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मतगणना से पूर्व मतों की जांच?

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भारत के लोकतन्त्र की आधारशिला स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनावों को लेकर जिस प्रकार का सन्देह मतदान में प्रयोग की जाने वाली ईवीएम मशीनों को लेकर उठ रहा है उसका सीधा सम्बन्ध उस वृहद प्रशासनिक व्यवस्था से है जिसके आधार पर लोगों द्वारा चुनी गई सरकारों का गठन होता है। इस सरकार का गठन मतदाताओं को मिले उस एक वोट के आधार पर होता है जिसका प्रयोग वह ईवीएम मशीनों में जाकर करता है। अतः इस वोट के प्रयोग में किसी भी प्रकार की धांधली का वातावरण पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है। संवैधानिक स्तर पर चुनावों को पूरी तरह निष्पक्ष व स्वतन्त्र बनाये रखने के साथ ही मतदाताओं के लिए निडर होकर मत डालने का माहौल बनाने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। यह आयोग पूरी तरह राजनीतिक दलीय व्यवस्था से निरपेक्ष रह कर अपने कार्य को अंजाम दे सके इसके लिए इसे संवैधानिक दर्जा देने की व्यवस्था हमारे संविधान निर्माताओं ने पूरी दूरदर्शिता के साथ की किन्तु बदलते समय के अनुसार और टैक्नोलॉजी विकास व उन्नयन का लाभ उठाने की दृष्टि से चुनावों में कागज के मतपत्रों की जगह इलैक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन का प्रयोग चुनावी प्रक्रिया में फुर्ती लाने की गरज से स्व. राजनीव गांधी के शासनकाल में शुरू किया गया।

इसमें कोई बुराई नहीं थी क्योंकि यह कल्पना से परे की बात थी कि किसी भी पार्टी की सरकार जनादेश को पलटने के लिए टैक्नोलोजी को माध्यम बनाने तक की सोच सकती है परन्तु जैसे–जैसे ईवीएम मशीनों का प्रयोग चुनाव में बढ़ने लगा वैसे–वैसे ही इस मशीन को नियंत्रित करने के आरोप राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ने लगे, 2009 में आज की सत्ताधारी पार्टी भाजपा के प्रवक्ता ई.वी.एन. नरसिम्हाराव ने तो ईवीएम को मनमाफिक तरीके से घुमाने पर एक किताब ही लिख डाली और तब सार्वजनिक प्रदर्शन करके यह तक बताया कि इनको किस प्रकार नियंत्रित किया जा सकता है। इसके बाद यह जिम्मा दिल्ली की आम आदमी पार्टी ने ले लिया और वह चुनावों को ईवीएम मशीनों का खेल बताने लगी। निश्चित रूप से इस पार्टी के आरोपों में ज्यादा दम नहीं था क्योंकि वह लोगों को गुमराह करने के लिए अपने ही एक इंजीनियर नेता द्वारा बनाई गई मशीन का प्रदर्शन कर रही थी किन्तु इसके बावजूद संविधान के अनुसार देश को चलता देखने के लिए जिम्मेदार सर्वोच्च न्यायालय ने चार साल पहले आदेश दिया था कि सभी ईवीएम मशीनों के साथ ‘‘वी. बी. पैट’’ मशीनें भी लगाई जाएं जिससे मतदाता आश्वस्त हो सके कि उसने जिस पार्टी के चुनाव चिन्ह पर बटन दबाया है उसका वोट उसी को गया है।

