पर्यावरण और विकास को अक्सर अलग-अलग और एक-दूसरे का विरोधी समझा जाता है। सच्चाई यह भी है कि इन्हें एक साथ लाए बिना वर्तमान पर्यावरणीय और आर्थिक चुनौतियों का सामना करना काफी मुश्किल है। भारत में 2006 में ही पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन को अपनाया गया। साथ ही राष्ट्रीय हरित अधिकरण और प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण भी अस्तित्व में है। इसके बावजूद विकासात्मक परियोजनाओं पर एक पक्षीय दृष्टिकोण अपनाया गया।
भारत के अनेक शहरों में विकास के नाम पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई विरोधाभासी कदम ही माना जाता है। बिना स्वच्छ पर्यावरण के विकास की अवधारणा लोगों से अन्याय है। पेड़ वह कड़ी है जो मौलिक दुनिया और प्राकृतिक दुनिया को जोड़ने का काम करते हैं। बढ़ते शहरीकरण ने स्कूल, कालेज, अस्पताल, परिवहन, मेट्रो परियोजनाएं और अन्य बुनियादी जरूरतों के विस्तारीकरण के लिए बाध्य किया है। आज सबसे बड़ी चुनौती पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन स्थापित करना है।
भारत में विकास के साथ-साथ पर्यावरण के लिए संघर्ष भी हुए हैं। इतिहास देखें तो बिश्नोई भारत का एक धार्मिक सम्प्रदाय है, जिसके अनुयायी राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश आदि राज्यों में हैं। श्री गुरु जम्भेश्वर को बिश्नोई पंथ का संस्थापक माना जाता है। यह सम्प्रदाय प्रकृति की पूजा करता है। वनों की कटाई के खिलाफ 1700 ईस्वी के आसपास ऋषि सोमजी द्वारा आंदोलन शुरू किया गया था। इस आंदोलन को अमृता देवी ने आगे बढ़ाया।
बिश्नोई समाज के लोग पेड़ों में चिपक गए तब उनके सम्प्रदाय के 363 लोगों की हत्या कर दी गई। जब राजा को विरोध और हत्याओं का पता चला तो वह गांव गए और माफी मांग कर क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया। देश में वनों की रक्षा के लिए चिपको आंदोलन, दक्षिण भारत का अप्पिको आंदोलन, केरल का साइलेंट घाटी और बिहार, झारखंड और ओडिशा तक फैलने वाला जंगल बचाओ आंदोलन भी हुए।
अब मुम्बई की आरे कालोनी में पेड़ों पर आरा चल चुका है। स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर और अन्य सेलिब्रिटीज द्वारा आरे कालोनी के पेड़ों को काटने का विरोध करने और लोगों द्वारा अदालतों का द्वार खटखटाने के बावजूद मेट्रो शैड निर्माण के लिए पेड़ काटे जा रहे हैं। गोरेगांव फिल्म सिटी के निकट ही आरे मिल्क कालोनी है, जिसे आजादी के थोड़े दिनों बाद ही बसाया गया था। 4 मार्च, 1951 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने खुद पौधारोपण कर इस कालोनी की नींव रखी थी। इसका कुल क्षेत्र 3,166 एकड़ है।
स्थापना से लेकर अब तक आरे का विस्तार होता रहा और कालोनी की हरियाली में लगातार बढ़ौतरी होती रही। धीरे-धीरे मुम्बइकरों ने इसके कुछ हिस्सों को नाम दिए जैसे छोटा कश्मीर, मुम्बई का फेफड़ा और आरे जंगल। कई फिल्मों की शूटिंग भी यहां होती रही। अब जंगल पर संकट आ गया है। 2014 में बर्सोवा से घाटकोपर तक मुम्बई मेट्रो का पहला चरण शुरू हुआ था। अब मेट्रो के विस्तार के लिए जगह चाहिए थी। मेट्रो ट्रेनों के कोच की पार्किंग के लिए शैड निर्माण के लिए जगह चुनी गई आरे कालोनी की। इस परियोजना के लिए 2 हजार से अधिक पेड़ काटे जाने हैं।
आरे कालोनी में पेड़ काटने का मुद्दा महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में शिवसेना और भाजपा के बीच चुनावी मुद्दा बन गया है। यद्यपि दोनों दलों का गठबंधन चुनाव लड़ रहा है लेकिन शिवसेना ने मुम्बइकरों की भावना के अनुरूप पेड़ काटने का विरोध किया है। शिवसेना के कार्यकर्ता सड़कों पर उतर कर विरोध कर रहे हैं। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का कहना है कि जिन लोगों ने पेड़ों का खून किया है, उन्हें देख लेंगे। उनके पुत्र आदित्य ठाकरे कह रहे हैं जो लोग पेड़ काट रहे हैं, उन्हें वे पीओके भेज देंगे। ऐसी सियासत वोट बैंक के लिए नौटंकी ही लगती है।
शिवसेना-भाजपा गठबंधन है तो उसे अपनी ही सरकार से पहले विरोध करना चाहिए था। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं कि दिल्ली मेट्रो के लिए भी पेड़ काटे गए थे, तब दिल्ली मेट्रो ने एक के बदले पांच पौधे लगाए थे जो आज पेड़ बन गए हैं। आरे कालोनी का मुद्दा केवल पेड़ काटने तक सीमित नहीं बल्कि मुम्बई के पर्यावरण का भी है। मेट्रो शैड बनने के बाद वहां भविष्य में बहुमंजिली इमारतें बनने लगें तो फिर क्षेत्र का प्राकृतिक स्वरूप ही नष्ट हो जाएगा। पर्यावरण विशेषज्ञ कह रहे हैं कि आरे की जमीन इको सेंसिटिव जोन है। मेट्रो शैड निर्माण से यहां के वन्य जीवों को खतरा है। मेट्रो शैड के लिए वैकल्पिक क्षेत्र उपलब्ध है तो फिर इस क्षेत्र को ही क्यों चुना गया।
मुम्बई मेट्रो का अपना तर्क है कि मेट्रो के लिए 2700 पेड़ काटे जाएंगे जो सालभर में 64 टन कार्बन मोनो आक्साइड का अवशोषण करते हैं। चार दिन में मेट्रो लगभग 194 ट्रिप करेगी। इससे 64 टन कार्बन मोनो आक्साइड उत्सर्जन कम होगा। अहम सवाल यह है कि पर्यावरण और सतत् विकास में संतुलन किस तरह कायम किया जाए। कोई भी विकास का विरोधी नहीं बल्कि जरूरत है कि यदि पर्यावरण को नुक्सान पहुंचता है तो उसकी भरपाई कैसे हो? पर्यावरण काे उचित महत्व देने और तकनीक के तार्किक इस्तेमाल से संतुलन कायम किया जा सकता है।