ईवीएम सवाल नहीं, सही जवाब है

ईवीएम सवाल नहीं, सही जवाब है
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सात चरण के मतदान के पहले चरण में 543 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में से 102 के लिए शुक्रवार, 19 अप्रैल को मतदान हुए। परिणाम के लिए हमें 4 जून तक इंतजार करना होगा। इस दौरान देश इन बाताें को लेकर अटकलों में व्यस्त रहेगा कि 'कौन जीतेगा या हारेगा' या क्या भाजपा '400 पार' के अपने लक्ष्य को हासिल कर पाएगी। इतने लंबे समय तक लोगों का ध्यान भटकाने से बचना चाहिए था। अगली बार, चुनाव आयोग को एक छोटा मतदान कार्यक्रम तैयार करना चाहिए ताकि देश सामान्य स्थिति में लौट सके और नव-निर्वाचित सरकार आदर्श आचार संहिता के लंबे अंतराल के बिना शासन के काम में लग सके, जिसके तहत सभी सरकारों में सभी नीतिगत निर्णय बंद होने चाहिए।
खुशी की बात है कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की बदौलत वोटों की गिनती एक दिन की छोटी प्रक्रिया होगी। ईवीएम से पहले के युग में गिनती भी चार या पांच दिनों तक चलती थी क्योंकि प्रत्येक मतपत्र की गिनती की जाती थी, प्रत्येक उम्मीदवार के लिए अलग-अलग बंडलों में रखा जाता था और आखिर में अंतिम नतीजे पर पहुंचने के लिए विभिन्न मतदान केंद्रों से परिणाम का मिलान किया जाता था। यह एक कठिन प्रक्रिया थी जिसके कारण अक्सर उम्मीदवारों के गिनती एजेंटों के बीच वैध और अवैध वोटों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप होते थे। ईवीएम से ऐसी कोई परेशानी नहीं होती। बड़े पैमाने पर देश को राहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पेशेवर पीआईएल वालों की उस याचिका को सिरे से खारिज कर दिया, जिन्होंने उन्होंने फिर से बैलेट पेपर के जरिए मतदान कराने की मांग की थी। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्हें ईवीएम पर कोई भरोसा नहीं था। भले ही वे यह साबित करने में बार-बार विफल रहे हैं कि सत्ताधारी पार्टी को फायदा पहुंचाने के लिए ईवीएम में हेरफेर किया जाता है लेकिन हारे हुए लोगों के लिए ईवीएम के माध्यम से वोट की पारदर्शिता पर सवाल उठाना एक आदत बन गई है। केवल हारने वाले ही ईवीएम की प्रामाणिकता को चुनौती देते हैं।
तथ्य यह है कि ईवीएम की वास्तविकता को और अधिक स्थापित करने के लिए कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में कम से कम पांच प्रतिशत ईवीएम पेपर ट्रेल से सुसज्जित हैं, हालांकि यह भी संदेह करने वालों के लिए पर्याप्त नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से कहा कि वह कागजी मतपत्रों के जरिए मतदान में बड़े पैमाने पर होने वाली गड़बड़ियों से पूरी तरह वाकिफ हैं।
नि-संदेह एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा के 'अब की बार 400 पार' के चुनावी नारे का नेतृत्व किया तो वहीं केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा भी पूरे देश में प्रचार किया लेकिन दोनों ही नेताओं का जोर इस बात पर रहा कि सरकार ने पिछले दस वर्षों में क्या उपलब्धियां हासिल की हैं और जनादेश मिलने पर वह अगले पांच वर्षों में क्या करेगी। 'मोदी की गारंटी' और 'ये तो अभी ट्रेलर है' ऐसे नारे थे जिनके इर्द-गिर्द पार्टी ने अपना पूरा चुनाव अभियान चलाया। तेजी से नुक्कड़-सभाओं और घर-घर जाकर प्रचार करने के बजाय सोशल मीडिया प्रतिद्वंद्वी पार्टियों की ओर से वोटों के लिए अपनी लड़ाई छेड़ने का वास्तविक युद्ध का मैदान बन गया है, जैसा कि आपेक्षित था।
वहीं भाजपा कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों से अधिक खर्च करती दिख रही थी, (स्वाभाविक रूप से, सत्ता में पार्टी होने के कारण उसके पास अधिक धन था)। दूसरी ओर, चाहे ममता बनर्जी हों या अरविंद केजरीवाल और वह अन्य लोग जो प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर नजरें लगाए बैठे हैं, वह भले ही इसे पसंद करें या न करें लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि विपक्षी नेताओं में अकेले राहुल गांधी ही मोदी विरोधी सबसे ऊर्जावान और दृश्यमान चेहरे के रूप में उभरे हैं। राहुल अपने अक्सर अनुचित तरीकों से मोदी और भाजपा-आरएसएस पर हमला करते रहे हैं। वह अपनी छवि के बारे में सोशल मीडिया पर चल रहे व्यंग्य से निडर होकर और बिना किसी रोक-टोक के प्रधानमंत्री पर निशाना साधने में लग गए।
वैसे यह तो तय है कि भाजपा सत्ता बरकरार रखने की प्रबल दावेदार है, हालांकि '400-पार' का जवाब 4 जून को ही मिलेगा। 2004 में स्वर्गीय वाजपेयी और प्रमोद महाजन के विपरीत मोदी और शाह, आत्मसंतुष्ट होने वाले अंतिम व्यक्ति हैं और दोनों अथक प्रचारक हैं, अधिकतम सीटें जीतना उनका निरंतर प्रयास है।

– वीरेंद्र कपूर

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