कर्नाटक में चुनाव प्रचार अब ‘शबाब’ पर आता जा रहा है और राज्य की राजनीति के बड़े-बड़े दिग्गज अपना चुनावी नामांकन लगभग भर चुके हैं। आगामी 10 मई को होने वाले मतदान के बारे में एक बात बेखौफ होकर कही जा सकती है कि इस बार राज्य में सीधे विपक्षी पार्टी कांग्रेस व सत्तारूढ़ दल भाजपा के बीच लगभग आमने-सामने की लड़ाई लगती है। हालांकि कर्नाटक में पूर्व प्रधानमन्त्री श्री एचडी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल ( स) का भी अस्तित्व है और इसके नेता श्री देवगौड़ा के पुत्र एचडी कुमारस्वामी चुनावी लड़ाई को पुराने मैसूर इलाके की 50 से अधिक सीटों पर त्रिपक्षीय बनाने का प्रयास ही कर रहे हैं मगर प्रदेश की फिजां को देख कर लग रहा है कि इस बार मतदाताओं के मन में किसी भी एक दल को पूर्ण ठोक कर बहुमत देने का विचार पल रहा है जिसके बहुत से राजनीतिक कारण बताये जा रहे हैं मगर सबसे बड़ा कारण पिछले पांच सालों के दौरान राज्य प्रशासन द्वारा लिये गये वे फैसले कहे जा रहे हैं जिनकी वजह से आम जनता के बीच दलगत उदासीनता का भाव बना है।
कर्नाटक के ये चुनाव जिस समय हो रहे हैं उसका देश की राजनीति में बहुत महत्व माना जा रहा है। ये चुनाव अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों का दिशा सूचकांक भी कहे जा रहे हैं। मगर लोकसभा चुनावों से पहले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान व तेलंगाना के चुनाव भी इसी वर्ष के दिसम्बर महीने तक होने हैं अतः इन राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों को कुछ राजनैतिक विश्लेषक लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल बता रहे हैं। मगर यह बताते हुए हमें यह सावधानी बरतनी होगी कि भारत के मतदाता राज्य विधानसभा और राष्ट्र के लोकसभा चुनावों में अलग-अलग राजनैतिक बोधों के तहत मतदान करते हैं जिसका उदाहरण अभी तक हुए कई चुनाव हैं। कर्नाटक चुनावों का महत्व इसलिए बहुत ज्यादा माना जा रहा है कि इनके परिणामों से अगले लोकसभा चुनावों तक का राजनैतिक पारा तय होगा। ये चुनाव प्रत्येक राजनैतिक दल अपने अलग वजूद के आधार पर लड़ रहा है जबकि लोकसभा चुनावों के बारे में कयास लगाये जा रहे हैं इनमें समूचा विपक्ष एक इकाई के रूप में सत्तारूढ़ भाजपा का मुकाबला कर सकता है। परन्तु कर्नाटक भारत का बहुत महत्वपूर्ण राज्य है जिसे उत्तर को दक्षिण को जोड़ने वाला पुल भी कहा जाता है।
भारत के इतिहास में भी इस राज्य का विशिष्ट स्थान रहा है और यहां की संस्कृति व कला की छाप पूरे भारत पर पड़ती रही है। इसी प्रकार भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में भी इस राज्य ने एक से बढ़कर एक कद्दावर नेता दिये हैं जिनमें स्व. निजलिंगप्पा का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। इसके साथ ही देवराज उर्स जैसे नेता भी इस राज्य ने दिये हैं जिन्होंने मैसूर राज्य का नाम बदल कर कर्नाटक किया था। वर्तमान में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कांग्रेस के श्री सिद्धरमैया व भाजपा के श्री बासवराज बोम्मई के अलवा भाजपा के ही श्री बीएस येदियुरप्पा व्यापक जनाधार के नेता रहे हैं। ये तीनों ही राज्य के मुख्यमन्त्री रहे हैं जिनमें से श्री बोम्मई तो वर्तमान में भाजपा सरकार चला रहे हैं। हालांकि इस सरकार को जोड़-तोड़ से बनाने में येदियुरप्पा की भूमिका ही महत्वपूर्ण रही है। मगर श्री येदियुरप्पा ने अब चुनावी राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी है और अपने स्थान पर अपने पुत्र विजेन्द्र को आगे बढ़ा दिया है। श्री सिद्धरमैया ने भी कल अपना नामांकव पत्र भरते समय घोषणा की कि यह उनका अंतिम विधानसभा चुनाव होगा इसके बाद वह चुनावी राजनीति से संन्यास ले लेंगे। श्री सिद्धरमैया 2013 से लेकर 2018 तक सफल मुख्यमन्त्री रहे हैं और उन्होंने अपने राज्य में सामाजिक न्याय के लिए कई महत्वपूर्ण फैसले भी किये। वह मूल रूप से गढ़रिया जाति से सम्बन्ध रखते हैं और ग्रामीण पृष्ठभूमि की राजनीति के विशेषज्ञ माने जाते हैं। उन्होंने अपना जीवन जनता दल से शुरू किया और बाद में कांग्रेस पार्टी में आये परन्तु उनकी राजनीति का केन्द्र साधारण नागरिक का विकास ही रहा और वह हमेशा शहरी कही जाने वाली राजनीति से बचते रहे जबकि वर्तमान मुख्यमन्त्री श्री बोम्मई की राजनैतिक पृष्ठभूमि भी जनता दल की ही रही है क्योंकि उनके पिता स्व. एसआर बोम्मई इसी पार्टी से राज्य के मुख्यमन्त्री रहे थे। मगर उन्हें भाजपा की तरफ खिंचाव महसूस हुआ और वह इस पार्टी में चले आये। लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि उन्हें सरकार की कमान श्री येदियुरप्पा के बाद बीच में ही दी गई जिसकी वजह से उनके सिर पर अब तक चली उनकी पार्टी की सरकार का पूरा दायित्व आ गया है।
विडम्बना यह मानी जा रही है कि उनकी सरकार पर 40 प्रतिशत कमीशन की सरकार का आरोप चस्पा किया जा रहा है जबकि व्यक्तिगत रूप से उनकी ईमानदारी का लोहा उनके कट्टर विरोधी भी मानते हैं। कर्नाटक के चुनावों में इस प्रकार के विरोधाभासों को भी इस बार देखा जा रहा है। अतः कुछ राजनैतिक विश्लेषक इन चुनावों को विरोधाभासों के बीच पैदा हो रही राजनैतिक चेतना का चुनाव भी बता रहे हैं। मगर इतना निश्चित माना जा रहा है कि इन चुनावों में भाजपा व कांग्रेस दोनों की तरफ से ऐसे चुनावी विमर्शों की कमी नहीं रहेगी जिनसे आम मतदाता का बुद्धि परीक्षण बहुत कस कर किया जा सके। इसका पहला पैमाना यही है कि इस बार 2018 की तरह जनता दल (स) बहुत सक्रिय नजर नहीं आ रहा बल्कि हांशिये पर पड़ा दिखाई दे रहा है और भाजपा व कांग्रेस दोनों ही एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं कि उनकी जनता दल (स) के साथ अन्दरखाने सांठगांठ हो सकती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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