उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के.एम. जोसेफ की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति का मामला लटका हुआ है। न्यायाधीशों की नियुक्तियों काे लेकर केन्द्र और न्यायपालिका में गतिरोध स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कोई अच्छी बात नहीं। अब खबर यह है कि अंततः केन्द्र सरकार ने कॉलेजियम की सिफारिशों को मंजूर कर लिया है। इसके अलावा दो और जजों मद्रास हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश इन्दिरा बनर्जी और ओडिशा हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश वनीता शरण की भी सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति की कॉलेजियम की सिफारिश को सरकार ने मंजूर कर लिया है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली कॉलेजियम ने जस्टिस जोसेफ की सिफारिश की थी। तब से लेकर अब तक यह मामला अधर में लटका पड़ा था। इस दौरान सरकार ने कॉलेजियम की सिफारिश को नामंजूर भी किया था। केन्द्र सरकार ने 26 अप्रैल को न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ को पदोन्नति देने संबंधी सिफारिश पर फाइल पुनर्विचार के लिए यह कहते हुए लौटा दी थी कि यह प्रस्ताव शीर्ष अदालत के मानदंडों के अनुरूप नहीं है। सरकार ने फाइल लौटाते हुए हाईकोर्ट के न्यायाधीशों में न्यायमूर्ति जोसेफ की वरिष्ठता पर भी सवाल उठाए थे जिसके बाद इस पर काफी विवाद हुआ था।
न्यायपालिका से लेकर आम जनता तक ऐसी धारणा दबे पांव फैलाई जा रही थी कि जस्टिस जोसेफ उस पीठ के प्रमुख थे जिसने 2016 में उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार को हटाकर राष्ट्रपति शासन लगाने के नरेन्द्र मोदी सरकार के फैसले को खारिज कर दिया था आैर सरकार उसी का बदला लेने के लिए जस्टिस जोसेफ की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति संबंधी कॉलेजियम की सिफारिश मंजूर नहीं कर रही। कॉलेजियम ने गम्भीर मंथन के बाद जस्टिस जोसेफ का नाम पुनः भेजा। केन्द्र सरकार ने उनकी नियुक्ति को स्वीकार कर गतिरोध खत्म करने का काम किया है। इस पूरे प्रकरण पर कॉलेजियम के सदस्य न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने कहा था कि सरकार द्वारा कॉलेजियम की सिफारिश लौटाने की घटना अभूतपूर्व है। जो कुछ हुआ वह होना नहीं चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त हो चुके विरष्ठतम जज जस्टिस जे. चेलमेश्कर ने भी उनकी जमकर पैरवी की थी।
अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी को न्यायपालिका ने समय-समय पर बखूबी निभाया है। उसकी निष्ठा संदेह से परे है लेकिन अगर कभी उसकी मंशा और पारदर्शिता पर सवाल खड़े होते हैं तो जिम्मेदारी भी न्यायपालिका की होनी चाहिए। न्यायपालिका में शीर्ष पदों पर नियुक्तियों को लेकर हमेशा से ही पारदर्शिता की बात की जाती है। लिहाजा 2014 में संसद ने जजों की नियुक्ति करने वाली कॉलेजियम प्रणाली की जगह न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून पारित किया था। मंशा यह थी कि न्यायपालिका के पारदर्शी पर्दे को और झीना किया जाए। लिहाजा सरकार आैर समाज को भी इस नियुक्ति की प्रक्रिया में शामिल करते हुए न्यायिक नियुक्ति आयोग का प्रावधान किया गया। कार्यपालिका के इस कदम को न्यायपालिका ने अपनी स्वतंत्रता आैर संप्रभुत्ता पर अतिक्रमण करार देते हुए न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को असंवैधानिक करार दिया। जजों द्वारा जजों की नियुक्तियों वाली कॉलेजियम प्रणाली के फिर से लागू होते ही नियुक्तियों में पारदर्शिता का मुद्दा फिर उठा। ऐसी मीडिया रिपोर्टें आती रही हैं कि जजों की नियुक्तियों में काफी भेदभाव और भाई-भतीजावाद होता है। कुछ दिन पहले ऐसी रिपोर्ट भी थी कि सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट कॉलेजियम द्वारा भेजी गई सिफारिशों पर उसे इस बात के सबूत भेजे थे कि भेजी गई सिफारिशों में किसका किसके साथ संबंध है।
मुझे याद है कि लोकसभा अध्यक्ष पद पर रहते वरिष्ठ वामपंथी नेता सोमनाथ चटर्जी ने अपनी शिकायत बहुत खूबसूरत अन्दाज में कही थी ‘‘मैं अब भी मानता हूं कि भारत तीन चीजों में विशिष्ट है-संसद द्वारा टेलीविजन चैनल चलाना, न्यायाधीशों द्वारा न्यायाधीशों को नियुक्त करना आैर सांसदों द्वारा अपना ही वेतन निर्धारित करना।’’ इसके कुछ दिन बाद उन्होंने स्पष्ट कहा था कि न्यायाधीशों द्वारा न्यायाधीश नियुक्त करने का सिस्टम अच्छा नहीं है। न्यायिक क्षेत्र में ऐसे घटनाक्रम भी सामने आए जब न्यायाधीशों के आचरण को लेकर भी सवाल उठे। हम यह भी मानते हैं कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए। न्यायपालिका कार्यपालिका द्वारा मनमाने तरीके या बगैर चयन प्रक्रिया पालन के हुई नियुक्तियों की आलोचक रही है लेकिन जजों की नियुक्ति के मामले में कोई नियम न बनाकर वह खुद को सुरक्षित बनाए हुए है। न्यायपालिका को आत्ममंथन की जरूरत है। भरोसे और साख का सवाल बहुत बड़ा है। अभी तो भारत के नए मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति पर भी सरकार की अग्निपरीक्षा होनी बाकी है। नियुक्तियों में पारदर्शिता कैसे आए, इस पर विचार करने की जरूरत है। देश को योग्य, कुशल आैर ईमानदार न्यायाधीश मिले ताकि न्यायपालिका की गिरमा पर कोई आंच नहीं आए।