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पर्यावरण : जनता के धन का हरण

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कार्यपालिका न्यायपालिका को मूर्ख बना रही है। यह टिप्पणी जनता के फायदे के लिए खर्च किया जाने वाला करीब एक करोड़ का फण्ड दूसरे कामों पर खर्च किए जाने से नाराज सुप्रीम कोर्ट ने की। जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की बैंच ने कहा कि ‘‘हमने कार्यपालिका पर भरोसा किया, लेकिन अधिकारी काम नहीं करते। जब हम कुछ कहते हैं तो दायरा लांघने और न्यायिक सक्रियता जैसी बातें कही जाती हैं।’’ शीर्ष अदालत राजधानी दिल्ली और एनसीआर में वायु प्रदूषण के मुद्दों पर सुनवाई कर रही है।

दिल्ली हो या मुम्बई या फिर कोलकाता, वायु प्रदूषण को लेकर काफी हंगामा मचता रहा है। कभी सम-विषम का फार्मूला अपनाया गया, कभी पुराने वाहनों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया, कभी प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों की एंट्री को प्रतिबंधित किया, कभी उन पर सेस लगाकर करोड़ों रुपए इकट्ठे किए गए। अदालत के आदेश के बाद इकट्ठा किए गए विभिन्न फण्ड का इस्तेमाल पर्यावरण की सुरक्षा और लोगों के फायदे के लिए किया जाना था लेकिन सरकारों ने इस फण्ड का इस्तेमाल दूसरे कामों पर किया।

कम्पनसेट्री एफोरिस्टेशन फण्ड्स मैनेजमेंट एण्ड प्लानिंग अथारिटी का गठन अदालत के आदेश के बाद किया गया था। इसके तहत करोड़ों का फण्ड इकट्ठा किया गया था। इस तरह के फण्ड्स में कुल राशि एक लाख करोड़ रुपए थी। यह राशि शासन का हिस्सा नहीं है। राज्य सरकारें अगर सड़क बनाएं और उन पर लाइट लगवाएं तो वह अपने शासन के कोष से करें। सामाजिक कार्यों के लिए एकत्र किए गए धन का इस्तेमाल पर्यावरण संरक्षण के लिए ही होना चाहिए।

पर्यावरण संरक्षण के नाम पर सरकारों ने पैसा तो इकट्ठा कर लिया लेकिन सामाजिक कार्यों के लिए उसने 4-5 फीसदी ही खर्च किया। पर्यावरण के नाम पर कर लगाकर जनता को ही दण्डित किया गया है। दिल्ली, मेघालय, ओ​िडशा आदि राज्यों ने करोड़ों रुपए जमा किए लेकिन पर्यावरण के लिए कुछ खर्च नहीं किया। ओडि़शा, मेघालय, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र की बात छोड़िये, ​दिल्ली और एनसीआर का हाल देख लीजिये।

लोगों को सांस लेने के लिए भी शुद्ध हवा नहीं मिल रही। न अफसरशाही, न सरकारें, कोई नहीं सोच रहा कि पर्यावरण संरक्षण में भारत 177वें रैंक पर क्यों है ? डावोस में विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी रिपोर्ट में दुनिया के 180 देशों के पर्यावरण संरक्षण की स्थिति की रैंकिंग की गई थी। इस रिपोर्ट में भारत को 177वां स्थान प्राप्त हुआ था। नेपाल और बंगलादेश के साथ हम निचले 5 देशों में शोभा बढ़ा रहे हैं। प्रद​ूषित वायु के कारण हर वर्ष 16 लाख से अधिक मौतें हो रही हैं।

वायु प्रदूषण के प्रमुख कारणों में पराली, कोयले का जलाया जाना एवं वाहनों द्वारा उत्सर्जित दूषित गैसें हैं। वैशाखी आ रही है। फसलों की कटाई शुरू हो चुकी है। अब तक पराली से निपटने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किए गए। पराली जलाने पर किसानों को दण्डित करने, जुर्माना लगाने के अलावा कोई कदम नहीं उठाया गया। सरकारों के पास करोड़ों रुपया पड़ा है, क्या वह इस धनराशि को पराली को एकत्रित करके गौशालाओं और कागज बनाने वाली फैक्टरियों तक नहीं पहुंचा सकती?

बंगाल में प्रति वर्ष 3.6 करोड़ टन पराली पैदा होती है जबकि पंजाब में केवल 2 करोड़ टन। बंगाल के किसान पराली को जलाते नहीं बल्कि उसे घर ले जाकर पशुओं को खिलाते हैं या फिर वे कागज फैक्टरी को बेच देते हैं। इसका कारण यह है कि पंजाब-हरियाणा में श्रमिक की मजदूरी बहुत ज्यादा है। बंगाल में मजदूरी काफी कम है। अगर सरकारें और पर्यावरण विभाग पंजाब-हरियाणा की पराली इकट्ठी कर लें तो उससे भी उन्हें राजस्व आएगा।

दरअसल कार्यपालिका केवल योजनाएं बनाती है, कोर्ट में पेश करती है लेकिन करती कुछ नहीं। प्रदूषण का बड़ा कारण विकास परियोजनाओं से होने वाले प्रदूषण को सरकार का प्रोत्साहन भी है। सरकार द्वारा विकास परियोजनाओं के प्रदूषण से होने वाली हानि का मूल्यांकन किया ही नहीं जाता। चिन्ता की बात तो यह है कि पर्यावरणीय बदलावों के कारण सभी क्षेत्रों का मौसम चक्र बिगड़ चुका है। अब ऐसा लगता है कि इसे नियंत्रित करना सरकारों के बस की बात नहीं रही।

अप्रैल के महीने में मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर के क्षेत्रों में बर्फ की एक फुट चादर का बिछ जाना सामान्य नहीं है। जबर्दस्त ओलावृष्टि से किसानों की खड़ी फसल तबाह हो गई है। आज के दौर में शहरों के लिए पर्यावरण के प्रति अनुकूलता कायम करना एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है।

पर्यावरण संरक्षण के लिए रखे गए पैसों का इस्तेमाल बस अड्डों की मरम्मत या कॉलेज की प्रयोगशाला बनाने में किया जाएगा या अंधाधुंध विकास पर खर्च किया जाएगा तो यह एक तरह से पर्यावरण के लिए रखे गए धन का हरण ही है। जनता से सजा के तौर पर वसूले गए पैसों का इस्तेमाल सही ढंग से होना चाहिए। जब भी कार्यपालिका नाकाम होती है तो न्यायपालिका सक्रिय होती ही है। कार्यपालिका जिम्मेदारी से कार्य करे तो न्यायपालिका के हस्तक्षेप की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। बेहतर होगा कार्यपालिका पर्यावरणविदों को साथ लेकर काम करे।

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