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चुनावी मुद्दे जनता तय करेगी?

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लोकसभा चुनावों के लिए जिस तरह विभिन्न राजनैतिक दल अभी तक वह चुनावी एजेंडा तय कर पाने में असमर्थ हो रहे हैं जिसके इर्द-गिर्द पूरी सियासत सिमटती दिखाई लगे तो इसका सीधा मतलब यही है कि यह महत्वपूर्ण कार्य स्वयं इस देश के मतदाताओं को ही करना पड़ेगा और सरकार से लेकर विपक्षी पार्टियों को समझाना पड़ेगा कि लोकतन्त्र की असली मालिक जनता ही होती है। यह ऐसी व्यवस्था गांधी बाबा ने डा. भीमराव अम्बेडकर की मार्फत आजाद भारत के लोगों को सौंपी है जिसका अर्थ एक समान वोट–एक समान मूल्य और एक समान अधिकार होता है। इसका मतलब यह भी होता है कि राजनैतिक समानता-आर्थिक समानता और सामाजिक समानता। यह सिलसिलेवार प्रक्रिया जिस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपनाई गई उसी का नाम लोकतन्त्र है।

अतः यह साफ होना चाहिए कि मतदाताओं को मिलने वाली कोई भी सुविधा न तो किसी प्रकार का उपकार है और न खैरात है बल्कि यह उनका अधिकार है। पिछले 70 सालों में हम आज जहां तक पहुंचे हैं और जो बदलाव भारत की स्थिति में आया है वह लोकतन्त्र में जनता की भागीदारी के बूते पर ही आया है और किसी ने भी उस पर न तो कृपा की है और न दया दिखाई है। भारत के लोगों को जो संविधान डा. अम्बेडकर ने 26 जनवरी 1950 को दिया था और इस राष्ट्र को गणतन्त्र घोषित किया था तो वह इसी देश की पुरानी पीढ़ियों द्वारा दी गई कुर्बानियों का परिश्रम था किसी मन्दिर में पूजा-पाठ के बाद मिलने वाला ‘प्रसाद’ नहीं। इस हकीकत को हमें समझना होगा और इस प्रकार समझना होगा कि हम अपनी आने वाली पीढि़यों के हाथ में भी संविधान के शासन की वह प्रणाली सौंपे जिसमें 5 साल के लिए सत्ता पर बैठाने के बाद उस पार्टी से हर कोण से सवाल पूछे जायें और हरेक बात का सन्तोषजनक उत्तर प्राप्त किया जाये जिनका वास्ता सीधे देश की समस्याओं से रहा है।

इसे मोटी भाषा में सरकार का रिपोर्ट कार्ड भी कहा जा सकता है। अतः चुनावों की घोषणा हो जाने और चुनाव आचार संहिता लग जाने के बाद केन्द्रीय लोकपाल की नियुक्ति का मुद्दा कोई मुद्दा नहीं हो सकता। चुनाव कभी भी डर या खौफ के माहौल में नहीं हो सकते हैं अतः विपक्षी दलों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे सत्ताधारी दल पर चारों तरफ से सवालों की बौछार करके उसके पाक-साफ होने का प्रमाण मांगे और सत्ताधारी दल भी बेबाक जवाब पेश करके अपनी साफगोई दिखाये। वाजिब सवाल बनता है कि सरकार द्वारा किये गये विकास कार्यों का प्रमाण सड़कों पर दिखाई दे और इस तरह दिखाई दे कि उन पर चलते-फिरते लोग स्वयं इन कार्यों की गवाही दें। दरअसल हर 5 साल होने वाले चुनाव मतदाता के लिए उस किसान की तरह होते हैं जो अपने खेत में मुट्ठी भर बीज बोने के बाद बोरों में भर कर फसल काट कर लाता है। अतः यह तो देखना हर मतदाता का काम है कि उसके वोट से बनी सरकार का 5 सालों में क्या कारनामा रहा है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि मतदाता पांच साल बाद कांटे पर तोलकर देखता है कि उसके वोट की कीमत कितनी अदा हुई है।

