि कम्युनिस्ट नेता रवि नारायण रेड्डी, जिन्होंने चुनावों में व्हिस्की का पहला जाम पिया था और फिर भी सबसे बड़ी जीत हासिल की थी। उनकी जीत का अंतर जवाहर लाल नेहरू की जीत के अंतर से भी ज्यादा था।
नेहरू का प्रथम चुनाव भी कम नहीं था। तब हर क्षेत्र से दो-दो प्रत्याशी चुने जाते थे। एक सामान्य वर्ग से और दूसरा अनुसूचित वर्ग से। नेहरू के साथ ही कांग्रेस के मसूरियादीन भी निर्वाचित हुए थे। तब संघ-परिवार के समर्थन से प्रभुदत्त ब्रह्मचारी उनके विरुद्ध लड़े थे। मगर वह तीसरे स्थान पर रहे थे। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने गोरक्षा और हिन्दू कोड बिल के मुद्दे उठाए थे। आचार्य कृपालानी के प्रत्याशी के रूप में श्री बंसीलाल थे। (हरियाणा वाले नहीं) वह दूसरे स्थान पर रहे थे। इस तरह अनेक विसंगतियों के मध्य पहला चुनाव सम्पन्न हुआ था।

– डॉ. चंद्र त्रिखा

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