Election Of Lok Sabha Speaker: लोकसभा अध्यक्ष का सीधा चुनाव!

Election of Lok Sabha Speaker: लोकसभा अध्यक्ष का सीधा चुनाव!

Election of Lok Sabha Speaker: नई 18वीं ससंद का सत्र 24 जून से शुरू होने जा रहा है। सत्र का उद्घाटन राष्ट्रपति के सम्बोधन से होगा इसके बाद नई संसद का पहला काम लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव करना होगा। संसदीय लोकतन्त्र में अध्यक्ष का पद सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि संसद की कार्यवाही का सारा दारोमदार अध्यक्ष पर ही निर्भर करता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने जो व्यवस्था की है उसके अनुसार अध्य़क्ष पद दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर होना चाहिए और इस पर बैठने वाले व्यक्ति का रुतबा न्याय प्रेमी विक्रमादित्य जैसा होना चाहिए। बेशक शुरू में सत्तारूढ़ पार्टी ही इस पद पर अपना प्रत्याशी निर्वाचित कराती थी क्योंकि तब लोकसभा में विपक्षी सांसद नाममात्र के ही होते थे मगर अध्यक्ष पद पर निर्वाचित होने वाले सांसद अपनी पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे देते थे जिससे उन पर पक्षपात का आरोप कोई न लगा सके परन्तु बाद में यह परंपरा समाप्त सी होती चली गई।

अध्यक्ष के साथ उपाध्यक्ष का चुनाव भी कुछ समय बाद लोकसभा में कराया जाता है। इस पद के लिए चुनाव कराने की जिम्मेदारी अध्यक्ष की ही होती है परन्तु पिछली लोकसभा बिना उपाध्यक्ष के ही पूरी हो गई। इसकी वजह यह बताई जा रही है कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी नहीं चाहती थी कि इस पद पर विपक्ष का कोई सदस्य बैठे। भारत में 1967 के बाद से यह परंपरा कायम हुई कि अध्यक्ष पद सत्तारूढ़ दल के पास रहे और उपाध्यक्ष पद पर विपक्ष का सांसद बैठाया जाये जिससे संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चल सके परन्तु पिछली लोकसभा में इस परंपरा को तोड़ दिया गया और उपाध्यक्ष पद का चुनाव ही नहीं कराया गया। इसे केवल संसद का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है क्योंकि पिछली लोकसभा में जो संसदीय नजीरें पेश करने की कोशिश की गईं उनसे लोकतन्त्र पर भारी आघात लगा। अध्यक्ष का पद पूरी तरह से अराजनैतिक तो होता ही है मगर सरकार का हिस्सा भी नहीं होता। हमारे संविधान निर्माता यह पुख्ता व्यवस्था करके गये कि लोकसभा अध्यक्ष की सत्ता पूर्णतः स्वतन्त्र रहे और उसकी सरकार पर निर्भरता लेशमात्र भी न रहे। इसके लिए भारत की संसद के प्रथम लोकसभा अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर ने बहुत गहन अध्ययन किया था और इस पद पर बैठने से पहले ही अध्यक्ष की स्वतन्त्र सत्ता के पूरे इन्तजाम बांध दिये थे। उनका पृथक सचिवालय स्थापित किया गया तथा संसद परिसर का पूरा इन्तजाम उनके हाथ में दिया गया परन्तु जब से भारत में गठबन्धन सराकरों का दौर चला है तब से अध्यक्ष पद को लेकर यह सर्वानुमति रही है कि यह पद मुख्य सत्ताधारी दल के सहयोगी दलों के पास जाना चाहिए जिससे संसद में पूरी तरह सन्तुलन बना रहे और उपाध्यक्ष पद पर विपक्ष के सांसद को विराजमान किया जाना चाहिए।

