Election Of Lok Sabha Speaker: लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव

Election of Lok Sabha Speaker: लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव

Election of Lok Sabha Speaker: लोकसभा अध्यक्ष पद को लेकर जिस तरह सत्ता पक्ष और विपक्ष में तनातनी बढ़ी और नौबत चुनाव तक आ पहुंची वह किसी भी तरीके से संसदीय लोकतन्त्र में उच्च परंपराओं का निर्वाह नहीं था क्योंकि अध्यक्ष किसी राजनैतिक दल के नहीं बल्कि लोकसभा के होते हैं और लोकसभा सत्ताधारी गठबन्धन व विपक्षी गठबन्धन को मिला कर बनी हुई होती है। हमारा लोकतन्त्र कुछ स्वस्थ परिपाटियों व लिखित नियमों व अलिखित परंपराओं से चलता है जिनका पालन करने से हम राजनीति में नैतिकता को स्थापित करते हुए चलते हैं। बहुत स्पष्ट था कि अध्यक्ष पद पर यदि चुनाव होता है तो लोकसभा के भीतर दलगत समीकरणों का संख्या बल देखते हुए विजय सत्ताधारी पक्ष के प्रत्याशी की ही होगी मगर अपना पक्ष सशक्त रूप से रखने के लिए विपक्षी गठबन्धन ने अपना प्रत्याशी उतारा और अपनी हार कबूल की। इस पद पर भारतीय जनता पार्टी के कोटा (राजस्थान) से सांसद श्री ओम बिड़ला पुनः चुने गये हैं जबकि पिछली बार 2019 में उनका सर्वसम्मति से चुनाव हुआ था। इस बार हुए चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी केरल से सांसद श्री के. सुरेश को पराजय हाथ लगी। हालांकि पूर्व में भी ऐसे मौके कई बार आये जब अध्यक्ष पद को लेकर चुनाव हुआ मगर हम उन अवसरों को याद रखना पसन्द नहीं करते हैं क्योंकि ये हमारी राजनैतिक नैतिकता को चुनौती देते हुए लगते हैं।

श्री बिड़ला के पुनः प्रत्याशी बनाये जाने पर विपक्ष को असली ऐतराज इस बात पर था कि पिछली 17वीं लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद पूरे पांच साल खाली पड़ा रहा और श्री बिड़ला ने इसे भरने का कोई प्रयास नहीं किया। उपाध्यक्ष का चुनाव करने की मूल जिम्मेदारी अध्यक्ष पर ही होती है। अध्यक्ष का कार्यालय ही उपाध्यक्ष पद की अधिसूचना जारी करता है। पिछली लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद पूरे पांच साल खाली क्यों पड़ा रहा, इसका सन्तोषजनक उत्तर सत्ताधारी पार्टी ने नहीं दिया जिसकी वजह से 18वीं लोकसभा की शुरूआत में विपक्ष ने यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि यदि सत्तारूढ़ पक्ष यह आश्वासन दे कि वह उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को देगा तो वह अध्यक्ष पद के लिए उसके प्रत्याशी का समर्थन करेगा किन्तु ऐसा आश्वासन विपक्ष को सत्ता पक्ष की ओर से नहीं मिला जिससे सीधे टकराव की नौबत आ गई। कुछ लोग सोच सकते हैं कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को ही मिले।

लोकतन्त्र में राजनैतिक नैतिकता का बहुत महत्व होता है। इसकी मूल वजह यह होती है कि इस प्रणाली में सत्तारूढ़ पक्ष व विपक्षी पक्ष दोनों का ही चुनाव जनता करती है। बेशक लोकसभा में संख्या बल के आधार पर सरकारों का गठन होता हो मगर इसके केन्द्र में आम जनता ही रहती है। बहुमत की सरकार का मतलब केवल इतना ही होता है कि देश की आम जनता को शासन देने की एक व्यवस्था कायम की जाये क्योंकि लोकतन्त्र में लोगों द्वारा, लोगों के लिए, लोगों की सरकार ही गठित होती है। इसी से यह भाव निकलता है कि लोकसभा का अध्यक्ष सर्वसम्मति से बनना चाहिए क्योंकि वह हरेक दल के चुने हुए सांसद के अधिकारों का संरक्षक होता है। ये अधिकार हर दल के सदस्य के बराबर होते हैं।

