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चुनावों का साफ सुथरा होना

मुख्य चुनाव आयुक्त श्री सुशील चन्द्रा ने पंजाब चुनाव से पहले वहां के राजनीतिक दलों के साथ की गई बैठक में इस बात की तरफ इशारा किया है कि पार्टियां चुनावों में धन के प्रयोग से लेकर शराब व नशीले पदार्थों के प्रयोग को लेकर चिन्तित हैं।

मुख्य चुनाव आयुक्त श्री सुशील चन्द्रा ने पंजाब चुनाव से पहले वहां के राजनीतिक दलों के साथ की गई बैठक में इस बात की तरफ इशारा किया है कि पार्टियां चुनावों में धन के प्रयोग से लेकर शराब व नशीले पदार्थों के प्रयोग को लेकर चिन्तित हैं। वास्तव में इसकी जिम्मेदार स्वयं राजनीतिक पार्टियां ही हैं जो सत्ता पाने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार रहती हैं और मतदाताओं को लुभाने के लिए चोरी-छिपे उन सभी बुराइयों को मतदाताओं पर लादती हैं। इस मामले में पंजाब को हम अलग रख कर नहीं देख सकते हैं क्योंकि ये बुराइयां प्रायः प्रत्येक राज्य में पाई जाती हैं, बेशक इनका स्वरूप अलग-अलग जरूर हो जाता है। यदि हम दभिण भारत को लें, खास कर तमिलनाडु को तो यह राज्य धन का लालच देकर लोगों के वोट पाने की प्रयोगशाला के रूप में उभरा है। इसके साथ ही इसी राज्य से मतदान से पहले मतदाताओं को लालच देने के लिए सत्ता में आने पर मुफ्त शौगात या तोहफे देने की परंपरा भी शुरू हुई है। वस्तुतः यह लोकतन्त्र को लालच तन्त्र में बदलने का ही प्रयास कहा जा सकता है क्योंकि इससे भारत का आम मतदाता अपने वोट की कीमत को कुछ तोहफों के समरूप रख कर देखने लगता है। यदि मोटे शब्दों में कहें तो यह मतदाता को रिश्वत देने का ही एक तरीका है। अतः सवाल उठना लाजिमी है कि जब चुनावों की बुनियाद ही रिश्वत से शुरू होती है तो उसका अंजाम क्या हो सकता है ?
जाहिर है कि ऐसे  भ्रष्ट जरियों से सत्ता पाने वाले दल भी शासन में आकर ऐसे  ही रास्ते का प्रयोग करेंगे । मगर दिक्कत यह है कि भारत के लोकतन्त्र के पूरे कुएं में ही भांग घोल दी गई है और विभिन्न राजनीतिक इसी कुएं का पानी सभी मतदाताओं को पिला कर सुशासन की दुहाई दे रहे हैं। निश्चित रूप से यह पलायनवादी  सोच है जो हमारे लोकतन्त्र को खोखला कर रही है। चुनावों पर धनतन्त्र के प्रभाव के बारे में मैंने कल ही स्पष्ट किया था कि किस प्रकार राजनीतिक दल मूलभूत चुनाव सुधारों से दूर भागते रहे हैं और अपनी कमीज को दूसरे की कमीज से ज्यादा सफेद बताते रहे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि चुनाव जीतने की शर्त धनशक्ति होती जा रही है। बेशक चुनाव आयोग के पास आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद विविध प्रशासनिक अधिकार आ जाते हैं मगर व्यावहारिक रूप से वह भी अधिक कुछ कर पाने में समर्थ नहीं होता है क्योंकि पूरी प्रशासनिक व्यवस्था राजनीतिक दलों के चरित्र से ही प्रभावित होती है जिसे अल्प समय के चुनाव आयोग के प्रशासन के दौरान सुधारा जाना मुमकिन नहीं है। इस मामले में मतदाताओं की जिम्मेदारी भी बनती है कि वे स्वतन्त्र भारत के संविधान द्वारा दिये गये अपने वोट की कीमत का सही मूल्यांकन करें और फौरी लालच में आने से बचें, परन्तु इस मामले में शैक्षिक व वित्तीय स्थिति बीच में आती है जिसकी वजह से राजनीतिक दल सामाजिक हांशिये पर बैठे मतदाताओं को बरगलाने में कभी-कभी सफल हो जाते हैं। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि भारत के मतदाता राजनैतिक रूप से चेतना शून्य होते हैं। इसका प्रमाण यह है कि स्वयं राजनीतिक दलों के नेता चुनाव के समय अपनी जनसभाओं में इस बात का ऐलान करते घूमते हैं कि मतदाता धन उनकी विरोधी पार्टी के प्रत्याशी से जरूर ले लें मगर वोट उसे न दें। यह स्वयं में खुली स्वीकारोक्ति है कि चुनावों में धन का प्रयोग किस स्तर तक होता है। 
इस सन्दर्भ में हमें मध्य प्रदेश में चल रहे पंचायत चुनावों की तरफ देखना चाहिए जहां अशाेक नगर जिले के एक गांव में पंचायत प्रमुख के पद की बाकायदा नीलामी हुई है और 43 लाख रुपए की रकम देने वाले व्यक्ति को निर्विरोध सरपंच चुने जाने की घोषणा भी हो गई है। इससे पहले विगत वर्षों में कर्नाटक के पंचायत चुनावों में भी कई गांवों में इसी तरह की प्रक्रिया अपनाई गई थी। ये घटनाएं हमें चेतावनी दे रही हैं कि हम लोकतन्त्र की तिजारत की तरफ बढ़ रहे हैं। ग्रामीण स्तर पर यदि इस तरह की घटनाएं प्रकाश में आ रही हैं तो इसका मतलब साफ है कि ऐसे  कामों के लिए इन्हें ऊपर से प्रश्रय प्राप्त है।
 लोकतन्त्र किसी झोपड़ी में पैदा होने वाले नागरिक को भी वही अधिकार देता है जो किसी महल में पैदा होने वाले व्यक्ति के होते हैं। स्वतन्त्र भारत में दिया गया यह अधिकार कोई छोटा अधिकार नहीं है क्योंकि इसके जरिये ही गरीब से गरीब आदमी भी अपनी मनपसन्द की सरकार का चुनाव करता है अतः जरूरत इस बात की भी है कि चुनाव आयोग बाकायदा चुनावी अवसर पर प्रचार अभियान चला कर लोगों को किसी भी लालच में पड़ने से रोके।  चुनाव आयोग का गठन ही इसलिए किया गया था जिससे भारत में स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव हों और प्रत्येक नागरिक निर्भीक होकर अपने वोट का प्रयोग करें। यह ऐसी संवैधानिक संस्था है जिसके ऊपर भारत के लोकतन्त्र की पूरी इमारत टिकी हुई है। इसी वजह से संविधान निर्माता डा. अम्बेडकर ने भारत की शासन व्यवस्था में इसे शामिल करते हुए चौखम्भा राज कहा था जिसमें विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के साथ चुनाव आयोग प्रमुख अंग था। परन्तु बाद में समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने चुनाव आयोग की जगह मीडिया या स्वतन्त्र प्रेस को रख दिया और यह प्रचारित हो गया परन्तु संविधानतः चुनाव आयोग ही चौखम्भे राज की परिकल्पना का अटूट हिस्सा है। 

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