1977 में जब पहली बार कथित गैर कांग्रेसी मोरारजी सरकार गठित हुई थी तो अध्यक्ष पद संगठन कांग्रेस के नेता श्री संजीव रेड्डी को दिया गया था जो जनता पार्टी का प्रमुख घटक दल थी। इसके बाद 1989 में जनता दल की सरकार बनने पर संसोपा के श्री रबिराय को यह पद दिया गया। 1996 में केन्द्र में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनने पर यह पद राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता स्व. पूर्णों संगमा को दिया गया। जब 1998 में एनडीए की वाजपेयी सरकार बनी तो इस पद पर सहयोगी दल तेलगू देशम के स्व. जी.एम. बालयोगी को बैठाया गया। बाद में 2004 में जब डा. मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार बनी तो इस सरकार को बाहर से समर्थन देने वाली पार्टी मार्क्सवादी पार्टी के नेता श्री सोमनाथ चटर्जी को इस पद पर बैठाया गया परन्तु 2009 में पुनः डा. मनमोहन सिंह के प्रधानमन्त्री बनने पर कांग्रेस ने सभी सहयोगी दल की राय लेकर अपनी सांसद मीरा कुमार को इस पद पर बैठाया परन्तु उपाध्यक्ष पद विपक्ष के अकाली दल के सांसद को दिया।

2014 में उपाध्यक्ष पद भाजपा ने अपने सहयोगी दल अन्नाद्रमुक के श्री थम्बी दुरै को दिया जबकि अध्यक्ष पद पर अपनी सांसद श्रीमती सुमित्रा महाजन को बैठाया। मगर 2019 में अध्यक्ष पद पर भाजपा ने अपने प्रत्याशी ओम बिड़ला को बैठा कर उपाध्यक्ष पद को खाली ही बनाये रखा। अब नई 18वीं लोकसभा में विपक्ष बहुत मजबूती के साथ उभरा है। इंडिया गठबन्धन के कुछ 234 सांसद हैं और भाजपा के 240 तथा उसके सहयोगी दलों के साथ मिला कर उसके 293 सांसद हैं। इस प्रकार देखा जाये तो भाजपा के सहोयगी दलों की सदस्य संख्या 53 सांसद हैं। ये सहयोगी दल चाहते हैं कि अध्यक्ष उन्हीं में से किसी एक दल का सांसद बने। सबसे बड़े सहयोगी दल तेलगू देशम (16 सांसद) व जनता दल (यू- 12 सांसद) हैं।

विशेष कर तेलगू देशम चाहती है कि पहले की वाजपेयी सरकार की भांति अध्यक्ष पद उनके पास ही आना चाहिए। मगर भाजपा इसके लिए फिलहाल राजी नहीं हो रही है जिसकी वजह से गठबन्धन का भविष्य इस पद पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। भाजपा के सहोयगी दल धर्मनिरपेक्ष व पूर्ण लोकतान्त्रिक तरीके से चलने वाले माने जाते हैं। संसदीय परंपराओं में इनका विश्वास रहा है और ये जानते हैं कि अध्यक्ष पद पर बैठे व्यक्ति के अधिकार संसद व सांसदों के मामले में कितने व्यापक होते हैं। विभिन्न दलों के बीच जो तोड़फोड़ की राजनीति पिछले पांच साल चलती रही है उससे भी ये दल घबराये हुए हैं। इन्हें अपने अस्तित्व को बचाये रखने की भी चिन्ता है। यही वजह है कि तेलगू देशम व जनता दल (यू) केन्द्र सरकार में ‘छलनी के छालन’ मन्त्रालय लेकर भी कुछ नहीं बोल रहे हैं क्योंकि हर हालत में ये अध्यक्ष पद चाहते हैं।

इन्हें विश्वास है कि इस मुद्दे पर उन्हें विपक्षी इंडिया गठबन्धन का भी पूरा समर्थन मिलेगा क्योंकि विपक्ष को भी इस बार अपना उपाध्यक्ष चुनवाना है। राजनीति में असंभव कुछ भी नहीं होता है। जो संकेत मिल रहे हैं उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि सहयोगी दल अपना अलग से एक गुट बना कर भाजपा से अध्यक्ष पद लेने का प्रयास करेंगे। अध्यक्ष ही उपाध्यक्ष का चुनाव कराते हैं जिससे विपक्ष को भी अपना उपाध्यक्ष चुनवाने में कोई दिक्कत नहीं आयेगी। इससे लोकसभा अधिक जानदार और शानदार तरीके से चलेगी और संसद में बहस- मुबाहिसों का एक नया दौर भी शुरू होगा जो पिछली लोकसभा से पूरी तरह गायब हो गया था। विपक्षी सांसदों को थोक के भाव निलम्बित करा कर विधेयक पर विधेयक पारित करा लिये गये थे। लोकतन्त्र का सबसे बड़ा आभूषण संसदीय परिपाटियां व परंपराएं ही होती हैं।

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