अतः अध्यक्ष को सदन का ‘विक्रमादित्य’ भी कहा जाता है क्योंकि किसी भी पार्टी का सांसद उसके समक्ष एक समान होता है औऱ वह प्रत्येक के साथ बराबरी के साथ न्याय करता है। श्री बिड़ला के पिछले कार्यकाल में लोकसभा में जो कुछ भी हुआ उसके प्रति भी विपक्षी सांसद आसंकित थे। लोकतन्त्र में हर कदम पर हिस्सेदारी की व्यवस्था होती है। सत्ता पर काबिज हुई किसी भी दल की सरकार में विपक्ष की भी परोक्ष हिस्सेदारी रहती है। हमारे पुरखें हमें जो व्यवस्था सौंप कर गये हैं उसमें हिस्सेदारी इसके मूल में समाहित है। यही वजह है कि संसद के भीतर सरकार जब भी कोई प्रस्ताव या विधेयक रखती है तो उस पर बाकायदा बहस कराई जाती है और विपक्ष से उसके सुझाव मांगे जाते हैं जबकि पहले से ही पता होता है कि सरकार का लोकसभा में बहुमत है। हमने द्विसदनीय राज्यसभा व लोकसभा की जो व्यवस्था संसद में कायम की है वह भी इसी वजह से है कि लोकतन्त्र में हिस्सेदारी का भाव कभी भी मर न सके। अक्सर एेसा होता है कि लोकसभा में तो सत्ता पक्ष का बहुमत होता है मगर राज्यसभा में वह अल्पमत में रह जाती है। ऐसा भारत की राजनैतिक विविधता की वजह से होता है क्योंकि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग राजनैतिक दलों की सरकारें हो सकती हैं।

राज्यसभा में जो सदस्य चुन कर आते हैं उनका चुनाव राज्य विधानसभा के चुने हुए सदस्य ही करते हैं जिससे इस सदन में आनुपातिक राजनैतिक समीकरण बनते हैं। ये समीकरण ही कभी-कभी चेतावनी देते हैं कि सरकार को विपक्ष के सुझावों को दरकिनार नहीं कर देना चाहिए। हमारी संसदीय व्यवस्था और इसे चलाने के नियम अनूठे हैं। जो हमेशा सचेत करते रहते हैं कि सर्वसम्मति ही सरकार चलाने की एक शर्त होती है। अतः अध्यक्ष पद के लिए सर्वसम्मति को अलिखित नियम सा मान लिया गया। आज लोकसभा में चुनाव तो हुआ मगर ध्वनिमत से ही श्री बिड़ला विजयी घोषित कर दिये गये और विपक्ष के किसी सांसद ने इस पर मत विभाजन की मांग नहीं की। जबकि इस चुनाव में पार्टी व्हिप भी जारी नहीं होता है। अतः स्पष्ट है कि विपक्ष सांकेतिक लड़ाई लड़ना चाहता था। मगर लोकतन्त्र में संकेतों के बहुत बड़े मायने होते हैं। संकेतों के माध्यम से ही सत्ता पक्ष और विपक्ष अपने-अपने विमर्श गढ़ते हैं और फिर उन पर जनसमर्थन चाहते हैं। इसलिए बहुत जरूरी है कि लोकसभा के भीतर पुरानी स्वस्थ परिपाटियों का पालन हो और विपक्ष व सत्ता पक्ष इनका शुद्ध अन्तःकरण से परिपालन करें। यह कार्य अध्यक्ष महोदय को ही देखना होता है। यही वजह है कि श्री बिड़ला को बधाई देने वालों में विपक्ष के नेता भी आगे रहे।

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