संगीत की मस्ती में सराबोर लोगों को क्या मालूम था कि उन्हें मैनचेस्टर के एरीना में खौफनाक मंजर देखने को मिलेगा। उन्हें क्या मालूम था कि वह मौत का गीत सुनकर लौट रहे हैं। लोग एकाएक ‘गॉड-गॉड’ कहते-चिल्लाते भागने लगे। इसमें 22 लोग मौत का शिकार हुए और अनेक घायल हुए। धमाके इतने जोरदार कि एरीना की पूरी इमारत हिल गई। धमाके के बाद आग का बड़ा गोला हवा में उठा, शोलों की आंच न केवल ब्रिटेन के लोगों ने ही महसूस की है बल्कि इस आंच की तपिश भारत ने भी महसूस की। मैनचेस्टर एरीना में हुए धमाकों से पूरा यूरोप एक बार फिर दहल उठा है। इस बार भी हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ले ली है। हर आतंकवादी वारदात के बाद समय के साथ जख्म तो भर जाते हैं लेकिन इनका असर लम्बे समय तक बना रहता है। आतंकियों की बर्बरता और उसके बाद उनका विजय घोष। इसका नतीजा एक ही है- जमीन पर बेकसूर लोगों का खून और बाकी बचे उनके परिवारों के हिस्से समूची जिन्दगी का दर्द। यह दर्द जितना ज्यादा होगा, आतंकवादियों को सुकून शायद उतना ही ज्यादा मिलेगा। इससे उपजती है अलगाव की आग, यह जितनी सुलगे कट्टरपंथियों की उतनी ही बड़ी कामयाबी। इन घटनाओं को अंजाम देने वाले जितने भी आतंकवादियों की मौत हो जाए, उनकी मौत संगठन की शहादत की सूची में शामिल हो जाती है। आत्मघातियों का महिमामंडन किया जाता है। ब्रिटेन हो, अमेरिका हो, फ्रांस हो या जर्मनी, जितने आतंकी सुरक्षा बलों के हाथों मरेंगे, बदले की भावना उतनी ही ज्यादा परवान चढ़ेगी। एक हमले की कामयाबी अगले कई धमाकों की रणनीति की बुनियाद भी खड़ी कर देती है। यूरोप में यही कुछ हो रहा है। चरमपंथ इस समय चरम पर है।
आतंकवाद से हो रही तबाही के बाद बार-बार भावनाओं का अथाह सैलाब आता है। यह त्रासदी घृणित है क्योंकि यह वहशीपन है। यूरोप आतंकवादियों के निशाने पर है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, ब्रसेल्स, जर्मनी, स्पेन आदि देश निशाने पर हैं। गैर-बराबरी और कई देशों के संसाधनों पर कब्जे की नीतियों से उपजे आतकंवाद का नासूर अब पश्चिमी समाज में भी कैंसर की तरह फैल रहा है। मध्यकाल के अंधियारे के बाद फ्रांस ने ही पूरी दुनिया को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का नारा दिया था लेकिन आधुनिक काल में आतंकवादी हमें फिर से अंधयुग में ले जाने की कोशिश में हैं। मैनचेस्टर में टेरर अटैक ब्रिटेन में 8 जून को होने वाले आम चुनावों से पहले हुआ है। 22 मार्च को भी ब्रिटेन की संसद के बाहर एक हमलावर ने अंधाधुंध फायरिंग की थी। इस हमले में 5 लोग मारे गए थे। हमलावर कार में आया था और उसने कई लोगों को रौंद दिया था। 2001 में अमेरिका के ट्विन टॉवर पर हुए आतंकी हमले के बाद से ही नाटो देशों की आतंकवादियों के खिलाफ लड़ाई की कीमत सैनिकों के साथ-साथ आम लोगों को भी बड़े स्तर पर चुकानी पड़ रही है। सीरिया में बीते पांच सालों में चल रहे गृह युद्ध की उपज कहे जाने वाले खूंखार आतंकी संगठन आईएस के निशाने पर यूरोपीय देश लगातार बने हुए हैं। कई बार ऐसी खबरें आई हैं कि ब्रिटेन में रहने वाले मुस्लिम युवक आईएस के प्रभाव में आ रहे हैं। ब्रिटेन ने हमेशा आतंक के खिलाफ अपने कड़े रुख पर टिके रहने का साहस दिखाया है लेकिन आतंक के खिलाफ खड़े यूरोपीय देशों को अब इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है।
लगातार आतंकी हमलों के बाद पश्चिमी देशों के सुर बदल रहे हैं। मुस्लिमों में खौफ है क्योंकि अमेरिका समेत कई देश मुस्लिमों के खिलाफ आग उगल रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दो दिन पहले रियाद में कहा था कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई विचारधाराओं की लड़ाई नहीं, धर्म के नाम पर खूनखराबा बंद होना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि विकसित पश्चिमी राष्ट्र कई देशों में चरमपंथियों की वित्तीय सहायता करते रहे हैं। पश्चिमी देशों की गलतियों के कारण ही अलकायदा और आईएस का जन्म हुआ। पश्चिमी देशों के स्वार्थ का इतिहास इस बात को प्रमाणित करता है कि आईएस जैसा संगठन सिर्फ धर्म के जज्बे से पैदा नहीं हुआ है। तेल की अर्थव्यवस्था का ‘जेहाद’ तो पश्चिमी देशों ने शुरू किया था, उन्हें तो इसकी जद में आना ही था। लंदन टैरर अटैक के बाद आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के गहराने के आसार बन चुके हैं। आतंकवादी संगठन अब फिर से हमलों की चेतावनी दे रहे हैं। सीरिया में अमेरिका-रूस नहीं टकराते तो शायद शांति सम्भव हो जाती। तारीखी गलतियों से सबक सीखकर आतंकवाद के खिलाफ ईमानदार लड़ाई हो, जिसमें धर्म के आधार पर भेदभाव न हो लेकिन पश्चिमी देशों के अपने-अपने स्वार्थ हैं, इन्हें हटाए बिना आतंकवाद मुक्त विश्व का सपना देखना अर्थहीन ही है।