‘‘कुतुब मीनार से चिल्लाकर
कहने की जरूरत नहीं है
कि कैसी है आज की हवा
और कैसा है इसका हस्तक्षेप
कि चीजों के गिरने के नियम
मनुष्यों के गिरने पर लागू हो गए।’’
देश की राजधानी दिल्ली और देशभर में बारिश और तेज हवाओं से जो हादसे सामने आए हैं वो बहुत सारे सवाल खड़े करते हैं। भीषण गर्मी झेलने के बाद दिल्लीवासी मानसून की वर्षा की शीतल बौछारों का आनंद लेने के लिए शुक्रवार की सुबह उठे ही थे कि इंदिरा गांधी इंटरनैशनल एयरपोर्ट के टर्मिनल-1 की छत गिरने से एक व्यक्ति की मौत और 7 लोगों के घायल होने की दुखद खबर ने उन्हें गमगीन बना दिया। हादसे की वजह बारिश के कारण छत की शीट का नीचे गिरना बताया जा रहा है। छत की शीट नीचे गिरने से उन्हें सपोर्ट देने वाले लोहे के बीम टर्मिनल पर खड़ी कारों पर गिर पड़े। उड़ाने रद्द हो गईं। घायलों को अस्पताल पहुंचाया गया। यात्रियों में दहशत फैल गई। सब कुछ ठप्प होकर रह गया। विमानों का प्रस्थान रद्द होने से यात्रियों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा।
आधुनिक सुविधाओं से लैस इस टर्मिनल का पुनर्विकास कर बनाई गई नई इमारत का उद्घाटन इसी वर्ष मार्च महीने में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा किया गया था। तकनीकी रूप से बेहतर डिजाइन और सुन्दरता के मामले में भी टर्मिनल-1 विश्व के किसी अन्य एयरपोर्ट के समकक्ष ही माना गया था। यद्यपि टर्मिनल की पार्किंग की संरचना कांग्रेस शासनकाल में हुई थी। टर्मिनल-1 की पार्किंग की फौलादी छत ढहने से इन सब पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। तूफानों में छतों का उड़ना या ढहना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन जिस भारी-भरकम बीम पर छत खड़ी थी उनका गिरना हैरान करने वाला है। जबलपुर के डुमना एयरपोर्ट का शेड भी भारी बारिश के चलते कल गिर गया था। शेड अफसर की कार पर गिरा जिससे कार बुरी तरह से चपटी हो गई। भगवान का शुक्र रहा कि ड्राइवर 10 मिनट पहले ही कार से बाहर निकला था। हादसे हुए हैं तो जांच भी होगी ही। क्या यह हादसे मानवीय लापरवाही से हुए। क्या किसी ने कभी बीम का निरीक्षण ही नहीं किया या फिर घटिया इन्फ्रास्ट्रक्चर के कारण टर्मिनल की छतें ढह रही हैं।
अयोध्या की नवनिर्मित सड़कों की खस्ता हालत, मुम्बई ट्रांस हार्बर लिंक रोड में दरारें और बिहार में 10 दिन के भीतर एक के बाद एक पुलों का ध्वस्त होना ऐसे उदाहरण हैं जो दावों की पोल खोलते नजर आ रहे हैं। हैरानी की बात तो यह है कि देश में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए पुल आज भी काम कर रहे हैं जबकि नवनिर्मित पुल लगातार ध्वस्त हो रहे हैं। ऐसे हादसों का होना चिंताजनक ही नहीं बल्कि निंदनीय भी है। क्या तेजी से किए जा रहे विकास में तकनीकी खामियां हैं या फिर भ्रष्टाचार के चलते घटिया स्तर का निर्माण इसके लिए जिम्मेदार है। हादसों की जिम्मेदारी से बचने के लिए बहाने भी बहुत होंगे। हर कोई जिम्मेदारी से बचना चाहेगा। जांच होगी भी तो रखरखाव करने वाली एजैंसियों की बजाय ठेकेदार या कुछ कर्मचारियों को बलि का बकरा बना दिया जाएगा। छतें और पुल मलबे में बदलते देर नहीं लगती तो क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि निर्माण करने वालों को कोई विशेषज्ञता हासिल नहीं थी।
आखिर हादसों में मौतों के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या हवाई अड्डों का रखरखाव करने वाली एजैंसियों और पुलों का निर्माण करने वाली कम्पनियों को दंडित नहीं किया जाना चाहिए। आखिर कब तक लोगों की जिन्दगी से खिलवाड़ होता रहेगा। महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में गुणवत्ता का ध्यान रखा जाना ही चाहिए। गुजरात का मोरबी पुल ढहने से पलभर में अनेक लोगों की मौत चीख-चीख कर आज भी कह रही है कि अगर पुल की मरम्मत के नाम पर महज रंगाई-पुताई न की जाती तो लोगों की जानें बचाई जा सकती थीं। कई बार सरकारें तेजी से विकास कार्यों का श्रेय लेने के लिए मूलभूत ढांचा विकास में सजगता से काम नहीं लेती जबकि बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में सजगता बहुत जरूरी है। जिन-जिन परियोजनाओं पर सार्वजनिक धन खर्च होता है उन पर सतत निगरानी की जरूरत होती है। सरकारों के इरादे नेक होते हैं लेकिन सिस्टम में खामियां होती हैं। जिस सिस्टम को लगातार निगरानी रखनी चाहिए या निर्माण में गुणवत्ता पर नजर रखनी चाहिए वह हमेशा गायब होता है या फिर भ्रष्टाचार के चलते निष्क्रिय ही रहता है। सिस्टम तब लगता है जब लोगों की जानें जाती हैं और करोड़ों-अरबों का नुक्सान होता है। सिस्टम की िवफलताओं को दूर करने के लिए पूरे सिस्टम की ओवर हालिंग जरूरी है और साथ ही दोषियों को कठघरे में खड़ा करना भी जरूरी है।