विपक्ष यही काम करता है कि वह मतदाता से इकरार करता है कि उसे अपने वोट की कीमत निकालनी चाहिए और देखना चाहिए कि उसकी जिन्दगी में कितना बदलाव आया है। मगर केवल चुनावी मुद्दा यही हो ऐसा भी नहीं होता है। इसकी गवाही भी पिछले चुनावों का इतिहास देता है। मगर गुणात्मक परिवर्तन 1991 के चुनावों के बाद से आना तब शुरू हुआ जब इस देश की अर्थ व्यवस्था की दिशा को कान पकड़कर सीधे उलटे घुमा दिया गया और नव उदारवाद या निजीकरण अथवा बाजारमूलक अर्थ व्यवस्था का नाम दिया गया। इसके बाद देश के विकास के पैमाने में जो बदलाव आया उसने बाजार के उतार–चढ़ाव को अपना ‘आइना’ बना डाला और स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा तक को इसी बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया।

मगर जो सबसे खतरनाक काम इस दौर में हुआ वह देश की राजनीति में कार्पोरेट जगत या पूंजीवाद की विकास में भागीदारी के नाम पर घुसपैठ से हुआ जिसकी वजह से आण भारतीय नागरिक ऐसा उपभोक्ता बनता चला गया और सत्ता में उसकी भागीदारी लगातार सीमित होती चली गई। इसने एक बारगी तो देश को खूब चौंधियाया और विदेशी पूंजी निवेश की रोशनी में ऊंची–ऊंची तनख्वाहों का लोभ असुरक्षित भविष्य गारंटी की शर्त पर नई पीढ़ी को परोसा और निजी क्षेत्र में विश्वविद्यालयों व उच्च शिक्षा विद्यालयों की बाढ़ लाकर रख दी। लेकिन यह विकास का कार्य भारत की राजनीति को उस 80 प्रतिशत जनता के मूल मुद्दों से संवेदनहीन बनाते हुए किया गया जिन्हें इसी बाजाखाद ने नागरिक से उपभोक्ता बना कर छोड़ दिया था। अतः आर्थिक विपन्नता से जूझ रहे ये लोग पूरे नजारे को बड़ी हसरत से देखते रहे और सोचते रहे कि शायद एक दिन उनके भी दिन फिर जायेंगे।

लेकिन न ऐसा हो सकता था और न हुआ क्योंकि नव आर्थिक उदारवाद का असर पिछले 28 वर्षों में जितना भी प्रभाव डाल सकता था वह डाल चुका है और अब हालत यह हो गई है कि इंजीनियरिंग और पीएचडी की डिग्री लिए बैठे छात्र क्लर्कों की नौकरी तक को तरस रहे हैं। बेरोजगारों की जो फौज अब करोड़ों में पहुंच रही है उसकी वजह तेजी से बदलती औद्योगिक परिस्थितियां और इनके कम से श्रम मूलक होने की वजह है। स्थिति यह आने वाली है कि टेलीविजन भी कागज की शक्ल में आने को तैयार बैठा है और हमने शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों को निजी निवेश के भरोसे छोड़ दिया है। दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र में हमारा उत्पादन लगातार बढ़ा है और कृषि जन्य उत्पादों के आयात से पारिमाणिक प्रतिबन्ध समाप्त हो चुके हैं।

जबकि इस क्षेत्र में लगे लोगों की 60 प्रतिशत संख्या में कमी नहीं हो रही है। यह विकट परिस्थिति है। इस पूरी उथल–पुथल के बीच यदि आरक्षण की राजनीति में उछाल नहीं आता तो वह असामान्य घटना मानी जाती क्योंकि प्रत्येक खेतिहर जाति को अपनी अगली पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य की आकांक्षा है और कार्पोरेट जगत को राजनीति में घुसपैठ करने के बाद अधिकाधिक मुनाफा कमाने की कामना है। मगर यह मुनाफा अब वह केवल 80 प्रतिशत जनता की कीमत पर ही कमा सकता है इसीलिए उसकी नजर अब आदिवासियों और जनजातियों व वनवासियों की जल, जंगल जमीन पर लग गई है।

क्योंकि हम देख रहे हैं कि सार्वजनिक कम्पनियों का जिस तरह दिवाला यह कार्पोरेट क्षेत्र कथित विकास का धनुर्धर बन कर निकालना चाहता है उसका उदाहरण संचार क्षेत्र की कम्पनी बीएसएनएल है जिसमें कर्मचारियों को वेतन देने के लाले पड़े हुए हैं। अतः स्वाभाविक रूप से चुनावों में इस प्रकार के मुद्दे न उठने का सम्बन्ध राजनीति के कार्पोरेटीकरण होने से है। इसने साधारण व्यक्ति को राजनीति से लगातार दूर करने का ऐसा पेंच निकाल दिया है कि लोकसभा तक का चुनाव तो दूर गांव सभा के प्रधान का चुनाव लड़ने तक पर अब लाखों रुपए खर्च होने लगे हैं।

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