न्यायालय के इस आदेश को लागू होता देखने के लिए चुनाव आयोग को ही मशक्कत करनी पड़ी और तब जाकर न्यायालय ने आदेश दिया कि केन्द्र सरकार सभी ईवीएम मशीनों के साथ वी.बी. पैट मशीनें लगाने के लिए चुनाव आयोग समुचित धन का आवंटन करे। सर्वोच्च न्यायालय ने ही पिछले महीने आदेश दिया था कि गुजरात के विधानसभा चुनावाें में प्रयोग होने वाली सभी ईवीएम मशीनों के साथ वी.बी. पैट मशीनें जोड़ कर ही चुनाव किए जाएं। उसके इस आदेश का गुजरात में विगत 9 व 14 दिसम्बर को हुए मतदान में पालन किया गया। न्यायालय ने यह भी आदेश दिया था कि प्रत्येक मतदान केन्द्र पर वोटों की गिनती शुरू करने से पहले किसी एक मशीन में पड़े मतों का मिलान वी.बी. पैट से निकले मत रसीदी कागजों से कर लिया जाए। मगर गुजरात विधानसभा में हुए मतदान के दोनों दिनों में गड़बड़ियों की शिकायतें विपक्षी पार्टी कांग्रेस द्वारा जगह–जगह की गई। इनका निराकरण करने की कोशिश चुनाव आयोग के स्थानीय अधिकारियों द्वारा की गई। कुछ शिकायतों को सही भी पाया गया। यह आश्चर्यजनक हो सकता है कि कांग्रेस पार्टी मतगणना से पहले ही आज वी. बी. पैट मशीनों की जांच करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पास विशेष याचिका दायर करके पहुंच गई और इसने मांग की कि कम से कम 15 प्रतिशत मशीनों की जांच कराई जानी चाहिए किन्तु सामान्य कानून का ज्ञान रखने वाला मैं यह पाता हूं कि कांग्रेस को अपनी याचिका चुनाव आयोग को देनी चाहिए थी क्योंकि एक बार चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद न्यायालय उसमें दखल नहीं दे सकता।

चुनाव आयोग को अर्द्ध न्यायिक अधिकार हमारे संविधान निर्माताओं ने केवल सजावट के लिए नहीं दिये थे। इसी वजह से सर्वोच्च न्यायालय ने कांग्रेस के याचिकाकर्ताओं को अपनी याचिका वापस लेने की इजाजत देते हुए ताईद की कि वह चुनाव प्रणाली में सुधार व संशोधन के लिए अलग से व्यापक सन्दर्भों की याचिका दायर करें। मतगणना होने और चुनाव परिणाम होने तक सम्पूर्ण कार्य की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की ही। इसमें दखल देने का अधिकार केवल उसी के पास है लेकिन कांग्रेस की आशंका का संज्ञान चुनाव आयोग को लेने का स्वतः स्फूर्त अधिकार है जिससे उसकी निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर किसी प्रकार की आंच न आ सके। यह बेवजह नहीं है कि ईवीएम मशीनों की सुरक्षा की गारंटी भी आयोग ही देता है। बेशक वह सरकारी मशीनरी के माध्यम से ही यह कार्य करता है क्योंकि किसी भी चुनाव वाले राज्य की पूरी प्रशासन व्यवस्था और सरकार उसके नियंत्रण में आ जाती है। मगर यह ध्यान रखना जरूरी है कि स्व. राजीव गांधी ने जब मतपेटियों की जगह ईवीएम मशीनों को रखवाया था तो यह कार्य उन्होंने अपने शासनकाल में प्रयोग के तौर पर शुरू किया था। बाद में बनी सरकारों और चुनाव आयोग ने इन्हें मुफीद माना।

जाहिर तौर पर उनकी नीयत पर भी शक नहीं किया जा सकता है क्योंकि केन्द्र व राज्याें में सरकारें इन्हीं ईवीएम मशीनों की मार्फत बनीं। मगर यह भी सच है कि इनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठे तभी वी.बी. पैट मशीनों को इनके साथ लगाने के सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिए। अब इस पर भी सवालिया निशान लग रहे हैं तो कोई न कोई हल निकल कर ही रहेगा लेकिन कुछ बातें एसी होती हैं जिनका कोई तोड़ टैक्नोलाजी में नहीं है। मसलन भारत के गांवाें में कहावत प्रचलित है कि ‘‘कागज पे लिखा सच ना मिटता’’ अतः चुनावों को पूरी तरह निष्कलंक रखने के लिए हमें पुनः कागज के मतपत्रों की तरफ लौट जाना चाहिए। इसमें जिद्द की कोई बात नहीं है क्योंकि वोट का अर्थ केवल ‘निशान’ नहीं होता बल्कि ‘मतदाता’ होता है जो इस वोट के माध्यम से सत्ता के सिंहासन पर बैठता है। यह चुनाव आयोग का कर्त्तव्य है कि वह अपने सम्मान और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए हर वह कदम जिससे उसकी निष्पक्षता को कोई भी चुनौती देने की कभी हिम्मत न कर सके। हमारे संविधान मेें इसका पूरा इंतजाम किया गया है।

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